चतुर्भुज स्थान की दास्तां कोठागोई
जिंदगी इस पार जितनी जिंदगी उस पार है
इस पार उस पार का फर्क उस दिन समझ में आ गया था।
पड़ोस में आए एक फूफा के साथ मुझे ज्यादा घुलते-मिलते देख दादी ने समझाया था, ‘उनकी संगत ज्यादा नहीं। उस पार जाते हैं।’
हम जिस दुनिया में रहते हैं उसके पार की दुनिया। हमारे दीवारों, हमारे पर्दों के पार की दुनिया।
हमारी यादों की दुनिया के उस पार की दुनिया। हमारे भूलने की दुनिया। जहां तक पहुंचते-पहुंचते हमारी सभ्यता की दुनिया खत्म हो जाती है।
जब वहां के उस्तादों, गायकों-गायिकाओं, साजिंदों-बाशिंदों की संगत में आया, उनके किस्सों की संगत में आया तो यह जाना कि वह स्मृति की नहीं विस्मृति की दुनिया है। आगे जीने के लिए पीछे को भूल जाने वाले ही वहां जीते हैं।
कितना याद रखा जाए? क्या क्या याद रखा जाए?
चलती है गाड़ी उड़ती है धूल
बुरी नजर वाले तेरा डैम फूल!
आखिर में तो सब की गत धूल में ही होती है न। नारायण टन-टन भाजा वाले की बात याद आती है।
उस पार की दुनिया की जो पहली तस्वीर उस दिन दादी ने बताई थी वह आने वाले सालों में बनती रही बिगड़ती रही। अपने अमूर्तन में, कभी कोई रंग कहीं बढ़ जाता, कभी कोई रेखा कहीं। मन के कैनवस पर शक्लें उभरती-मिटती रहीं। कभी कोई फिल्म देखता, कभी कोई कहानी सुनता और कोई तस्वीर मन के कैनवस पर उभर जाती।
‘परसों बरात में खूब हंगामा हुआ बमहनगामा में। नवाब सिंह के बेटी का बियाह था। बाई जी का नाच रखा था। तीन बाई जी गई थी यहीं चतुर्भुज स्थान से। खूब गोली चला। टेंट तो छल्ली-छल्ली हो गया। बाद में सब बाई जी सब को भी नहीं छोड़े। सारे नामी ठेकेदार जुटे थे। ए गो को पप्पा भी उठा लिए...’ नरेन्द्र की बात याद आ जाती है. सातवां नवीन में मेरे साथ ही पढता था।
शहर मुजफ्फरपुर में तब ठेकेदारों-इंजीनियरों के ऊंचे-ऊंचे मकान खड़े हो रहे थे, चारों तरफ सड़कें बन रही थी, पुल बन रहे थे। ठेकेदार बढ़ते जा रहे थे। इंजीनियर मालामाल होते जा रहे थे। उनके यहां महफिलों में गायिकाओं की जगह नाचनेवालियां लेती जा रही थीं। उनके घरों में शादी-ब्याह, जनेऊ से लेकर हैप्पी बर्थडे तक में वहां के नाचने वालियों के प्रोग्राम करवाना नए-नए शहराती हुए ठेकदारों के लिए, पुराने जमींदारों के नए बाबुओं के लिए लाजिमी होता था।
हम उसी दौर में बड़े हो रहे थे...
