पुस्तक समीक्षा : किसान बनाम सरकार: आंदोलन की कहानियां
बीते दिनों एक क़िताब एक नए प्रकाशन बैनर, द फ़्री पेन, के तहत आई है, जिसकी चर्चा ज़रूरी है. क़िताब है, किसान बनाम सरकारः आंदोलन की कहानियाँ. लेखक हैं प्रभाकर कुमार मिश्र, जो पत्रकार हैं. यह उनकी दूसरी क़िताब है. पहली क़िताब अयोध्या के रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की कहानियों पर आई थी. इस बार, सालभर चले किसान आंदोलन पर उन्होंने क़िताब लिखी है. पिछली क़िताब की तरह, इस बार भी उन्होंने जो देखा, वही लिखा है.
भारत कि अर्थव्यवस्था में कृषि कि महत्वपूर्ण भूमिका है. कृषि हमारे आर्थिक, सामाजिक और अधयत्मिक उन्नति का माध्यम रही है. भारत के लोग कृषि को एक उत्सव के रूप में मानते रहे हैं. प्रकृति एवं पर्यावरण की रक्षा का दायित्व का निर्वहन, जिसमे वृक्ष, नदी, पहाड़ पशुधन, जीव-जंतु की रक्षा की की जिम्मेदारी निभाना जीवन के महत्वपूर्ण कार्य का हिस्सा रहा है.
भारत में किसान आंदोलन का एक लंबा इतिहास रहा है जिसने आज काफी हद तक उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति को आकार दिया है. इसकी उत्पत्ति का पता औपनिवेशिक काल में लगाया जा सकता है जब देश भर के किसान अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों के विरोध में बड़ी संख्या में लामबंद हुए. उन्होंने उच्च कर व्यवस्था, घोर शोषण, कम भुगतान, और अपनी भूमि पर अधिकार खोने जैसे मुद्दों के खिलाफ विद्रोह किया. चंपारण (1917), खेड़ा सत्याग्रह (1918), बारदोली सत्याग्रह आंदोलन (1925), तेभागा आंदोलन (1946-1947), और डेक्कन दंगे (1875) सहित कई किसान आंदोलन हुए हैं, लेकिन यह यहीं तक सीमित नहीं है. इन आंदोलनों ने किसानों को समग्र राष्ट्रवादी आंदोलन में लामबंद किया जिसके कारण 1947 में भारत की स्वतंत्रता हुई.
चर्चित पत्रकार व लेखक प्रभाकर मिश्र हमें इन सारे बिंदुओं को बहुत आसान भाषा में अपने किताब के माध्यम से बताते हैं कि, कैसे 2020–2021 का वर्ष, भारतीय किसानों का विरोध, “तीन कृषि अधिनियमों” के खिलाफ विरोध का भी वर्ष था, जिसे सितंबर 2020 में भारत की संसद द्वारा पारित किया गया था. किसान आंदोलन, केंद्र सरकार की इन्हीं कृषि नीतियों के खिलाफ थी. "किसान विरोधी कानूनों" का विरोध काफी हद तक अहिंसक थे!
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने किसानों के हित में तीन कृषि कानून बनाए थे. पहला कानून था- कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम -2020, दूसरा कानून था- कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार अधिनियम 2020 और तीसरा कानून था- आवश्यक वस्तुएं संशोधन अधिनियम 2020.
भारत सरकार अपने एजेन्सिस के माध्यम से बताने का लगातार कोशिश करते रहे कि, फार्म बिल के मूल प्रविष्टि में यह प्रावधान है कि, किसानों के लिए अपनी उपज सीधे बड़े खरीदारों को बेचना आसान होगा. सरकार की तरफ से लगातार यह भी कहा जाता रहा कि बिल का विरोध गलत सूचना पर आधारित है. देश के अधिकांश किसान संघ, सिविल सोसाइटी, और विपक्ष के राजनेता एक स्वर से कह रहे थे कि यह "फार्म बिल" किसानों को "कॉरपोरेट की दया" पर छोड़ देगा. विरोध प्रदर्शनों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) विधेयक के निर्माण की भी मांग की, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कॉर्पोरेट कीमतों को नियंत्रित नहीं कर सकते.
देश के खाद्यान्न उत्पादन में बड़े पैमाने पर आत्मनिर्भरता और कल्याणकारी योजनाओं के होने के बावजूद भी, भूख और पोषण, एक गंभीर और संवेदनशील मुद्दे हैं. आज़ादी के सात दशक बीत जाने के बावजूद भी खाद्य सुरक्षा मानकों में भारत का स्थान असंतोष जनक ही है!
लेखक आगे बताते हैं कि, जून 2020 में पंजाब के कुछ किसानों ने जब तीन कृषि सुधार अध्यादेशों का विरोध शुरू किया तो किसी को अंदाज़ा नहीं था कि प्रदर्शनकारी दिल्ली कूच कर जाएँगे. पाँच महीने बाद जब हज़ारों की संख्या में किसान-प्रदर्शनकारी दिल्ली पहुँचे तो किसी को इल्म नहीं था — ख़ुद उन किसानों को भी नहीं — कि वे कितने दिनों तक देश की राजधानी-क्षेत्र की घेराबंदी करके रखेंगे. कारण कि खेती जीवनभर का उद्यम होकर भी नितांत मौसमी है.
