पुस्तक समीक्षा: मौन से मुखर की ओर
जंगल में जनलोकपाल
लेखक: प्रियव्रत चौधरी
प्रकाशन: पारिजात कुंज
मूल्य: 150 रुपये
आज की कहानी अपने मौजूदा सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक परिवेश का जामा बदस्तूर बुन रही है। उसकी यह सीवन कहीं ऊबड़-खाबड़ दिखती है तो कहीं किसी मखमली पैबंद से जड़ी। इसमें कोई हर्ज भी नहीं क्योंकि कहानी का कथित ‘पारंपरिक’ ताना-बाना उसका अपना आज ही होता है। वह बड़े शहरों की कड़वी-कसैली दास्तां बयान करे या छोटे गांव-कस्बों की सीधी-सरल जीवनशैली में हो रहे तीव्र परिवर्तनों की परतें उघाड़े, उसे अपने आज को ही पहचानना है और उसी पर टिप्पणी करनी है। खास बात यह है कि आज के युवा कथाकारों की व्यापक चिंताओं का प्रस्थान बिंदु भी हमेशा की तरह उनकी अपनी चिंताओं से ही उपजता है। बेशक वह वृहद समाज को भी अपनी चिंता के दायरे में समेटते हैं, लेकिन कई मायनों में आज अस्तित्व का संकट अतीत की बनिस्बत ज्यादा बड़ा है। इसे देखते हुए अगर आज का कथाकार किसी नए सिरे से ‘अपने दिल की’ कहता दिखाई दे, तो ऐतराज कैसा !
‘जंगल में जनलोकपाल’ संग्रह की कहानियां अपने कैनवस में बहुत बड़े फलक को नहीं समेटती, बल्कि अपने निकटवर्ती परिवेश को समझने की जरूरत उनकी सबसे पहली है। इसके बावजूद, संग्रह की शीर्षक कथा का दायरा कुछ इतना बड़ा और प्रयोगधर्मी दिखता है कि एकबारगी उस पर हैरानी होती है! यह कथा सामाजिक-राजनीतिक तत्वों से होती हुई, विज्ञान कथाओं का सा ताना-बाना बुनती है। अतीत से भविष्य तक फैली इसकी यात्रा कई जमीनें नापती है। वैसे हिन्दी कथाजगत में राजनीति की जमीन को व्यंग्यात्मक तौर पर उकेरने के कुछेक प्रयास पहले भी हुए हैं, जिस फेहरिस्त में विष्णु नागर की ‘जंगल में डेमोक्रेसी’ भी याद आती है। दोनों ही कहानियां अपने वक्त की राजनीति का हाल-हवाला देती हैं, जो अपने-अपने तरीके से व्यंग्य के आवरण में लिपटा है। आखिर किसने कहा कि राजनीति और राजनीतिकार ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ विहीन होते हैं!
प्रियव्रत चौधरी कवि भी हैं, लेकिन कहानियों की बुनावट में उनके कवि की झलक फिलहाल तो नहीं दिखती। हालांकि, एकाधिक विधाओं में लिखने वाला कलमकार कभी-कभार विधाओं का अतिक्रमण करता भी दिखता है। कई बार वह विधाओं की हदबंदियां तोड़कर दीवार के उस पार झांकता दिख जाता है। ऐसे प्रयासों के फायदे-नुकसान से परे उसे जो नई जमीन दिखती है, जाहिर है किन्हीं विशेष परिस्थितियों में उसकी परख की जानी भी जरूरी है।
कहानी ‘तालिबान में फेमिनिज्म वाला प्यार’ अपनी नितांत मासूमियत के लिए याद रखने लायक है। कहानी सीधी-सरल है परंतु इसके निर्णायक मोड़ पर एक तीव्र मनोवैज्ञानिक घुमाव पाठकों को हैरान-परेशान कर देने के लिए काफी है। कहानी के प्रमुख किरदार स्कूली बच्चे हैं, लेकिन लेखक ने जिस मनोवैज्ञानिक पक्ष को कथानक में शामिल किया है वह बड़ी उम्र के लोगों पर भी उतना ही सटीक बैठता है। कहानी तक ही सीमित रहें तो बालमन के विस्तृत कौतुहल में निहित एक पक्ष डर का भी होता है जिसकी परिणति अक्सर अप्रत्याशित होती है।
कुछ अन्य कहानियों में ‘प्यार मांगा है तुम्हीं से’ और ‘मुक्ति प्रेत’ भी ध्यान खींचती हैं। यों लेखक अपने गल्प जगत में राजनीति को बहुत तरजीह देते हैं। आमजन के बहाने राजनीति के जाने-अनजाने पक्षों पर टिप्पणियां उनका पसंदीदा शगल लगता है। इसमें कोई हर्ज भी नहीं क्योंकि अस्तित्व का सवाल, सीधे-सीधे राजनीतिक परिवेश से जुड़ा होता है और आज की कहानी में अस्तित्व चिंता का भाव सबसे मुखर तौर पर देखने में आ रहा है। ऐसा क्यों है, इसके सामाजिक-आर्थिक पक्षों पर एक बार फिर से बात करने की जरूरत नहीं। आज का कहानीकार अपने दायरे में उग्र राजनीति को समेटने में पहले के कहानीकारों की अपेक्षा कहीं ज्यादा उत्साहित दिख रहा है। उसका यह प्रयास जारी रहना चाहिए, फिर चाहे वह परोक्ष रूप से इस पर बात करे या सीधी और जोरदार चोट कर के।
पुस्तक समीक्षा: संदीप जोशी