चिर युवा कृष्णा सोबती
कृष्णा सोबती सबसे उम्र दराज ज्ञानपीठ विजेता हैं। 92 साल की उम्र में भी वह लेखन को लेकर उतनी ही सजग और सक्रिय हैं। अपनी नई किताब गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान तक में वह आत्मकथ्यात्मक शैली में विभाजन की त्रासदी को इस ढंग से उकेरती हैं कि पढ़ने वाले के रोएं खड़े हो जाएं। पत्रकार प्रियदर्शन की कलम से इस किताब पर लेखा-जोखा।
हमारे समय की संभवत: वरिष्ठतम साहित्यकार कृष्णा सोबती की रचनाएं जैसे इतिहास के थपेड़ों के बीच से निकलती हैं, उनके किरदार चेहरे और पीठ पर समय की खरोंच लिए खड़े और बड़े होते हैं, वे कभी परेशान भी होते हैं, कभी परास्त भी लगते हैं मगर जूझना नहीं छोड़ते। अपनी ऊष्मा और जीवट में उनके किरदार हेमिंग्वे के उस मछुआरे की याद दिलाते हैं जो कहता है, ‘इंसान को बरबाद किया जा सकता है मगर हराया नहीं जा सकता।’
नब्बे पार की उम्र में आई कृष्णा सोबती की नई कृति ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ में भी ये सारी खूबियां हैं। इस अतिरिक्त खूबी के अलावा कि इसमें लेखक खुद किरदार है। इसे आत्मकथा कहते संकोच होता है तो इसलिए कि आत्मकथाओं का कैनवास ज्यादा बड़ा होता है जबकि यह बहुत छोटे समय की कहानी है। मगर यह संस्मरण भी नहीं है क्योंकि संस्मरण में इतनी सारी बातें नहीं सिमटतीं जितनी इस कृति में समेटी गई हैं। कायदे से यह आत्मकथात्मक उपन्यास है।
क्योंकि कृष्णा सोबती और अन्य वास्तविक चरित्रों की उपस्थिति के बावजूद इसकी मूल बुनावट बिलकुल उपन्यासों वाली है, इसका आस्वाद भी बिलकुल औपन्यासिक है।
इस आत्मकथात्मक उपन्यास के केंद्र में बाईस-तेईस बरस की वह लड़की है जो पाकिस्तान वाले गुजरात में पैदा हुई और लाहौर और दिल्ली होती हुई भारत के गुजरात में पहुंच गई। दरअसल यह कृष्णा सोबती हैं, बंटवारे नाम की उस त्रासदी की दर्शक और भोक्ता दोनों, जिसने एक मुल्क के करोड़ों लोगों को हर तरफ से तोड़ दिया, उनकी शिनाक्त बदल दी, उनके पते बदल दिए, उन्हें एक उजाड़ से दूसरे उजाड़ में फेंक दिया। किताब में बीच-बीच में इस त्रासदी का बहुत संक्षिप्त मगर बहुत दारुण वर्णन करती कृष्णा सोबती लिखती हैं, 'हारे हुए वह सब, और उनके बुचके, पोटलियां, बदरंग पुरानी संदूकचियां, गठरियां, मैले-अधमैले दुपट्टे, चेहरे-पिटी हुई नफरत से तपते हुए-कोई ठंडी हुई खूंखार नफरत से निढाल, कोई जवान बेटे के चेहरे के साथ सटा, हाय ओ रब्बा विलाप करता हुआ।’कोई पीछे छूट गए बूढ़े मां-बाप को याद करता, घरों को पागलखाना बना दिया सियासत ने। सारा शहर भरा है अपने-अपने घरों से फेंके गए वजूदों से। और इन सबका नतीजा क्या निकला है? सोबती के शब्दों में, 'अब तो हम तेज किए हुए चाकू हैं। हम आग का पलीता हैं। हम दुश्मनों को चाक कर देने वाली गरम हिंसा हैं। हम दुल्हनों की बांहें काट देने वाले टोके हैं, हम गंडासे हैं। अब हम हम नहीं हैं, हथियार हैं।’
यशपाल के झूठा सच और भीष्म साहनी के तमस जैसे उपन्यासों में विभाजन की जो त्रासदी दिखाई पड़ती है, उसका एक बिलकुल आंखों देखा साक्ष्य कृष्णा सोबती की गवाही में भी मिलता है। इस उजड़ी हुई दुनिया में सोबती अचानक राजघराने की एक शिशु शाला के लिए आवेदन देकर सिरोही चली आती हैं। यहां विभाजन और आजादी की दूसरी राजनीति से उनका साबका पड़ता है। हालात उन्हें सिरोही के राजा तेज सिंह की गवर्नेस बना देते हैं। वह राजघरानों की साजिशों को बहुत करीब से देखती हैं- जैसे वहां की हवाएं भी फुसफुसाती हुई यहां से वहां राज बिखेरती चलती हैं। एक नए बनते लोकतांत्रिक भारत की आहट और बीत रहे सामंती अतीत की कसमसाहट के बीच की बची-खुची भव्यता भी इस कृति में मिलती है और उसकी सड़ांध भी। सरोही से दिल्ली तक आती-जाती भागती राजनीति में, सत्ता के अलग-अलग दावेदारों, दीवानों, वकीलों के बीच क्या लेखिका तेज सिंह को बचा पाएगी? यह उत्सुकता बनी रहती है।
इस संक्षिप्त कथा-समय को अतिरिक्त वर्णनात्मकता से बचाते हुए और बहुत तीक्ष्ण संकेतों के बीच इसे रचते हुए कृष्णा सोबती हमेशा की तरह हमें ऐसी कृति दे जाती हैं जिसमें जितना पढ़ा जा सकता है, उससे कहीं ज्यादा महसूस किया जा सकता है। अचानक हम पाते हैं कि यह सिर्फ विभाजन के वहशी दिनों में अपने उजाड़ से घबराई एक लड़की का एक एकांत तलाशना और फिर लौट जाना नहीं है, यह इतिहास की शक्तियों द्वारा बेदखल की जा रही मनुष्यता के पुनर्वास का जतन है। यही नहीं, किताब के नाम में भी एक प्रतीकात्मकता निहित है जो सरहदों के आर-पार चल रहे राजनीति के क्रूर खेल की तरफ बिना कुछ कहे इशारा कर देती है। बेदखली इस उपन्यास के मूल में है जो बहुत मामूली लोगों को भी झेलनी पड़ती है और महाराज तेज सिंह को भी। हमेशा की तरह बहता हुआ और परिवेश की खुशबू से लैस कृष्णा सोबती का जाना-पहचाना गद्य यहां भी मौजूद है और यही बात 92 बरस की उम्र में भी उन्हें हमारे समय की सबसे युवा लेखिका बनाता है।
गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान
कृष्णा सोबती
राजकमल प्रकाशनः पृष्ठ: 255, मूल्य: 695 रुपये