पुस्तक समीक्षा: केंद्र में स्त्री, परिधि पर कई सवाल
अपने पहले कहानी संग्रह जापानी सराय के साथ हिंदी के समकालीन संसार में अपनी पहचान बनाने वाली लेखिका अनुकृति उपाध्याय की पहली उपन्यासिका नीना आटी एक बार फिर पाठकों का ध्यान खींच रही है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, उपन्यास के केंद्र में नीना आटी हैं, लेकिन इस केंद्र की कई परिधियां हैं जो केंद्र को अपने-अपने ढंग से व्याख्यायित भी करती चलती हैं। हम पाते हैं कि उपन्यास के भीतर पीढ़ियों का टकराव भी है- कुछ असावधानी में परंपरा और आधुनिकता का टकराव लग सकता है, लेकिन दरअसल यह स्वतंत्रता और अनुकूलन के बीच का टकराव है। हर तरह के अनुकूलन से इनकार करती नीना आटी।
पारंपरिक शब्दावली में एक विद्रोही चरित्र है- एक शिष्ट कुलीन परिवार की कई बहनों के बीच एक ऐसी बहन जो किसी की परवाह नहीं करती- वह अपनी इच्छा से किसी लड़के के साथ भाग जाती है, लौट आती है तो उससे विवाह को तैयार नहीं होती, पढ़ने के लिए दबंग पिता के आदेश को अंगूठा दिखाकर विदेश चली जाती है, किसी और लड़के से उसकी सगाई होती है, लेकिन फिर कुछ ऐसा होता है कि लड़के को लगता है कि यह उससे शादी को तैयार नहीं है और वह खुदकुशी तक कर लेता है।
किसी कहानी को इतने स्थूल ढंग से कहा जाए तो वह फिल्मी, नाटकीय या झूठी कहानी लगने लगती है। लेकिन दरअसल किसी कथाकार का असली कौशल इसी मोड़ पर सामने आता है- वह अपनी कथा-स्थितियों से, अपने किरदारों से पाठकों को किस हद तक जोड़ पाता है। कहना न होगा कि अनुकृति उपाध्याय ने जिस सहजता से नीना आटी को खड़ा किया है, उसमें कहीं-कहीं यह नाटकीयता दिखते हए वह हाड़-मांस की जीती-जागती प्राणी ही लगती है।
दरअसल उपन्यास पढ़ते हुए यह खयाल आता है कि लेखन में परिप्रेक्ष्य भी महत्वपूर्ण होता है- यानी वह कोण, जिससे लेखक कोई कहानी कहता है। अनुकृति उपाध्याय 'नीना' नाम के चरित्र की कहानी के लिए जो परिप्रेक्ष्य चुनती हैं, उससे भी कहानी महत्वपूर्ण हो उठती है। यह उनकी भांजियों- मूलतः सुदीपा- का परिप्रेक्ष्य है जो बताती है कि कई मौसियों वाले उस परिवार में नीना इतनी अलग और अकेली रही कि मौसी से ज्यादा अपनी भांजियों को आंटी लगती रही। सुदीपा याद करती है कि उसकी मां सहित सारी बहनें नीना की तीखी आलोचक हैं- उसके खुलेपन की, उसकी मनमानी की, किसी की परवाह न करते हुए अपने फैसले करने की और किसी को सफाई न देने के उसके अभ्यास की- और यह भी याद करती है कि लेकिन नीना आटी परिवार की बच्चियों के लिए सबसे आश्वस्तिकारी छांह साबित हुईं- जब एक ने तलाक लेने का फैसला किया, दूसरी ने प्रेम विवाह का और तीसरी तो बिल्कुल समलैंगिक विवाह की ओर जाती दिख रही है।
लेकिन इस सपाट वर्णन से उस सूक्ष्मता का अंदाजा नहीं मिलता जो इस उपन्यासिका में कई स्तरों पर मौजूद है। ध्यान से देखने पर समझ में आता है कि यह मध्यवर्गीय घरों के भीतर की मूल्य चेतना की कहानी भी है जो बदल रही है। यह अनायास नहीं है कि जो पिछली पीढ़ी है वह नीना के विरुद्ध है और जो नई पीढ़ी है, वह नीना को बेहतर ढंग से समझती है, उसके साथ खड़ी होती है। बेशक, इस मोड़ तक आते-आते नीना ने जीवन में बहुत कुछ हासिल किया है- ढेर सारे दुख, ढेर सारी बदनामी और कुछ नाम भी- अंततः वह अपनी शर्तों पर अपना जीवन जी पा रही है।
इस कथा के बहुत सारे मार्मिक पक्ष हैं जो बहुत सारे चरित्रों और उनकी कथाओं से निकलते हैं- परिवार के दबंग और नामी वकील की वह पत्नी जो हमेशा बेटी के साथ रही, लेकिन कभी उसके हक में खड़ी नहीं हो पाई; वे बेटियां जो अपनी तरह का जीवन जीने की कामना को कहीं दबाए किन्हीं खाते-पीते घरों में बांध दी गईं और वहां खुश हैं; नई पीढ़ी की वे लड़कियां जो इतनी आसानी से आत्मसमर्पण करने को तैयार नहीं हैं; और एक बहन का अनकहा प्रेम जो खुलता है तो बिल्कुल हैरान कर जाता है; और वे कविताएं जो जला दी गईं और जिनके साथ कुछ संभव कहानियां भी जल गईं।
अनुकृति उपाध्याय के पास बहुत समर्थ भाषा और सूक्ष्म दृष्टि है। वह चरित्रों का बहुत विश्वसनीय अंकन करती हैं। वे पारिवारिक स्थितियों को बिल्कुल जीवंत कर डालती हैं। परिवार की लड़कियों के बीच चल रही गपशप, बातचीत के छूटे हुए सिरों के बीच घट रही घटनाएं, जीवन के छोटे-छोटे स्पंदन- इन सबको उन्होंने चाक्षुष बना डाला है। किसी कथाकार की शक्ति यही नहीं होती है कि वह कैसी कहानी सुना रहा है, यह भी होती है कि वह कैसे कहानी सुना रहा है- बल्कि एक कहानी में कितनी सारी कहानियां गूंथ दे रहा है, उसमें दुनिया और जमाने की कितनी धूल-मिट्टी ले आ रहा है।
कहने की जरूरत नहीं कि हमारे समकालीन समय की जो स्त्री-कथा है, यह उपन्यास उससे मुक्त नहीं है। बल्कि यह कृति और अनुकृति दोनों इसी समय की संतानें हैं जो अपने समय और उसके सवालों से आंख मिलाने से नहीं डरतीं।