उन्हीं दिनों फिल्म देखी थी ‘अर्पण’। गाना था, ‘तौबा कैसे हैं नादान घुंघरू पायल के...’ उससे पहले फिल्म ‘उमराव जान’ देख चुका था। उसके गाने सुन चुका था। बाद में आई एक और फिल्म और एक फिल्म के गाने की याद और आ रही है। फिल्म थी तवायफ जिसमें शहरी बाबू एक तवायफ को अपने घर ले आते हैं, तो दूसरा गाना है फिल्म ‘युद्ध’ का जिसमें हेमा मालिनी का मुजरा और गाना आज भी याद आ जाता है, ‘मेरे मुजरे की रात आखिरी।’
सारी छवियां घुलती-मिलती जा रही थी। साथ-साथ चलती जा रही थी। कभी-कभी सोचता था जो फिल्मों में देखता हूं वह सब अपने शहर में भी है, घर के इतने पास...।
सभ्यता का तकाजा यही था कि कभी उस पार न जाया जाए। जबकि रोज-रोज सुनता था स्कूल में ऐसे लड़कों के बिगड़ जाने के बारे में, जो भी उस पार जाता था बिगड़ जाता था। मेरे मोहल्ले में ही रहता था नरेन्द्र, एकदम खतम, समझे बिगड़ गया था। लीची बगान के उस पर जाकर रेलवे लाइन पर बैठकर सिगरेट पीता था। कहता था बड़ा से बड़ा मर्द भी दो विल्स एक साथ नहीं पी सकता है। बहुत नशा होता है।
‘टन-टन भाजा खाने चलोगे?’ उसने एक दिन पांडे सर की मैथ की क्लास से ठीक पहले पूछा।
मैं सोचता रहा। एक तो मैंने टन-टन भाजा का नाम सुना तो था लेकिन कभी देखा नहीं था।.
‘कभी नहीं खाए होंगे। बेजोड़ बनाता है नरायणा। यहीं पास में शुक्ला चौक पर।’
मैं जैसे मंत्रमुग्ध सा उसके पीछे-पीछे चल पड़ा। एक तो पांडे सर की क्लास से दूर रहने का बहाना मैं भी सोच रहा था।
गणित न तब सुलझता था न अब।
मैं चला जा रहा था। रामबाग से गुजरते हुए लगा कि कहीं...
जब तक कुछ सोचता, कुछ कह पाता कि मैं शुक्ल चौक पहुंच गया था। वही चौराहा जहां से सभ्यता की कई राहें खुलती थीं। वहीं एक कोने में स्टूल पर अपना खोखा डाले नरायन बैठता था, टन-टन भाजा/
आजा खाजा/
चार आना में/
मन भर खाजा/
रिक्शा वाले साहब/
साइकिल वाले बाबू/
आ जा आ जा...
टन-टन भाजा...
नरेन्द्र ने रास्ते में ही सुना दिया था।
उस दिन के बाद नरायन का रास्ता हमने बार-बार तय किया। टन-टन भाजा की खोज उसी ने की थी। बंगाल-बिहार से लेकर दिल्ली तक जिसे झाल-मुढ़ी कहा जाता है उसी को उसने टन-टन भाजा नाम दिया और देखते देखते छा गया। टन-टन भाजा दरअसल उस संगीत का नाम था जो स्टील के मग में मूढ़ी रखकर उसको चम्मच से बजाने पर निकलती थी। असल में ध्यान दें तो उसने टन-टन बाजा में बाजा की जगह भाजा कर दिया था और बस !
मैं सीधा बढ़ता गया था और सोचता हूं तो आज भी वह तस्वीर आंखों के सामने खिंच जाती है। सुबह करीब 11 बजे का समय। सड़क पर कम दिखाई देते लोग। जो आते-जाते दिखाई दे भी रहे थे ऐसा लग रहा था जैसे वे सिर झुकाए वहां से तेजी से वैसे ही निकला जाना चाहते थे जैसे गांव में रात के अंधेरे में कहीं से कभी भी बेधड़क आता-जाता था लेकिन अपने घर के पिछवाड़े के शमी के पेड़ के सामने से निकल जाता था। सब कहते थे उस पेड़ पर भूतों का वास था। रात में जब शमी के उस पेड़ की जटाएं हलकी हवा में मंद-मंद झूलती थीं तो लगता था जैसे पेड़ पर बैठे भूत झूला झूल रहे हों।
बचपन से सुनी कहानियों का कैसा असर था कि मन को कितना भी समझाता था भूत नहीं होता है, सब मन का वहम है। लेकिन पेड़ तक पहुंचते-पहुंचते सारी समझ जाती रहती थी। वही शमी का पेड़ डालियों पर वही झूलता भूत।
आगे बढ़ता जा रहा था एक नई दुनिया की आवाजें, नजारों को ऐसे आंखें फाड़े देखता रहा जैसे परी कथा पढ़ने वाले बच्चे के सामने औचक परियों का देश आ जाए। खुले दरवाजे, हिलते परदे, पर्दों के पीछे से आती हारमोनियम, तबले, गाने की आवाज, किसी-किसी परदे के पीछे से घुंघरुओं की आवाज भी आ रही थी। बचपन से उस पार के बारे में जितना सुना था, जो सुना था सब जैसे फ्लैशबैक की तरह मन के परदे पर चलता जा रहा था।
हर तरफ बुलबुल मगन है मौसमे गुलजार है
जिंदगी इस पार जितनी जिंदगी उस पार है
आपकी तिरछी नजर का हम निशाना बन गए
जिंदगी मेरी नहीं अब आपकी सरकार है
जिंदगी इस पार जितनी जिंदगी उस पार है...
