पुस्तक समीक्षा: हुकुम देश का इक्का खोटा
पुस्तक : हुकुम देश का इक्का खोटा
लेखक : नीलाक्षी सिंह
प्रकाशक : सेतु प्रकाशन समूह
कीमत : रु 275
मनुष्य के सपनों पर मृत्यु और अनिश्चितता के साये मंडराते ही रहते हैं। शरीर को हम सब निष्प्राण उस वक्त मान लेते हैं जब आत्मा उसका साथ छोड़ देती है। लेकिन जिन्होंने अस्पतालों में डाॅक्टरों की टोली को जिंदगी की फिक्र करते हुए देखा है वे यही मानते हैं कि आत्मा शरीर में समाने के लिए ही बेचैन रहती है। एक के अनुभवों की संपदा किसी दूसरे के काम आ जाती है। अगर इससे कोई लौ जलती है तो अंधेरा अपना वजूद बचा नहीं पाता।
पंक्तियाँ जो खींचतीं हैं अपनी ओर:
"विस्मृति और स्मृति के बीच वाली चीज ही एक लेखक का हासिल थी। यह तीसरी चीज अपने लिए कोई रोशनी का घेरा नहीं चाहती थी। इसलिए कोई एक नाम पा लेने से यह साफ-साफ बच निकली। इसमें एक दुनियावी खराबी थी लेकिन, यह अपनी छरहरी काया को लेकर बड़ी सजग थी और ऐसे चौकसी में रहती कि इंसान के दिमाग, मन, आत्मा इन सब भारी भरकम नाम वाली शै के बीच इसका बसेरा कहाँ है, यह कोई बूझ न पाये। और फिर जब इतना सब कुछ गैरजरूरी पहले से मौजूद था ही संसार में बूझने को, तब इसके लोकेशन को ट्रेस करने की क्या जिद की जाती भला! बस यही तसल्ली होती रहे कि यह तीसरी चीज है कहीं भीतर गहरे मौजूद, अपनी पूरी आबोहवा में।"
दर्द को जिस किसी ने भी महसूस किया है वे अपने जीवन के संघर्ष से ही प्रेरणा ग्रहण करने लगते हैं। हमारे मुल्क में जब विचारधाराएं साहित्य को प्रभावित करने लगीं तो अंतर्मन की व्यथा को अभिव्यक्ति मिलना मुश्किल हो गया। गंगा-जमुना के मैदान में "विमर्शों" की कमी नहीं है। लेकिन सार्वभौम सत्य को साँचों और खाँचों में नहीं रखा जा सकता। इस धरा पर जन्म लेने वाले बच्चों की अनुभूतियों को स्वर देना ही संभवतः लेखकों की "जिम्मेदारी" होनी चाहिए। दृष्टिबाधित शिशु को जन्म देने की आशंका माँ को विचलित कर देती है:
"और मेरा प्रवेश भी हुआ भी वैसा ही। लेबर पेन शुरू हुआ और इसके पहले कि माँ को हास्पिटल ले जाया जाता, मैंने मंच पर एण्ट्री ले ली। दिन का समय था पर उस कमरे में सौ वाट का बल्ब जल रहा था। जन्म के तुरत बाद मैं एकटक उस बल्ब को ताकती जा रही थी। उस नजारे ने सबको सकते में डाल दिया और मेरी माँ को पक्का यकीन हुआ कि मैं हड़बड़ी में आँखों में रोशनी लाना भूल गयी हूँ। उन्होंने दरअसल बच्चे को नहीं अपनी आशंकाओं और भय को जन्म दिया था। कालान्तर में सब कुछ सामान्य साबित हो गया पर मेरी माँ उस समय के साये से कभी न निकल पायीं।"
मेडिकल साइंस क्या करे, उसे अपने शब्दकोश में जाँच, बायोप्सी, सर्जरी, जख्म की ड्रेसिंग जैसे अप्रिय शब्द रखने पड़ते हैं; कुछ अच्छा काम करने के लिए अपने दरवाजे पर आए मेहमानों से वह स्वाद ही छीन ले तो क्षणिक कष्ट होना तो तय है। नौ महीने माँ की कोख में रह कर तैयार हुआ शरीर विपरीत परिस्थितियों में भी सहजता का पाठ नहीं भूलता, क्योंकि "मन" को गति चाहिए विश्राम नहीं:
"बहुत सी दवाइयों के असर में शरीर सूज चुका था और स्वाद से नाता बिल्कुल टूट चुका था पर इन सब को आसानी से धत्त बताया जा सकता था क्योंकि उपन्यास गति पकड़ चुका था। मैं होश में यह प्रयास करती कि उस लिखे जाते में जो भी सहजता से आना है, आए और मैं कभी सचेत न हो जाऊँ। पर शायद हो यह रहा था कि मैं रोम-रोम से सजग हो जा रही थी कि तत्कालीन जीवन के उस दूसरे पक्ष की कोई छाया उपन्यास में न पड़े। यह द्वंद्व उपन्यास के लय पाने के साथ ही ज्यादा मुखर होकर परेशान करने लगा था। जब वहाँ कोई पात्र कातर होता तो चोर नजरों से मैं उसमें अपना साम्य तलाशने लगती।"
गाँव-कस्बे को टेलीविजन के आगमन ने कितनी खुशियाँ प्रदान कीं वह भी इस पुस्तक में देखने को मिल जाती है। आज की पीढी इसे पढ़ कर उसे महसूस कर सकती है:
"वह ऐतिहासिक दिन था। बहुत मशक्कत के बाद एण्टीना लगा। आंगन के बीचोबीच एक लोहे के खम्भे से उसे बाँधा गया। बुधवार का दिन। आसमान, तारे की झिलमिल स्क्रीन पर दिखती रही। बहुत से लोग हमारे आंगन में जमा एण्टीना से जूझते रहे और आखिरकार सब ठीक हुआ। अगले दिन शाम में 'बहू बेगम' नाम की हिन्दी फिल्म का प्रसारण हुआ, जिसे देखने के लिए मेरे घर आंगन में जो कतार लगी, उस दृश्य को दुबारे रामायण सीरियल आने के बाद ही दुहराया जा सका।"
परिवर्तन को हम प्रकृति की तयशुदा योजना मान लें तो हरेक मौसम "बसंत" ही है जिसमें जिंदगी उमंगों से लबालब भरी होती है।
(समीक्षक प्रशांत कुमार मिश्र, बिहार के मधुबनी जिले के सप्ता गांव के रहने वाले हैं, और पेशे से शिक्षक हैं।कई पत्र पत्रिकाओं में लेख अदि लिखते रहे हैं।)