पुस्तक समीक्षा: मोह व विछोह की गाथा
सदियों से मिथिलांचल को विद्वता व सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण केंद्र माना जाता रहा है. सामान्य धारणा यही है कि इस इलाके में बसने वाले लोग विद्यापति के गीत गा कर खुश होते हैं. मैथिली भाषा के गौरव गान में खोए अध्येता दरभंगा शहर को अपनी राजधानी मानते हैं. उन्हें यहाँ के गाँवों में संगीत की स्वर लहरी ढूंढने की आदत है. लेकिन मिथिला की हकीकत बस इतनी ही नहीं है. भारत के अन्य क्षेत्रों की तरह यहाँ के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में भी जटिलताएं विद्यमान हैं. पारिवारिक जीवन का अधूरापन यहाँ के लोगों को पलायन के लिए विवश करता है. कलकत्ता स्थायी ठिकाना रहा है पूर्वांचलियों के लिए. लेकिन सबके लिए यह महानगर मनभावन जगह नहीं रही. रोजी-रोटी की तलाश में मैदानी इलाका छूट जाता है और खदानों की दुनिया लुभाने लगती है. जिसे अपने हाथों की शक्ति पर भरोसा है, वह सब कुछ हासिल कर सकता है. एक पिता अपने बच्चों को बेहतर भविष्य देने के लिए खदानों में पत्थर तोड़ने के लिए भी तैयार है. उसे इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि यह काम अमूमन गठीले और शारीरिक रूप से मजबूत आदिवासी करते हैं. पत्रकार व लेखक जे सुशील की किताब "दु:ख की दुनिया भीतर है" सामाजिक स्तरीकरण से संबंधित कई भ्रांतियाँ तोड़ती हैं.
मैथिल समाज में पिता-पुत्र के संबंधों की जब कभी भी चर्चा होती है तो गंगा नाथ झा और उनके पुत्र अमर नाथ झा विमर्श के केंद्र में होते हैं. किन्तु सुशील के संस्मरण के सहारे एक नए क्षितिज को देखने का अवसर मिलता है. एक वेल्डर पिता हाड़तोड़ मेहनत कर रहा है ताकि उनके सभी बच्चे अधिकतम पढ़ाई कर सकें. जादूगोड़ा में यूरेनियम की खानें हैं. यहाँ की पथरीली भूमि में कम पौधे ही पनपते हैं. फूलों और सब्जियों का शानदार बगीचा बन नहीं पाता है, फिर भी जिद है जमीन खोदने की. ऐसे मेहनती पिता की मृत्यु से पुत्र का मन व्यथित होता है. पिता जादूगोड़ा से अपने गाँव आ चुके थे. औद्योगिक क्षेत्र की श्रमिकों की बस्ती उन्हें रास नहीं आई. लेकिन गाँव में भी निर्मम तत्वों की कमी नहीं है. सात समंदर पार अमेरिका में पुत्र बेचैन है क्योंकि शीघ्र-अति-शीघ्र उसे अपने गाँव पहुँचना है. किताब की शुरुआत मृत्यु की खबर से होती है जो असीमित जिज्ञासा उत्पन्न करती है. मृत्यु को न तो नकारा जा सकता और न ही झुठलाया जा सकता, तो इंसान क्या करे? जीना शुरु करते ही मृत्यु के बारे में भी सोचना शुरु कर दे. गिरधर राठी अपनी कविता "मृत्यु-संबंधी विचार" में लिखते हैं कि,
"मौत हर क्षण हर क्षणांश यहाँ से वहाँ तक टप-टपा-टप गरजती लरजती पसरती
चली आती है और
हमारे चारों तरफ हर पल हर पलांश
क्या कितना कुछ एक के बाद एक या एक साथ
मरता नहीं रहता! -- तब भी
हम जो जीते हैं वह जीवन ही है
या यूं कहें जीवन है जिसे जीते-जीते हम
हर पल हर छिन
मौत के जबड़ों के भीतर खींचते रहते हैं..."
