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03 June 2019

लंबी कविताओं में एक बड़ा क्षितिज

ओम निश्चल

कभी लंबी कविताओं का एक दौर था जो फैशन की हद तक कविता में छा गया था। मुक्‍तिबोध की लंबी कविताओं की सफलता और धूमिल की पटकथा जैसी लंबी कविताओं ने समकालीन कविता में लंबी कविता के प्रति आकर्षण पैदा किया। अज्ञेय, लीलाधर जगूड़ी, सौमित्र मोहन, मलय, नरेंद्र मोहन, विष्‍णु खरे जैसे कवियों ने कई लंबी कविताएं लिखीं और वे कविता के क्षितिज पर छा गईं। रामदरश मिश्र ऐसे कवियों में अग्रणी हैं जिन्‍होंने कई विधाओं में कलम साधी और अपनी रचनाओं से देश देशांतर में लाखों पाठक पैदा किए। यूं तो वे कवि, कथाकार, आलोचक, गद्यकार, गजलगो हर रूप में समादृत हैं पर कविता में उनकी निरंतरता इस बात का प्रमाण है कि न कविता कहीं थकी है न वे। ‘कभी भी खत्‍म होती नहीं कविता...’ के मुहावरेदार पथ पर चलते हुए वे आज भी अपने स्‍याह समय को रचनात्‍मकता की स्‍याही से संवेदित कर रहे हैं।

लगभग दो दर्जन कविता संग्रहों के कवि रामदरश मिश्र की लंबी कविताएं हाल ही में प्रकाशित हुई हैं। इसका संपादन कवि वेदमित्र शुक्‍ल ने किया है। नयनाभिराम सज्‍जा में प्रकाशित 33 लंबी कविताओं के साथ रामदरश मिश्र के दो शब्‍द और तीन लंबी कविताओं के स्‍थापत्‍य पर अंत में सुधी आलोचकों क्रमश: प्रेमशंकर, जगदीश नारायण श्रीवास्‍तव और ललित शुक्‍ल के तीन लेख शामिल किए गए हैं। इस तरह अरसे से लंबी कविता पर मौन साधे हिंदी जगत की चुप्‍पी टूटेगी और फिर लंबी कविताओं की जरूरत पर चर्चाएं होंगी।

हिंदी में लंबी कविताएं केवल फैशन में लिखी गई हों, ऐसा नहीं है। मुक्‍तिबोध ने जिन साम्राज्‍यवादी, पूंजीवादी शक्‍तियों के खतरों के प्रति अपनी पत्रकारिता, निबंधों और कविता में आगाह किया था वे आज भी कम नहीं हुई हैं। बल्‍कि 90 के दशक के बाद के उदारीकरण और बाजारवाद के पसरते प्रभुत्‍व के कारण अधिक तेज गति से ये खतरे बढ़े हैं। कभी एक कवि ने अपनी प्रगतिशीलता का परचम फहराते हुए ‘समय साम्‍यवादी’ की घोषणा की थी। किंतु पूंजी ने सत्‍ता, कॉरपोरेट और मीडिया के गठजोड़ से आज के समय को ‘समय पूंजीवादी’ बना दिया है। ऐसे हालात में कविता लिखना और कविता में सच्चाई का पक्ष लेना कितना जटिल हो गया है, अनुमान करना कठिन नहीं है।

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रामदरश मिश्र ने समय को संश्‍लिष्‍टता से पकड़ने के लिए लंबी कविताओं का आगाज किया और उनकी कई कविताएं चर्चा का केंद्र बनीं। फिर लगभग सात दशकों में वही लोग, साक्षात्‍कार, समय देवता, मेरा आकाश, हम कहां हैं सहित दर्जनों कविता संग्रह प्रकाशित हुए। उल्‍लेखनीय है कि वे बीती शताब्‍दी और वर्तमान शताब्‍दी के समय सहचर हैं और हिंदी में छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, अकविता, नई कविता और समकालीन कविता के कई आंदोलनों को उन्होंने करीब से देखा है। एक वक्‍त विचार कविता का भी रहा है। लंबी कविताओं की चर्चा के दौरान विचार कविता की भूमिका को भी काफी संजीदगी से लिया गया। यों तो अज्ञेय, धर्मवीर भारती, नरेश मेहता और कुंवर नारायण जैसे कई कवियों ने लंबी कविता के लिए मिथकों का सहारा भी लिया लेकिन रामदरश मिश्र ने अपने समय की जटिल यथार्थवादी अनुभूति को ही प्रश्रय दिया।

वे प्रकृति के धुनी चितेरे हैं। वह अब तक वही गंवई सादगी लिए सहजता का पर्याय बने हुए हैं। ‘पर विद्रोही कब सुनता है’ कविता में ‘यह बरखा की सांझ / गगन में ये उदास बादल मटमैले फैले हैं / छायाचित्रों से अंधकार की छांह उगलते...’ जैसे बिंबों को उकेरते हुए वे मेरा आकाश में जैसे अपनी कवि-प्रकृति को ही उजागर करते हैं- ‘एक आकाश है मेरे भीतर / जिसे सैकड़ों खंडों में बांटती / तमाम रेखाएं एक-दूसरे से मिलती हैं।’ ‘समय देवता’ उनकी महत्‍वपूर्ण लंबी कविता है, जिसमें समय के न्‍यायिक विवेक पर कवि ने खूब तंज किया है। सारे दंगों, सारी उथल-पुथल और नृशंसताओं का गवाह समय ही तो होता है। वही अपनी आंख पर पट्टी बांध ले तो भला जनता क्‍या करे। उनकी कविताएं राजनीतिक मंतव्‍यों से भी भरी हैं। ‘फिर वही लोग’ ऐसी ही राजनीतिक कविता है जो गुजरते जुलूसों, झंडों और नेताओं के काले कारनामों पर रोशनी डालती है। उनकी कविता ‘साक्षात्‍कार’ पर लिखते हुए आलोचक डॉ.ललित शुक्‍ल लिखते हैं, ‘साक्षात्‍कार’ अपने समय की प्रामाणिक समीक्षा है। ऐसी समीक्षा जिसमें कविता के तत्‍व बहुत मुखर हैं। यह मुखरता रचना को हमेशा प्राणवान बनाए रहेगी। छियानबे की वय में भी रामदरश जी की मुखरता कायम है और वे अभी भी प्रगतिशील चिंतन की चेतना से अनुप्राणित हैं।

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TAGS: Outlook Hindi, Book Review, 'Ramdarsh Mishra ki Lambi Kavitayein' Om Nischal
OUTLOOK 03 June, 2019
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