पुस्तक समीक्षा: स्मृति बनाम विस्मृति: रविदास की कविता का पुनर्पाठ
पुस्तक: भक्ति का लोकवृत्त और रविदास की कविताई
लेखक: प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल
प्रकाशक: सेतु प्रकाशन
मूल्य: ₹525
प्रो. श्री प्रकाश शुक्ल की पुस्तक ‘भक्ति का लोकवृत्त और रविदास की कविताई’को पढ़ते हुये मिलन कुंदेरा का कथन याद आता रहा: ‘सत्ता के विरुद्ध मनुष्य का संघर्ष भूलने के विरुद्ध स्मृति के संघर्ष के समान है।‘
यह पुस्तक दरअसल इसी स्मृति के संघर्ष में एक गहन, सघन और विचारोत्तेजक हस्तक्षेप है।प्रो. शुक्ल न केवल संत रविदास की कविताई की सामाजिक और सांस्कृतिक जमीन की पुनर्रचना करते हैं, बल्कि उस ऐतिहासिक उपेक्षा की भी आलोचनात्मक पड़ताल करते हैं, जिसमें रविदास जैसे महान कवि को उनकी अपनी जन्मभूमि बनारस में ही हाशिए पर धकेलदिया गया।यह उपेक्षा कोई साधारण विस्मृति नहीं, बल्कि एक सुनियोजित साहित्यिक और सामाजिक बहिष्कार है, जिसकी परतें यह पुस्तक विधिपूर्वक खोलती है।
1965 तक बनारस में रविदास की सार्वजनिक और शैक्षिक उपस्थिति लगभग शून्य थी। यह स्थिति केवल ऐतिहासिक विस्मृति नहीं दर्शाती, बल्कि यह उस सामाजिक असहजता की पहचान है, जिसके चलते उन्हें एक दलित कवि के रूप में नजरअंदाज किया गया। मोतीचंद्र और कुबेरनाथ शुक्ल जैसे शहर के प्रमुख इतिहासकारों ने काशी के सांस्कृतिक दस्तावेज़ों में रविदास को स्थान नहीं दिया। यह चुप्पी दरअसल एक तरह की अस्वीकृति थी।
प्रो. शुक्ल ने इस अस्वीकृति को विश्लेषण का विषय बनाया है। उन्होंने यह दिखाया है कि रविदास की अनुपस्थिति किन सामाजिक, जातिगत और बौद्धिक पूर्वग्रहों से संचालित रही है। यह पुस्तक केवल रविदास की उपेक्षा को प्रत्यक्ष नहीं करती, बल्कि उस सांस्कृतिक ढांचे की शिनाख्त करती है जिसमें स्मृति का निर्माण और विस्मृति का नियोजन होता है।
कविता, कर्म और करुणा का समागम
लेखकश्रीप्रकाशशुक्ल बार-बार यह स्पष्ट करते हैं कि रविदास को केवल संत, समाज सुधारक या दलित प्रतीक के रूप में पढ़ना अधूरा है। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया है कि रविदास मूलतः कवि हैं। कवि होने का अर्थ यहां केवल शैलीगत सौंदर्य नहीं, बल्कि विचार और दृष्टिकोण है। रविदास ने सामाजिक विषमता, जातिगत अपमान, श्रम की उपेक्षा और भूख जैसे प्रश्नों को कविता के माध्यम से उठाया।
उनकी कविताएँ किसी भजन मंडली की स्वर नहीं हैं, बल्कि स्पष्ट सामाजिक वक्तव्य हैं। वह जाति को ईश्वर के नाम पर जायज़ ठहराने से इनकार करते हैं और कर्म को मानवीय गरिमा का आधार मानते हैं।
निर्गुण में समता, सगुण में सत्ता
पुस्तक में भक्ति की दो धाराओं—सगुण और निर्गुण—के बीच मूलभूत अंतर को गंभीरता से विश्लेषित किया गया है। लेखक के अनुसार सगुण भक्ति परंपरा सत्ता और नियंत्रण की भाषा बोलती है। उसमें ईश्वर राजा होता है और भक्त उसका दास। इसके बरक्स रविदास की निर्गुण भक्ति ईश्वर को 'प्रभु' के बजाय 'साथी' के रूप में देखती है। इस दृष्टिकोण में सत्ता नहीं, संवाद है। यही दृष्टि समता और समानता की नींव बनाती है।
यह भक्ति परंपरा का एक राजनीतिक पुनर्पाठ है—जहाँ आस्था व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक क्रांति की ज़मीन बन जाती है।
बेगमपुरा: एक स्वप्न, एक घोषणा
रविदास के 'बेगमपुरा' की अवधारणा को लेखक ने किसी कवि की कल्पना नहीं, बल्कि एक समाजिक घोषणा के रूप में पढ़ा है। यह शहर जाति, पीड़ा और शोषण से मुक्त है। यहाँ नागरिकता की बात है, अधिकार की बात है, श्रम की प्रतिष्ठा है। रविदास के लिए 'बेगमपुरा' एक ऐसे समाज की आकांक्षा है, जहाँ मनुष्य को उसके श्रम के आधार पर पहचाना जाए, न कि जाति या जन्म से।
