पुस्तक समीक्षा: अपने दौर का आईना
प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक एजाज अहमद फिर से चर्चा में हैं। उनके गुजर जाने के बाद उनके लेखन पर फिर से लौटने की एक नयी मुहिम शुरू हुई है। उनके लेखों के अनुवाद इधर-उधर टुकड़ों में काफी छपे फिर भी एक खाली जगह थी- हिंदी में एक ऐसी किताब की जगह जो व्यवस्थित तरीके से हमारे समय के सबसे महत्त्वपूर्ण बुद्धिजीवियों में से एक पर कुछ कह सके, उसका जीवन हिंदी के आम पाठक के लिए थोड़ा और खोल सके और सबसे जरूरी बात कि एजाज की विचार-प्रक्रिया से अंतरंग परिचय करा सके। वाम प्रकाशन से आई 'इक दौर हमारा बाकी है' इन तीनों पक्षों पर विस्तार से बात करती है। विजय प्रशाद से एजाज अहमद की यह लंबी बातचीत हमारे समय और राजनीति को समझने और उससे लड़ने के लिए जरूरी साजो-सामान मुहैया करवाती है।
जो उन्हें अंग्रेजी में पढ़ते रहे हैं, वे जानते हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप में इतिहास के विकास और राजनीतिक-सांस्कृतिक घटनाओं का समूल जायजा उनको पढ़े बिना नहीं लिया जा सकता। चाहे वह 'इन थियरी' में भारत और मार्क्स के संबंधों पर लेख हो, चाहे अरुंधती रॉय की किताब ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ पर उनका लिखा या उत्तर-आधुनिकता पर लंबा लेख, असहमतियों से असहिष्णुता के साथ निपटने के इस दौर में- जहां प्रतिरोध भी हल्की लोकप्रियता के चक्कर में फंसा है- एजाज का लिखा मनुष्यता के पक्ष में धुर दक्षिणपंथी ताकतों से भिड़ता रहा है। उनका काम जिस तरह के अध्ययन से बना है और जिस सूक्ष्म दृष्टि से देखे जाने की मांग करता है, शायद ही कोई विजय प्रशाद से बेहतर होता जो उनसे बात कर पाता। प्रशाद जाने-माने पत्रकार, इतिहासकार और बुद्धिजीवी हैं और एजाज अहमद की पॉलिटिक्स को नजदीक से देखते-समझते रहे हैं। उन्होंने 2019 में एजाज अहमद से बातचीत की थी जो अंग्रेजी में पुस्तक-रूप में 2020 में छपकर आई। सुखद है कि अब यह बातचीत हिंदी में उपलब्ध है।
किताब में एजाज अहमद विस्तार से बचपन से कॉलेज के दिनों तक पढ़ी किताबों, अपने राजनीतिक मत के विकास और अमेरिका से लेकर भारत तक अपनी रिहाइश के बारे में चर्चा करते हैं। इन तमाम चर्चाओं के साथ उनका द्वंद्वात्मक विश्लेषण चलता रहता है, खुद अपने जीवन को लेकर, इस विस्तृत और समृद्ध जीवन में घटी और अनुभव की गई घटनाओं को लेकर, युद्धों और बादशाहतों को लेकर, जुल्मतों से पैदा हुए अंधेरे को लेकर, उससे लड़ने की संभावनाओं को लेकर– एक जमीनी नायकत्व का निर्माण करते हुए, उर्दू शायरों वाली फाकामस्ती लिए।
एजाज अहमद का मुख्य विचार क्या है, इसका सरल उत्तर एक लेख में देना बिलकुल संभव नहीं है। फिर भी कहा जा सकता है कि पूंजीवाद की संपूर्ण और समग्र आलोचना उनके लिखे में मिलती है। साम्राज्यवादी तंत्र और पूंजीवाद ने किस तरह से आम जनता के लिए एक भव्य भुलावे का निर्माण किया, किस तरह से उसके बुनियादी हक मारे, किस तरह उसको आपस में लड़वा दिया, किस तरह से धर्म का इस्तेमाल कर अपने मतलब साधे, यह सब वे धैर्य से इस लंबी बातचीत में बताते हैं। नवउदारवाद के प्रोजेक्ट, अमेरिकी यूनिवर्सिटी सिस्टम, आदि किस तरह से एक योजना के तहत मार्क्सवादी विचार को कमजोर करने के लिए काम करते रहे और कैसे अहम विमर्शों के आगे 'उत्तर' लगता रहा, यह सब भी इस बातचीत से निकल कर आता है।
एजाज अहमद अपने समकालीनों से इसलिए भी आगे हैं कि वह इनसे निपटने के तरीकों पर बात करते हैं। उनके लिखे का एक मजबूत पक्ष उनकी भाषा है। पिछली शताब्दी के आखिरी दशकों में विमर्श और दर्शन की भाषा क्लिष्ट होती चली गई। यह भी कहा जा सकता है कि उसमें अमल किए जाने की योग्यता नहीं थी या आकांक्षा नहीं थी और इस वजह से बौद्धिक उलझाव और भाषाई चमत्कारों से उसने अपनी सत्ता स्थापित करने की लगातार कोशिश की और शायद एक हद तक सफल भी रही। एजाजज अहमद की भाषा सरल है और बिलकुल स्पष्ट। उन्हें क्या कहना है इसको लेकर वह तार्किक रूप से बिलकुल साफ हैं। उनके व्यक्तित्व का एक पक्ष उनका शायर होना भी है और उनका एक कुशल अनुवादक होना भी। योगेंद्र दत्त का अनुवाद तरल है और तकनीकी शब्दों के बावजूद पठनीयता बनी रहती है। यह उन चुनिंदा किताबों में से है जिनका एक ही पाठ पढ़ने वाले के नजरिये में बड़ा परिवर्तन ला सकता है।
इक दौर हमारा बाकी है
एजाज अहमद से विजय प्रशाद की बातचीत
योगेंद्र दत्त
प्रकाशक: वाम प्रकाशन
मूल्य: 350 रुपये | पृष्ठ: 244