पुस्तक समीक्षा: कथ्य से आगे की कहानियां
नई पीढ़ी के लिए यकीनन रमेश बतरा अनजाना नाम ही हैं। 1999 में उनके निधन से पहले की कहानियां पढ़ कर शिद्दत से महसूस होता है कि एक समर्थ रचनाकार का जाना किस तरह साहित्य जगत को खाली कर जाता है। हरीश पाठक को इस बात के लिए धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने न सिर्फ इन कहानियों का संचयन और संपादन किया बल्कि इसे प्रकाशित करा कर रमेश बतरा की नए सिरे से खोज की और नई पीढ़ी का उनसे परिचय कराया।
रमेश बतरा हर कहानी में जैसे खुद से आगे निकलने का प्रयास करते हैं। उनकी कहानियों में कथ्य नए रूप में सामने आता है और कहानी खत्म हो जाने पर यह पाठको को देर तक सोचने के लिए मजबूर छोड़ देता है। उनकी कहानी अधिनायक पढ़ते हुए लगता है, जैसे समय सिर्फ आगे बढ़ा है, उसके साथ जैसे बदलाव आने थे वे अभी भी नहीं आए हैं। अधिनायक ऐसी ही मां की कहानी है, जो बेटे को इंजीनियर बनाना चाहती है और बेटा लेखक बनना चाहता है। आज जिस दौर में हम हैं, हमारे आसपास ही ढेरों बच्चे हैं, जो बनना कुछ और चाहते हैं और उन्हें करिअर के विकल्प के तौर पर कुछ और चुनना पड़ता है। लेकिन यह कहानी सिर्फ करिअर विकल्प की कहानी नहीं है। यह कहानी कई स्तरों पर चलते रिश्तों की कहानी है, जो मां-बेटे, पिता-बेटे की आपसी समझ और संवादहीनता की कहानी है।
रमेश बत्रा मानवीय संवेदनाओं को एक सूत्र में पिरोने के लिए हर कहानी में प्रयासरत नजर आते हैं। उनकी कहानी शर्म-बेशर्म में यह कोशिश साफ तौर पर जाहिर होती है। नरैटर भाई धर्म निभाता चाहता है लेकिन चुप्पी साधे है। माता-पिता जिन्हें अभिभावक होने का धर्म निभाना चाहिए वे अलग ही ढंग से मुखर हैं। इतने मुखर कि अपनी बेटी के अंतिम स्नान में भी वे जमादार की मदद लेते है क्योंकि लड़की की जली हुए शरीर को हाथ लगाना उन्हे गवारा नहीं। लेकिन नरैटर फिर भी संवेदना के उस स्तर पर पहुंचता है, जहां से पाठक लड़की और उसके मुंहबोले भाई के बीच आत्मीयता के बारीक तंतु को पकड़ सकता है।
उनकी कहानियों की खासियत ही है कि वे सिर्फ कहानी नहीं कहते बल्कि आसपास के हर दृश्य को अपनी कलम के मार्फत कहते चलते हैं, जहां पाठक की नजर आसानी से नहीं जाती।
कत्ल की रात
रमेश बतरा
संचयन व संपादन: हरीश पाठक
प्रलेक प्रकाशन
पृष्ठ: 347
मूल्य: 400 रुपये