पुस्तक समीक्षा: जिन कथाओं में जंगल बसते हैं
पुस्तक: वाइल्ड फिक्शन्स
लेखक: अमिताव घोष
प्रकाशक: हार्पर कॉलिन्स
मूल्य: रु.799/-
कुछ लेखक समय से नहीं, समय के पार चलते हैं। वे यात्राओं में नहीं, यायावरी में विश्वास रखते हैं। उनके पास होती है स्मृतियों की गठरी और कल्पना की एक नाव, जिनसे वे उन भूगोलों को पार करते हैं जहाँ इतिहास की अनकही गूँज अब भी धड़कती है। अमिताव घोष ऐसे ही लेखक हैं, जो संवेदना, स्मृति और समाज के त्रिकोण में संवाद रचते हैं। ‘वाइल्ड फिक्शन्स’ निबंध-संग्रह लेखक अमिताव घोष की आत्मिक यात्रा है, जो अपने समय से प्रश्न करता है, अपने समाज से संवाद करता है, और अंततः पाठक को भीतर की यात्रा के लिए आमंत्रित करता है।
यह उस लेखक की कथा है, जो जंगल को सिर्फ दृश्य नहीं, अनुभव मानता है, जहाँ हर पेड़ गवाह है और हर नदी एक कथा। यह उस समय का दस्तावेज़ है, जब मनुष्यता से जुड़ी कथाएँ सभ्यताओं की मुख्यधारा से खारिज की जा रही थीं, और जंगलों को चुप्पी की चादर ओढ़ा दी गई थी।
अमिताव घोष की लेखनी हमें याद दिलाती है कि कथा केवल कहने के लिए नहीं होती, वह सुनने, समझने, और भीतर तक बदल देने के लिए भी होती है।
यायावर मन का विरामहीन भूगोल
इन निबंधों में कहीं मिस्र के गाँव हैं, कहीं युद्धकालीन बर्मा की आहट, तो कहीं सुंदरबनों की खामोश हरियाली। एक क्षण में आप वेनिस की गलियों में हैं, दूसरे क्षण भारत के किसी अंडरगारमेंट फैक्ट्री की खिड़की से झांकते हुए। यह बहुलता स्थलों, अनुभवों, विचारों और स्मृतियों की बहुलता है, जिसे अमिताव घोष अपनी लेखनी से साधते हैं।
इन निबंधों की सबसे मूल्यवान विशेषता यह है कि ये किसी निष्कर्ष या दावे के साथ नहीं आते, बल्कि एक प्रश्न के साथ सहयात्रा करते हैं। लेखक की आँखें केवल देखती नहीं, सुनती भी हैं, और यही श्रवणबुद्धि, उन्हें अपने समकालीनों से अलग बनाती है। वे शब्दों से चुपचाप एक ऐसी दुनिया रचते हैं, जहाँ पाठक अपने भीतर ऐसे उतरता है,जैसे कोई साधक ध्यान में उतरता हो!
एक जिज्ञासु मन, एक अनवरत यात्रा
दिल्ली के एक साधारण से युवा की असाधारण यात्रा की शुरुआत एक बेचैन जिज्ञासा से हुई थी। इस संग्रह में अमिताव घोष अपनी लेखकीय यात्रा के आरंभिक बिंदुओं पर लौटते हैं। वे बताते हैं कि एक युवक के रूप में, जब वे दिल्ली में रहते थे, तब वे किस तरह हाथ से लिखे गए आवेदन पत्र लेकर विदेशी दूतावासों में घूमते थे, यह जानने के लिए नहीं कि वहाँ नौकरी मिलेगी या नहीं, बल्कि इसलिए कि ये संस्थाएँ कैसी होती हैं? उनके भीतर की दुनिया कैसी होती है?