लेखकअपनेशोधसेयहस्थापितकरतेहैंकि, रविदास अपने समय के 'कवि नागरिक' हैं। वे पराधीनता के हर रूप से लड़ते हैं—चाहे वह ब्राह्मणवाद हो, चाहे पोथी संस्कृति। वे 'मानुष संस्कृति' की पुनर्स्थापना करते हैं—जहाँ मनुष्य का कर्म, उसका श्रम, उसकी पीड़ा ही सबसे बड़ा ग्रंथ है।
अनुपस्थिति की राजनीति
किताब में सबसे निर्णायक पक्ष बनारस की साहित्यिक स्मृति पर सवाल उठाना है। लेखक बताते हैं कि 1965 तक बनारस के किसी साहित्यिक या ऐतिहासिक ग्रंथ में रविदास का उल्लेख तक नहीं था। मोतीचंद्र, कुबेरनाथ शुक्ल जैसे इतिहासकारों ने भी उन्हें पूरी तरह नजरअंदाज़ किया। रविदास की उपेक्षा को लेखक जातिगत और सांस्कृतिक पूर्वग्रह के रूप में देखता है।
रविदास को साहित्य में पुनर्स्थापित करने की शुरुआत पंजाबी दलितों ने की, जब उन्होंने आदि ग्रंथ में उनके पदों के आधार पर बनारस में उनका घर खोजा। 1980 के दशक में कांशीराम ने उन्हें दलित राजनीति के प्रतीक के रूप में देखा। लेकिन उत्तर भारत में दलित समुदायों के बीच भी रविदास को लेकर मतभेद थे—उनके जन्मस्थान और समय को लेकर कई दावे सामने आए।
शोध और पुनर्रचना
श्रीप्रकाश शुक्ल ने रविदास के जन्मस्थान के रूप में सीर गोवर्धन को मान्यता दी है और जन्म वर्ष 1435 को ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ स्थापित किया है। यह केवल तिथियों का निर्धारण नहीं, बल्कि आलोचना में प्रमाण और दृष्टिकोण की ज़रूरत को रेखांकित करता है। लेखक का यह दावा भी उल्लेखनीय है कि अब तक रविदास पर प्रकाशित अधिकांश पुस्तकें सौ-सवा सौ पृष्ठों में सिमटी रही हैं, जबकि यह किताब चार सौ पृष्ठों के पार जाती है।
यह रविदास पर केंद्रित अब तक की सबसे गंभीर और विस्तृत आलोचना है—जिसमें उनके सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक और दार्शनिक पहलुओं को समग्रता में देखने का प्रयास किया गया है।
साहित्य और आलोचना के संबंध की पुनः स्थापना
हिंदी आलोचना में यह प्रचलन रहा है कि संत कवियों को केवल उनकी विचारधारा या सामाजिक स्थिति के आधार पर पढ़ा जाए। लेकिन इस पुस्तक में आलोचना को कविता के भीतर से विकसित किया गया है। रविदास के पदों की भाषिक बारीकियाँ, प्रतीक-चयन, लयात्मकता, और सामाजिक सन्दर्भ को समन्वित रूप से पढ़ा गया है।
श्रीप्रकाश शुक्ल ने इस प्रक्रिया में आलोचना को दोबारा साहित्य से जोड़ा है—जहाँ अध्ययन के साथ अनुभूति और तर्क के साथ पाठ-संवेदना है।
अंतिम बात
‘भक्ति का लोकवृत्त और रविदास की कविताई’एक ज़रूरी किताब है—इसलिए नहीं कि यह रविदास पर है, बल्कि इसलिए कि यह हिंदी आलोचना को रविदास के ज़रिए फिर से विवेकशील और सामाजिक रूप से उत्तरदायी बनाती है। यह पुस्तक विस्मृति की राजनीति के विरुद्ध स्मृति की पुनः स्थापना है।
रविदास को एक नए और स्पष्ट आलोचनात्मक दृष्टिकोण से पढ़ने की यह गंभीर कोशिश हिंदी साहित्य में आलोचना की ज़रूरत और उसकी भूमिका को फिर से परिभाषित करती है।
रविदास को लंबे समय तक हिंदी साहित्य में कम महत्व मिला। वे 'कबीर के साये' में छिपा दिए गए।लेकिन इस पुस्तक के माध्यम से उनकी कविता की वह 'आँच' फिर से महसूस की जा सकती है—जो सदी के सन्नाटे में भी प्रतिध्वनित होती है।
यह पुस्तक पढ़ने के बाद रविदास केवल इतिहास नहीं रहते, वे आज के सबसे जरूरी कवि लगने लगते हैं।कविता और समता की भाषा में, यह पुस्तक एक अनिवार्य हस्तक्षेप है।
(आशुतोष कुमार ठाकुर पेशे से मैनेजमेंट प्रोफेशनल हैं और साहित्य तथा संस्कृति पर लेखन करते हैं।)