पुस्तक समीक्षा: लक्खा सिंह
यह युवा लेखक विक्रम सिंह का तीसरा उपन्यास है। इससे पहले उनके चार कहानी संग्रह और दो उपन्यास 'अपना खून' और 'यारबाज' आ चुके हैं। विक्रम सिंह की कहानियां हिंदी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। विक्रम सिंह में जितना जुनून लेखन के प्रति है, उतना ही फिल्मों में अभिनय को लेकर भी है। वह अब तक वे लेखन के अलावा तीन शॉर्ट फिल्म में अभिनय करने के अलावा दो हिंदी फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं। उन्हें अब अभिनेता संजय मिश्रा के साथ अपनी तीसरी फिल्म के रिलीज का इंतजार है। झारखंड में पैदा हुए विक्रम सिंह पेशे से ऑटोमोबाइल इंजीनियर हैं।
लक्खा सिंह उपन्यास बंगाल के कोलियरी में फिटर मैकेनिक का काम करने वाले साधारण से पात्र लक्खा सिंह के असाधारण संघर्ष की कथा है। पंजाब से ताल्लुक रखने वाला लक्खा सिंह कभी फौज में जाना चाहता था मगर दुबला-पतला शरीर उसके आड़े आ गया। काम तो करना था। आगे पढ़ने और बढ़ने के लिए घर की आर्थिक स्थिति नहीं थी। और जो सबसे खराब बात थी, वो यह कि उनके पास जमीन भी उतनी नहीं थी कि परिवार की गाड़ी खेती-बाड़ी के भरोसे आगे खिसकती। उसका परिवार मजहबी सिख था। जाति से दलित लक्खा सिंह का घर परिवार उन सारी मुश्किलों से दो-चार होता रहता था जिनसे दलित जातियां वर्षों से होती रही हैं।
वो दोस्त के साथ पंजाब से बाहर निकलता है। तमाम संघर्षों के बाद वह बंगाल रानीगंज कोलियरी में फिटर-मैकेनिक हो जाता है। लक्खा सिंह दिल लगाकर काम करता है। पूरी ईमानदारी और समर्पित तरीके से। अपने काम में वह माहिर है। शादी हो चुकी है। मीतो के रूप में उसे सुंदर पत्नी मिली है। कोलियरी की कॉलोनी में उसे क्वार्टर मिल जाता है। जहां भारत के विभिन्न प्रांतों से कोलियरी में काम करने वाले लोग अपने-अपने परिवारों के साथ रहते हैं। शहर से दूर कोलियरी की ये कॉलोनी विभिन्न भाषा, संस्कार, रहन-सहन, खान-पान और रीति-रिवाजों का संगम है।
मर्द सुबह टिफिन लेकर काम पर निकल जाते। कोलियरी की खदानों में कोयला निकालने, लोड करने और बहुत सारे कामों में दिन भर खटते और शाम को थके हारे आकार अपने-अपने हिसाब से अपनी थकान उतारते।
विक्रम सिंह ने कोलियरी की उस कॉलोनी का जो चित्र उकेरा है वह कमाल का है। जिंदगी की हर गतिविधि का बारीक चित्रण है। पढ़ते वक्त लगता है कि पाठक उस कॉलोनी की सैर कर रहा है जिसमें कहीं औरतें झगड़ रही हैं। कहीं कुत्ते के पिल्ले और सुअर के बच्चे नाली में पड़ी हड्डी पर कब्जे के लिए संघर्षरत हैं। कहीं बंगाली, कहीं मद्रासी, कहीं पंजाबी, तो कहीं बिहारी अपने-अपने प्रांत की हर विशेषता के गुणगान में दूसरे से उलझा हुआ है। लक्खा सिंह को लगता ही नहीं कि वह पंजाब से दूर है। सब एक-दूसरे के मददगार भी हैं। कॉलोनी में औरतों की एक-दूसरे से प्रतिद्वंदिता और बहानापा भी काबिले तारीफ है। निंदा रस में डूबी वे तू तू, मैं-मैं होने पर एक-दूसरे की पोल खोलने से भी गुरेज नहीं करती हैं।
उपन्यास में बहुत सारे सहयोगी पात्र आवाजाही करते हैं। उपन्यास में एक मजहबी सिख का गजब का चित्रण है। विक्रम सिंह के छोटे-छोटे विवरण उपन्यास को समृद्ध करते हैं। भाषा शैली का प्रवाह पाठक को अंत तक बांधे रखता है। कथा कहने की हर लेखक की अपनी शैली है। शिल्प है। विक्रम सिंह में कहन का ये हुनर लक्खा सिंह में निखर कर आया है। हिंदी पाठकों ने इस उपन्यास को खासा प्यार दिया है। उम्मीद है लिखने का यह जुनून उनकी आगामी कृतियों में भी बरकरार रहेगा।
लक्खा सिंह
विक्रम सिंह
प्रलेक
199 रुपये
157 पृष्ठ
समीक्षक : चरण सिंह पथिक
वरिष्ठ साहित्यकार, विशाल भारद्वाज की पटाखा फिल्म के लेखक