आग के खेल में शरीक एक कवि का परिचय
इस काव्य संग्रह को पढ़ते हुए जो बात सबसे पहले जेहन में आती है वह है, कविता को कैसे निर्दोष और निराक्रांत भावाभिव्यक्ति का माध्यम बनाया जा सकता है। संग्रह की प्रायः सभी कविताओं में साफगोई का साहस अभिधा के साथ उपस्थित है। कविता इस कवि के लिए जीव-द्रव्य की तरह हैं। कविता को वह अपने जीवन के लिए दिशा-सूचक यंत्र की तरह पाता है। गलत होने पर, राह भटकने पर जो उसे सही और उचित दिशा की ओर मोड़ देती है। कवि का कविता में भरोसा इस कदर दृढ़ है कि वह यह मानता है कि “कविता कला से आगे इसलिए खड़ी है कि वह मनोरंजन करने या चमत्कृत करने की जगह हमें बेहतर इंसान बनाना सिखाती है, और शायद इसी अर्थ में वह बेहतर दुनिया के पक्ष में भी खड़ी दिखाई देती है।”
इस संग्रह की प्रायः सभी कविताएं अपने समय और समाज की बेलौस भावात्मक प्रतिक्रियाएं हैं। काव्य-शास्त्र के गुण-दोषों से परे ये कविताएं सच्चे मनुष्य के अंतर की वह आवाज हैं, जिन्हें आज चतुर-सुजान - जिनमें कवि भी शामिल है, तरह-तरह से खुद को ही सेंसर कर देते हैं। लेकिन इस कवि के यहां किसी भी तरह का कोई सेंसर नहीं मिलेगा। वह निडर होकर कहता है, “मुझे आग बोनी है और अंगारे उगाने हैं, मेरा परिचय उन सबका परिचय है, जो एक-दूसरे को जाने बिना, आग के इस खेल में शरीक हैं।” आग के खेल में शरीक यह कवि अपनी निर्भय सच्चाई और जिंदादिली के भरोसे अपने जैसे दूसरे जिंदा लोगों को, सहचरों को ढूंढ़ता है। कोई तो जिंदा होगा शीर्षक कविता इस खोज की कामना और पीड़ा की महत्वपूर्ण कविता है: “कोई बताएगा वो कहां है, जिसने बचाया था मासूम लड़की को, जिस्मफरोशों के चंगुल से, वो कहां है जिसने पड़ोसी के घर में घुसे, आतंकवादी की बंदूक मरोड़ दी थी, और वो कहां है जो अपाहिज हो गया था, बदमाशों से जूझते हुए, जिसने बलात्कारी को बाइज्जत बरी होते ही, कोर्ट के बाहर, ढेर कर दिया था।” यह और इस तरह की कुछ अन्य कविताएं, सपाटबयानी में निपट खबर की तरह आती हैं, पर अचानक उनके बीच कोई एक ऐसी चमकती हुई पंक्ति मिल जाती है जो कविता की खबरिया प्रकृति को बदलकर, पूरी कविता को मार्मिक बना देती है। इस संग्रह में राजनैतिक रूप से स्पष्ट कुछ ऐसी कविताएं हैं जो अपने बयान और शिल्प में रघुवीर सहाय और धूमिल की याद दिला जाती हैं। इतिहास के अनुत्तरित प्रश्न कविता अपने समय की राजनीति की उस क्रूरतम सच्चाई का बयान करती है जिसमें सांप्रदायिकता चमकते हुए नृशंस हथियार की तरह है और धर्म इस हथियार को वहन करने वाला रथ है, जिसे आस्था के असंख्य हाथ परिचालित करते हैं।
महात्मा गांधी की डेढ़सौवीं जयंती मनाने वालों से यह कविता सवाल करती है, “कि खादी का तलवार से भी रिश्ता हो सकता है, कि अहिंसा को खून से खास परहेज नहीं, कि राजनीति का मतलब है केवल छल।” अपने शिल्प और संवेदना में यह इस संग्रह की सबसे महत्वपूर्ण कविता है।
गांधी के अलावा इस कविता में अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस, गोधरा का नरसंहार भी अपनी गूंजों-अनुगूंजों के साथ ध्वनित-प्रतिध्वनित होते हैं: “कई सदियां सिर पर उठाए एक इमारत कांप रही थी, आस-पास के छायादार पेड़ अपनी जड़ों से, खुद को बांधे हुए मजबूर और बेजान हो गए थे, यकायक भीड़ के पैरों तले रौंदे जाने के भय से एक पल में शताब्दियों की स्मृति धूल के गुबार में बदल गई, हिंदुस्तान के सीने, गले और पांव से, जिंदा शहरों से खून टपकने लगा।”
एक रचनाकार अपने ‘समय’ के जटिल और भयावह यथार्थ को रचने की प्रक्रिया में स्वप्न और यथार्थ के बीच आवाजाही करता है। यथार्थ और स्वप्न के माध्यम से वह अपने समय में भी रहता है और उस समय को अतिक्रमित भी करता है। एक रचनाकार की कालजयिता इसी में है कि वह अपने ‘समय’ के साथ-साथ उन हर ‘समयों’ में बना रहे जिसे ‘काव्य-समय’ कहा जाता है।
सलीब पर सच
सुभाष राय
प्रकाशक | बोधि
मूल्य: 120 रुपये | पृष्ठ: 150