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01 November 2019

बेगम के बोल

बेगम अख्तर की जिंदगी और संगीत पर अख्तरीः सोज और साज का अफसाना खूबसूरत पेशकश है, जिसमें अनेक रंग-बिरंगे ‘स्नैप शॉट्स’ हैं। पुराने जमाने की मशहूर गायिका मुख्तरी बाई की बेटी बेगम अख्तर (1914-1974) शुरू में अख्तरी बाई फैजाबादी कहलाती थीं। मूलतः वे फैजाबाद की थीं। काकोरी के नवाब खानदान के इश्तियाक अहमद अब्बासी से निकाह के बाद ‘बेगम अख्तर’ कहलाईं। पुस्तक के संपादक यतींद्र मिश्र के शब्दों में, “वे ‘अवध की सरजमी’ पर ऐसी नायाब हस्ती थीं, जिनके संगीत ने बिलकुल अलग ही लीक कायम की।”

बेगम अख्तर के संगीत, उनके किरदार और उनके जीवन-संगीत के इर्द-गिर्द फैली अनेक कहानियों को चार खंडों में विभाजित किया गया है। बेगम अख्तर का सीधा-सा मतलब है, अपने फन में पूरे सम्मान के साथ गजल, ठुमरी और दादरा की दर्दभरी उठान। कहते हैं, शौहर अब्बासी साहब ने बेगम को गाने से कभी नहीं रोका, इतनी पाबंदी जरूर लगाई कि शादी-ब्याह के मौकों पर गाई जाने वाली मुबारकबादी और राजा-महाराजाओं के दरबारों में होने वाली महफिलों में वे नहीं जाएंगी। दिल्ली, कलकत्ता और लखनऊ की महत्वपूर्ण महफिलों में, आकाशवाणी, दूरदर्शन के अधिकांश कार्यक्रमों में तथा देश-विदेश में होने वाली संगीत-सभाओं में उनकी आवाज खनकती रही।

रूह को छू लेने वाली आवाज की मलिका बेगम अख्तर का फिल्मी सफर भी शालीनता भरा रहा। बेगम अख्तर का फिल्मी सफर में इकबाल रिजवी लिखते हैं, “अपने दोस्त संगीतकार मदन मोहन के बहुत दबाव डालने पर बेगम अख्तर ने दाना-पानी (1953) और एहसान (1954) में केवल एक गीत गाया, लेकिन परदे पर नजर नहीं आईं। इसके बाद बेगम अख्तर ने फिल्मों से पूरी तरह किनारा कर लिया। बेगम फिल्मों को छोड़ ही चुकी थीं, यह जानने के बावजूद सत्यजित राय ने उन्हें अपनी फिल्म जलसाघर (1958) में काम करने के लिए राजी कर लिया। इसमें बेगम अख्तर को ठुमरी गाते हुए फिल्माया गया। बोल थे, ‘भर-भर आईं मोरी अंखियां पिया बिन।’ जलसाघर बेगम की आखिरी रिलीज फिल्म थी। कोयलिया मत कर पुकार में शिवानी ने बेगम अख्तर के व्यक्तित्व का अनूठा पक्ष बेगम के शौहर अब्बासी साहब से कहलवाया है। शिवानी के शब्दों में, “पारिश्रमिक चेक देखते ही-देखते इधर-उधर बंट जाता है। लोग उस उदार महिला की दुर्बलता को पहचान गए हैं। किसी की बिटिया का ब्याह है, तो किसी के बेटे का मर्ज। अब्बासी साहब कहने लगे, ‘घर लौटने के लिए भी कभी तार कर घर से रुपया मंगवा ‌लेती है।’ यह बहुत कम लोग जानते होंगे कि अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त बेगम अख्तर स्वयं उन्हीं के शब्दों में ‘मैं स्टेज तक ही आर्टिस्ट हूं, घर में हूं सिर्फ बीवी।” संकलन में कुछ लेख अंग्रेजी से अनूदित हैं। इनमें भाषा की लयात्मकता बरकरार है।

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बेगम अख्तर की शिष्याओं से लेखक-संपादक यतींद्र मिश्र की बातचीत भी दिलचस्प है। शिष्या शांति हीरानंद ने कहा, “अम्मी (बेगम अख्तर) ने कभी भी फर्क नहीं किया हिंदू-मुसलमान में। अपना धर्म निभाते हुए भी हमें यह एहसास नहीं होने दिया कि हम उनके मजहब से नहीं आते। ईद में जिस तरह का प्यार लुटाना उन्होंने किया, वो आज दुर्लभ है।”

"गुरु की हैसियत से बेगम अख्तर और सिद्धेश्वरी देवी में क्या अंतर था?" शिष्या रीता गांगुली ने कहा, "वही अंतर जो हिरन और हाथी में होता है। अम्मी हिरन थीं, तेज कुलांचे भरने वाली, चपल गति से तानों के जंगल से निकलकर, अपनी खूबसूरती बयां करने वाली। वहीं, सिद्धेश्वरी देवी मदमस्त हाथी की मानिंद थीं, जो अपनी अलमस्त चाल में चलता हुआ अपने विराट व्यक्तित्व से पूरे परिदृश्य को

सम्मोहित कर देता है।” 26 प्रसंगों में समाहित बेगम अख्तर की यादें-संस्मरण उनके संपूर्ण व्य‌क्तित्व को उजागर करते हैं। इसलिए किताब पठनीय और संग्रहणीय है।

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TAGS: Book review, soj aur saj ka afsana
OUTLOOK 01 November, 2019
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