यही है उस पार की दुनिया !
बजते हारमोनियम के साथ गीत के इन बोलों ने एक घर के सामने मेरे कदमों को जैसे रोक दिया हो... सच बताऊं तो इस आवाज के साथ हिलते पर्दों के अलावा कुछ और दिखाई नहीं दिया था। ऊपर नाम लिखा था, सौदामिनी देवी- यहां शाम 6 से 9 गीत-संगीत का प्रोग्राम पेश होता है। हर घर के बाहर लगे नामपट्ट से यह पता चल रहा था कि उसमें प्रोग्राम पेश करने का काम कौन सी देवी या कौन सी बाई करती थी।
देह में एक अजीब सी झुरझुरी दौड़ रही थी। मुझे पक्का विश्वास है मेरा चेहरा लाल हो गया होगा। मैं जब भी तनाव में होता हूं ऐसा हो जाता है। उसी से मैं यह कह सकता हूं कि ऐसा ही हुआ होगा। पहली बार वैसी अनुभूति हुई थी। अचानक से अहसास हुआ पहली बार कि मैं बिगड़ गया। यह अहसास तब भी हुआ था जब पहली बार नरेन्द्र के साथ मिसकौट के पार रेलवे लाइन पर बैठकर सिगरेट पी थी, तब भी जब पहली बार स्टूडेंट्स कंसेशन वाले दिन 90 पैसे का टिकट कटाकर फ्रंट स्टाल में ‘बलम परदेसिया’ फिल्म देखी थी। तब भी जब अपने साथ ट्यूशन पढ़ने वाली पूनम की कॉपी लौटाते हुए उसके पिछले पन्ने पर आई लव यू लिख दिया था। उसने कोई जवाब तो नहीं दिया था, अगले दिन महाजन सर के घर से बाहर निकलते हुए बस इतना कहा था, ‘मेरी कॉपी में आगे से कुछ मत लिखना। अगर बड़की दी देख लेती तो।’ कहकर वह तेजी से निकल गई थी। मैं कभी उससे यह नहीं पूछ पाया था कि क्या हुआ था, किसी ने देख तो नहीं लिया। सर ने उसका टाइम बदल दिया था। मैं पहले की तरह सुबह के बैच में पढता रहा, वह शाम के बैच में आने लगी थी।
लेकिन इस बार वह अहसास सबसे गहरा था। मैं कहां निकल आया। जब यह अहसास बढ़ने लगा तो तेजी से पीछे मुड़ गया और वापस शुक्ला रोड़ के चौराहे को पार करने के लिए तेज कदमों से चलने लगा।
अब देखो गलत काम एक बार करो या बार-बार बात बराबर है समझे- नरेन्द्र ने यही कह-कह कर बार-बार हर वह काम करवाया जिसके करने से मुझे बिगड़ जाने का अहसास होने लगता था।
चतुर्भुज स्थान की गलियां मुझे कई कारणों से रास आई। सबसे बड़ा कारण था स्कूल की क्लास छोड़कर ऐसी जगह की सैर की जहां कोई देख न पाए। चतुर्भुज स्थान सबसे मुफीद जगह थी। दिन के वक्त उधर का रुख कोई नहीं करता था। धोखे से भी नहीं। ऐसे में उधर आने से निरापद होकर घूमा टहला जा सकता था। एकदम निर्धोक होकर, नरेन्द्र कहता था।