सुशील अपने पिता के गुण-दोषों का बेबाक चित्रण प्रस्तुत करते हैं. कहीं भी कृत्रिमता नहीं दिखाई देती है. लेबर यूनियन से घनिष्ठता और फिर उससे मोहभंग हो जाना, समकालीन भारत में मार्क्सवादी आंदोलन की सीमाओं को भी दर्शाता है. सेमिनारों में होने वाली राजनीतिक चर्चा जनसाधारण के लिए कितनी अर्थहीन होती है, यह भी इस संस्मरण में देखने को मिलता है. दरअसल श्रमिकों के पास इतनी फुर्सत ही कहाँ होती है कि वे माओवादी छापामारों के भयावह रुप से रूबरू हो सकें. कार्ल मार्क्स के वैज्ञानिक समाजवाद का रूमानी प्रभाव उन युवाओं पर ही हुआ जो "वैश्विक पूँजीवाद की क्रूरता" से अवगत थे. दार्जिलिंग की पहाड़ियों में सिर्फ प्राकृतिक सौंदर्य ही नहीं है. यहाँ "नक्सलबाड़ी नाम की एक बस्ती" भी है जहाँ से फैली हुई हिंसा ने गरीबों की किस्मत तो नहीं बदली, लेकिन गुंडागर्दी को विचारधारा का आवरण जरूर दे दिया. झारखंड के दुरूह पठारी व जंगली इलाकों में दबंग होने के क्या फायदे हो सकते हैं, इस किताब में उसकी बानगी भी मौजूद है.
सुशील अपने गुस्सैल पिता के उपेक्षित बचपन में बहुत कुछ ढूंढने की कोशिश करते हैं, "वह अत्यन्त गरीब परिवार में पैदा हुए थे. जब वह दादी के पेट में थे, दादा गुजर गए. बीहड़ देहात में विधवा माँ ने उनका पालन-पोषण किया. गाँव में ऐसे बच्चों के लिए 'बपटूअर' शब्द का इस्तेमाल किया जाता है, यानी वैसे बच्चे, जिन्हें अपने पिता का प्रेम नहीं मिला." लेकिन पिता के प्रेम से वंचित जमुना अपने बच्चों के प्रति स्नेह का भाव रखते हैं. गाँव के लोगों ने जिन्हें 'लड़ूदेव' नाम दे दिया उनकी स्वीकारोक्ति प्रेरणादायी है, " देखो हम पढ़ नहीं पाए तो मजदूर हो गए. तुम लोग पढ़ लो. फिर जितनी चाहे बदमाशी करना." श्रमिक पिता शिक्षा के महत्व से अनभिज्ञ नहीं थे. वह घर में ढेर सारी पत्रिकाएं व किताबें लाया करते और पढ़-पढ़कर अपनी अर्द्धांगिनी को सुनाया करते थे. सुशील अपनी लेखकीय निर्मिति में इन पलों के योगदान को स्वीकार करते हैं, "वह बहुत शिक्षित भले न थे, लेकिन मुझमें पढ़ने के प्रति लगाव उनकी जिद का ही नतीजा है. बचपन में जब वह माँ को मनोहर कहानियाँ और वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यास पढ़ कर सुनाया करते, तो मैं भी चुपचाप सारी कहानियाँ सुना करता. चूँकि माँ पढ़ नहीं सकती थी, तो पिता गर्मी की दुपहरियों में लेटे-लेटे उपन्यास पढ़ कर सुनाया करते."
मिथिला में श्राद्ध कर्म और मृत्यु भोज कितनी विकट समस्या है, इसकी सही जानकारी यह संस्मरण देती है. सामान्यतः इस इलाके से बाहर निकल जाने के बाद लोग वापस नहीं आते हैं. लेकिन "अपनों" के बीच प्रेम और सम्मान की चाह लिए लौटने वाले किस तरह से अपमान झेलने के लिए अभिशप्त हो जाते हैं इसका मर्मस्पर्शी अनुभव सुशील साझा करते हैं. अपने पिता की बेबसी को व्यक्त कर लेखक एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं. गाँव की राजनीति और रिश्तेदारों के जोड़-तोड़ का मुकाबला करना वाकई मुश्किल है. स्थानीय लोगों का यह लिजलिजापन ही मैथिल समाज के नैतिक पतन का जिम्मेदार है. यह किताब पिता-पुत्र के अनूठे स्नेह का एक दस्तावेज है. वैश्विक साहित्यिक परिदृश्य को प्रभावित करने वाले लेखकों - वी एस नायपाॅल, पाॅल ऑस्टर, ओरहान पामुक, रवींद्रनाथ टैगोर, गैब्रियल गार्शिया मार्केज व मो यान - की लेखकीय यात्रा के विश्लेषण से किसी मनुष्य की रचनात्मक प्रतिभा के विकास में पिता या परिवार के अन्य सदस्यों की अहमियत का पता चलता है. अपने पिता की खैनी की चुनौटी को ढूंढते हुए सुशील एक "नीड़" का निर्माण कर रहे हैं जिसमें नई पीढ़ी के लिए जगह होगी.
पुस्तक : दुःख की दुनिया भीतर है
लेखक : जे सुशिल
प्रकाशक : रुख पुब्लिकेशन्स
मूल्य : रु .240
(प्रशान्त कुमार मिश्र, स्वतंत्र पत्रकार व लेखक हैं.)