यह जिज्ञासा, यह खोजी दृष्टि, ही उनकी लेखन की नींव है। ऑक्सफ़ोर्ड की छात्रवृत्ति या बाद की लेखक-प्रशंसा, इन सब से पहले, घोष एक ऐसे युवा थे, जिनकी आँखों में सिर्फ सपने नहीं, सवाल भी थे। यही सवाल आगे चलकर The Glass Palace, The Hungry Tide और The Nutmeg’s Curse जैसी रचनाओं की आधारशिला बनी।
‘वाइल्ड फिक्शन्स’ में अमिताव घोष अपने लेखन यात्रा को ऐसे टटोलते हैं जैसे कोई किसान बुवाई के बाद हर कोने की मिट्टी जांचता है। यह यात्रा किसी मंज़िल की नहीं, बल्कि खोज की निरंतरता है, जहाँ हर पड़ाव एक प्रश्न, और हर उत्तर से जन्म लेती है एक नई कथा।
पाठकता की आत्मीयता: एक संवादमयी रिश्ता
उनके लिए पढ़ना कभी भी केवल ‘ज्ञान अर्जन’ नहीं रहा। उनके लिए यह संवाद की क्रिया है, एक ऐसे रिश्ते की तरह, जहाँ लेखक, पाठक और पात्र, तीनों एक साथ किसी चौपाल में बैठकर बात कर रहे होते हैं। जब वे दीपेश चक्रवर्ती या शांतनु दास जैसे विचारकों को याद करते हैं, तो वह स्मरण मात्र श्रद्धांजलि नहीं रह जाता, वह एक शाश्वत संवाद में रूपांतरित हो जाता है। जैसे किसी पुराने मित्र से बहस हो रही हो, जहाँ मतभेद हो सकते हैं, लेकिन रिश्ते की ऊष्मा कभी कम नहीं होती। यह संवाद केवल बौद्धिक नहीं होता, वह नैतिक भी होता है।
जब वे किसी सैनिक की युद्ध डायरी, किसी विस्थापित की यादें, या किसी दादी द्वारा लिखे गए पुराने पत्र को उद्धृत करते हैं, तो वे उन शब्दों में फिर से प्राण स्थापित करते हैं। वह स्मृति को पुनः पढ़ते हैं, उसकी तहों को खोलते हैं, और पाठक को आमंत्रित करते हैं कि वह भी उस प्रक्रिया में सहभागी हो।
अमिताव घोष की लेखनी इतिहास को पुनः मानवीय बनाती है, वहाँ न तो विजेता होते हैं, न पराजित। वहाँ केवल वे चेहरे होते हैं जो समय के साथ धुँधले हो गए थे, लेकिन जिनकी कहानियाँ अब भी हमारे वर्तमान की आत्मा में धड़कती हैं। उनकी किताबों में आप पाएँगे कि संदर्भ केवल संदर्भ नहीं हैं; वे स्पंदन हैं। वे 'दूसरे' को केवल 'विषय' नहीं, 'सहयात्री' बनाते हैं। यही कारण है कि उनका पाठक बनना एक तरह से उनके विश्वदृष्टि का हिस्सा बन जाना है, एक ऐसी दृष्टि, जो जानती है कि इतिहास केवल दस्तावेज़ों में नहीं, स्मृति, पीड़ा और करुणा में भी बसता है।
प्रकृति, प्रवासीऔरपुनर्स्मरण
इस संग्रह की एकमहत्वपूर्ण बात यह भी है कि यह 'फिक्शन' के बारे में है, लेकिन किसी ‘कल्पित’ दुनिया की बात नहीं करता, यह उस दुनिया की बात करता है जो इतनी असल है कि वह अक्सर हमारी चेतना के बाहर हो जाती है। अमिताव घोष यहाँ जंगल को केवल भौगोलिक नहीं, सांस्कृतिक, भाषिक और नैतिक अवधारणा के रूप में देखते हैं। उनके लिए जंगल वह भी है जहाँ कहानी जन्म लेती है, भाषा में हरियाली आती है और संवेदना सांस लेती है।
वे कहते हैं कि औपनिवेशिक आधुनिकता ने मनुष्य और जंगल के बीच की साझेदारी को विस्मरण में डाल दिया। अब जंगलों को या तो बचाने की बात होती है, या उजाड़ने की, लेकिन उनके साथ जीने की बात बहुत कम होती है। यह दृष्टि घोष के पूरे लेखन में रही है, चाहे 'द हंग्री टाइड' में हो या 'द नटमेग्स कर्स' में, और 'वाइल्ड फिक्शन्स' में यह दृष्टि विचार की एक संगठित परिपक्वता में सामने आती है।
पलर्मो की गलियों में मिले बांग्लादेशी प्रवासी हों या सुंदरबनों की लहरों से टकराते नाविक, अमिताव घोष की दृष्टि सबके लिए समान रूप से करुणामयी है। वे प्रवास को केवल भौगोलिक विस्थापन नहीं, बल्कि स्मृति और पहचान की विघटन के रूप में देखते हैं। वे उन कहानियों को कहते हैं जिन्हें हमने अनदेखा कर दिया है।
उनकी कथा शैली हमें यह सोचने को विवश करती है कि जलवायु संकट हमारे वर्तमान की एक व्यथित विडंबना है। एक ऐसी विडंबना, जिसमें केवल मनुष्य ही नहीं, उसके साथ उसकी भाषाएँ, उसकी संस्कृतियाँ और उसकी स्मृतियाँ भी विस्थापित होती हैं।
लेखन का नैतिकअनुशासन
आज जब लेखन अक्सर मुखरता और आत्मप्रचार के स्वर में खो जाता है, अमिताव घोष उस मौन और अवधान की पुनर्स्थापना करते हैं, जो साहित्य की आत्मा है। वे शोर नहीं करते, वे सुनते हैं। और यही उनकी लेखनी को वह नैतिक ताप देती है, जो पाठक को भीतर से स्पर्श करती है।
यह संग्रह उन पाठकों के लिए एक जरिया है, जो 'शैडो लाइन्स' या 'सी ऑफ पॉपीज़' के पीछे की आत्मा को समझना चाहते हैं। अमिताव घोष की इस किताब को पढ़ना, दरअसल एक पाठ को दुबारा पढ़ना है, उस पाठ को जो हमारे पुरखों ने बिना लिखे हमें सौंपा था। यह किताब बताती है कि कथा अभी मरी नहीं है, वह बस जंगल में चली गई है। और अगर हम चाहें, तो फिर से जा सकते हैं! उसी जंगल की ओर!
(लेखक पेशे से मैनजमेंट प्रोफेशनल हैं,जो साहित्य और कला पर नियमित लिखते हैं।)