शुरुआत होती थी नरायण के टन-टन भाजा खाने के बहाने से, फिर टन-टन भाजा खाते हुए हम सामने वाली सड़क पर दूर उसके सिरे तक टहलते हुए जाते, फिर आ जाते। बहुत बाद में पढ़ा था, लैटिन अमेरिकी लेखक मार्केज ने विलियम फौकनर के हवाले से अपनी आत्मकथा में लिखा कि एक लेखक के लिए वेश्यालय से अच्छी कोई जगह नहीं होती। दिन के वक्त वहां ऐसी शांति होती है जैसी शहर में कहीं और नहीं होती और रात को वहां हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबे का ऐसा माहौल रहता है जैसा शहर में कहीं और नहीं होता है। मेरा अपना अनुभव इसमें यह जोड़ने के लिए कह रहा है- दिन के वक्त स्कूल से भागने वाले लड़कों के लिए भी उससे निरापद कोई जगह नहीं होती है।
नहीं वह वेश्यालय नहीं था। चतुर्भुज स्थान वेश्यालय बिलकुल नहीं था। बहुत बाद में यह समझ में आया, शुक्ला रोड के चौराहे से निकलने वाले चार रास्ते आगे चतुर्भुज स्थान की सात गलियों में मिल जाते थे। सुर की गलियां, संगीत की गलियां, हुनर की गलियां, फन की गलियां, उरूज की गलियां, जवाल की गलियां...
वहां कोई वेश्यालय नहीं था। समय सारी पहचानों को बदल देता है। काल का कलुष हर चीज पर चढ़ जाता है। आज इतने उद्धार वाले, सुधार वाले, एड्स वाले, कंडोम वाले वहां आ जा रहे हैं कि...
मत पूछिए ! जिसे देखिए वही दूसरी तरफ मुड़ जाएगा। मत पूछिए ! न कोई कुछ पूछता है न कोई कुछ बताता है। सब कुछ पीछे छूटता जा रहा है, किस्से सुनने सुनाने वाले स्मृति दोष का शिकार हो रहे हैं। सब कुछ इतना बदल चुका है कि पिछली बातें कीजिए तो ऐसा लगेगा जैसे कोई कहानी हो। आखिर इसी तरह बच जाता है कभी-कभी समय भी किस्से कहानियों में, ढहती दीवारों में, बदरंग होती मीनारों में !
जो बच गया वही रच रहा हूं। जैसे बरसों पहले नरायण का टन-टन भाजा खाने जाता था और फिर तेज कदमों लौट आता था। दो दुनियायों का सफर महज चंद कदमों में पूरा हो जाता था।
हर सफर की कुछ यादें रह जाती हैं। हर सफर में कुछ जुड़ जाता है, कुछ छूट जाता है। छोटे छोटे दृश्यों को जोड़ने बैठा तो किस्से बनने लगे। जिनमें कहीं टन-टन भाजा का स्वाद है तो कहीं हारमोनियम की आवाज, गाने-गुनगुनाने की आवाजें, कहीं तेज कहीं मद्धिम... कई बार समझ में न आने पर बेसुरी लगने वाली...।
लेखक का परिचय
प्रभात रंजन मूलतः कथाकार हैं। दो कहानी संग्रह प्रकाशित, जानकी पुल और बोलेरो क्लास। ‘मार्केज: जादुई यथार्थ का जादूगर’ पुस्तक से विशेष चर्चित। ऐन फ्रैंक की डायरी सहित करीब 18 पुस्तकों का अनुवाद।
पुरस्कार - सहारा समय कथा सम्मान, प्रेमचंद कथा सम्मान, कृष्ण बलदेव वैद फेलोशिप।
अपने ब्लॉग ‘जानकी पुल’ के लिए एबीपी न्यूज सर्वश्रेष्ठ ब्लॉगर सम्मान से सम्मानित।
संप्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन सांध्य महाविद्यालय में अध्यापन