किसान की अमीरी और ग़रीबी उनकी पिछली फ़सल की सेहत पर निर्भर करती है. इसलिए, कई लोग यही मान रहे थे कि किसान-प्रदर्शनकारी ज़्यादा-से-ज़्यादा रबी की कटाई से पहले तक दिल्ली घेरे रहेंगे. फिर इनकी घर वापसी हो जाएगी. लेकिन किसान रबी ही नहीं, ख़रीफ़ भी पार गए. अगली रबी के बीच में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृषि सुधार क़ानूनों की वापसी की घोषणा की तभी किसान घर-वापसी की राह गए. यह कमाल की बात थी.
कांट्रैक्ट फार्मिंग के प्रावधानों और मंडी के बाहर कृषि कारोबार करने वालों के लिए एमएसपी को बेंच मार्क नहीं बनाने बनाए जाने के, किसान खिलाफ थे, जिसमें किसानों की मांग थी कि, एमएसपी को किसानों का लीगल गारंटी बनाया जाए.जिस तरह से पंजाब और हरियाणा में धान, गेहूं और अन्य फसलों की खरीद होती है उसी तरह से दूसरे राज्यों में भी खरीद हो. किसान कोई एक जाति, समुदाय या धर्म से जुड़े नहीं होते. इसलिए इनका एक संगठन के लिए काम करना दूभर रहा है.
खेती के हल में इतनी मजबूती नहीं दिखी है कि जातिगत, सामुदायिक या धार्मिक पहचान की गोंद खोद सके. इसलिए, इन प्रदर्शनकारियों का किसी निर्णय पर सहमत होना कमाल की बात थी. वह भी एक साल तक. किसान-प्रदर्शकारी, उनके नेता सहमत हो रहे थे. लेकिन वे एकमत नहीं थे. उनमें टकराव था, प्रतिस्पर्धा भी थी और ज़बरदस्त मतांतर भी था. द फ़्री पेन से प्रकाशित, प्रभाकर कुमार मिश्र की नई क़िताब, किसान बनाम सरकार: आंदोलन की कहानियाँ, किसानों की ऐसी कहानियाँ बयाँ करती है.
इसमें उन किसानों की भी कहानियाँ हैं जो कड़कड़ाती ठंड और झुलसाती गर्मी से ही नहीं भिड़े बल्कि उन्होंने इस आंदोलन को लाल क़िला हिंसा, बंगाल से आई महिला के रेप या पंजाब से आए एक शख़्स को क्षत-विक्षत कर हाइजैक करने की कोशिश को भी मात दी.
यह क़िताब हमें वह परिप्रेक्ष्य भी देती है जिसमें हम यह समझ पाते हैं कि आख़िर किसानों को ऐसा क्यों लगा कि यह संघर्ष सिर्फ़ उनकी फ़सल बचाने की नहीं है बल्कि उनकी नस्ल बचाने की लड़ाई है. यह किताब एक दस्तावेज की तरह है, जो हमें सिलस्लेवार ढंग से, बेहद आसान भाषा में बताती है कि, कैसे किसान आंदोलन की, 14 महीने की तकरार, 1साल लंबा आंदोलन, 11 दौर की बातचीत, सुप्रीम कोर्ट का दखल और सैकड़ों किसानों की मौत के बाद आखिरकार केंद्र सरकार को झुकना पड़ा.10 दिसंबर 2021,प्रधानमंत्री मोदी ने शुक्रवार सुबह 9 बजे देश के नाम संबोधन में तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की. इस पूरी घटना की शरुआत होती है, जून 2020 से, जब सरकार ने तीन कृषि विधेयकों की घोषणा की.14 सितंबर 2020 को सरकार संसद में अध्यादेश लाई और सितंबर 2020 को राष्ट्रपति की मुहर के साथ कृषि कानून बन गए! यही परिप्रेक्ष्य हमें यह समझने में भी मदद करता है कि आख़िर प्रधानमंत्री मोदी इस बात से क्यों क्षुब्ध थे कि उनकी सरकार किसानों को यह समझाने में विफल रही कि कृषि सुधार क़ानून असल में किस उद्देश्य से लाए गए थे.
भारत के स्वाधीनता आंदोलन में जिन लोगों ने शीर्ष स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, उनमें आदिवासियों, जनजातियों और किसानों का अहम योगदान रहा है. आमतौर पर किसानों के आंदोलन या उनके विद्रोह की शुरुआत सन् 1859 से हुई थी, लेकिन चूंकि अंग्रेजों की नीतियों पर सबसे ज्यादा किसान प्रभावित हुए, इसलिए आजादी के पहले भी इन नीतियों ने किसान आंदोलनों की नींव डाली. इस क़िताब में उन सभी क्यों और कैसे के जवाब हैं जो कोविड-19 महामारी के चरम काल में दिल्ली की सीमाओं पर हो रहे थे. एक पठनीय दस्तावेज़.
पुस्तक: किसान बनाम सरकार : आंदोलन की कहानियाँ
लेखक : प्रभाकर कुमार मिश्र
प्रकाशक : द फ्री पेन
कीमत : 250 रुपये
(समीक्षक आशुतोष कुमार ठाकुर बैंगलोर में रहते हैं. पेशे से मैनेजमेंट प्रोफेशनल हैं और कलिंगा लिटरेरी फेस्टिवल के सलाहकार हैं.)