संपूर्ण सिनेमा की तलाश
प्रताप सिंह
साहित्य की कई विधाओं में अपनी सजग-उपस्थिति और संपन्न दृष्टि से चौंकाने वाले वरिष्ठ रचनाकार विष्णु खरे इस बार अपनी नई पुस्तक सिनेमा समय की तकरीबन चालीस टिप्पणियों के लिए चर्चा में हैं। उनकी ये टिप्पणियां सिनेमा, साहित्य, समाज की समकालीन चुनौतियों से रूबरू कराती हैं। सिनेमा के ‘सर्वोत्तम’ और किंचित, ‘निंदनीय-पक्ष’ पर उनकी रंदा लगाती समीक्षा-दृष्टि तमाम जरूरी-मुद्दों के स्पर्श के साथ चौकस आकलन करती है।
सिने-दुनिया की सस्ती उपलब्धियों, ‘क्लासिक्स’ के सिने-प्रयोगों के अभाव और बॉलीवुड/हॉलीवुड के अपने-अपने शिखर, बाजारूपन की तस्दीक करते हुए विष्णु खरे इस दिशा में विश्व-सिनेमा की भी खबर लेते हैं और सोच के नए इलाकों में प्रवेश करते हैं। सिनेमा समय की ‘ओपनिंग’ (शुरुआत) युवा कवि हरि मृदुल से बातचीत से होती है। उनकी गहन जानकारियों के हलके में सिनेमा, साहित्य, बाजारू-मनोवृत्तियों और सिनेमैटिक-तात्विक ज्ञान की भी पड़ताल नए निष्कर्ष सामने लाती है।
खोजी विष्णु खरे, मणिकौल की फिल्म सतह से उठता आदमी की धुनाई के अरसे बाद नौकर की कमीज पर फिदा हैं। चोखेर बाली पर भी उनकी कलम जादू दिखा चुकी है। आर्सन वेल्स की सिटीजन केन की याद करते हुए उन्होंने कभी उसकी भी ‘पुनर्रचना’ जैसा एहसास कराया था। इस इंटरव्यू में वेल्स की इस महान पेशकश के साथ ही हमारे ‘साहित्य-सिनेमा’ के कल्चर-मैदान में आग का दरिया, टोबा टेक सिंह और कई चांद थे सरे आसमां के सिने रूपांतरण की उम्मीद जगाई गई है। परदे की किताब प्यासा के फिक्शन रूप में लेखन के लिए ‘भारती’, ‘जैनेन्द्र’ जैसे प्रमुख हस्ताक्षरों की भी याद दिलाई गई है। बांग्ला-मराठी फिल्म परंपराओं की जमकर तारीफ करने वाले विष्णु खरे ने पारसी थिएटर से पनपे हिंदी सिनेमा के पल्लवित स्वरूप को खास तरजीह न देते हुए, उसके ‘राष्ट्रीय क्लचर’ पर भी हांक लगाई है, इस सबक की तस्लीम के साथ कि “कुछ अच्छी फिल्मों की युवाजन कोशिश कर रहे हैं, लेकिन आप यह नहीं कह सकते कि हिंदी का यह सिनेमा वैश्विक, सार्थक सिनेमा है।” परजानिया से रईस की ओर पलायन पर उनका यह कहना बड़ा सच है कि “मेनस्ट्रीम में जाकर भी आप बुरे सिनेमा का पैसा अच्छे सिनेमा को नहीं लौटाते हैं।”
सिनेमा समय के इस चौदह पेजी इंटरव्यू के बाद टिप्पणियों में खरे खरी-खरी काम की बातें उघाड़ते हैं और जो फिल्मी नहीं है, उस मुद्दे को भी कहीं नया रंग दे डालते हैं। किसी (पाक्षिक) कॉलम के ब-रास्ते यहां तक पहुंची ये टिप्पणियां उनकी किताबत के, विनोद भारद्वाज और ब्रजेश्वर मदान से ज्यादा पुख्ता और भिन्न स्वभाव को बरकरार रखती हैं। सिने दुनिया की ‘असहिष्णुता’ के बीज यहां राजनीति में ही ठीक से टटोले गए हैं। आमिर खान की मार्फत ‘हिंदू-मुसलमान फर्क’ को भी गरियाया गया है। तंगनजरी के मौजूदा सियासी हालात पर फीचर डाक्यूमेंट्रीज के लिए ईरान के फिल्मकारों के दुस्साहस का दृष्टांत देकर उकसाया गया है। हमारी फिल्मों की भाषा के फूहड़पन और संकर-रूप में सुधार के लिए उनके दिशानिर्देश विचारणीय हैं।
गोवा ‘इफ्फी’ की ‘कवरेज’ में उसे अच्छे सिनेमा का सालाना जियारती कब्रिस्तान बताया गया है। वहां कथित फिल्म पत्रकारों और सरकारी महकमे द्वारा उसकी बर्बादी पर भी जी-भर कोसा गया है।
पुस्तक में स्क्रीन युग और उसके टैब्लॉयड स्वरूप में बदलने तक के हवाले बड़े ही मार्मिक हैं। उन दिनों में करंजिया को याद कर लिया गया है पर बाद के अनिल साहरी की स्क्रीन में अनगढ़ उपस्थिति को भुला-सा दिया गया है। बाद में उनका हल्का-सा जिक्र है। किशोर साहू जैसी प्रतिभा की जन्मशती की ‘भ्रूणहत्या’ से पहले की तैयारी का वर्णन और राजनीतिक धड़ेबाजी का उत्खनन भी उल्लेखनीय है। ‘राजकमल’ द्वारा उनकी आत्मकथा के प्रकाशन के बाद तो थोड़ी लीपापोती भी हो गई है। इससे पहले ख्वाजा अहमद अब्बास की जन्मशती के भी इसी तर्ज में निबटने का किस्सा भी बयान किया गया है। दो बीच के अध्यायों में इन दोनों विभूतियों पर उन्होंने विस्तार से लिखा है।
पोलिश फिल्म ईदा के मरकज को समझाने में एक खास ऊंचाई दिखती है। यहां ओदियार की दीपन तथा इनार्रितू की बर्डमैन के मनोलोक और जटिलताओं को पूरे मन से रच पाने का उनका जज्बा फिर सामने आया है। काश, उन्होंने बाबेल देखी होती!
कुछ टिप्पणियां अलग-अलग वक्तों के उभार और घटनाओं पर होने से पुरानी भी हो चली हैं। फिर भी विष्णु खरे के लहजे/लिसान और हर अध्याय में ज्ञान की दस्तरस (पैठ) के कारण ये भी ताजादम और मार्के की हैं। 160 पृष्ठों में समाई सिनेमा समय को सही से जानने का ‘स्पेस’ (और) मिले और कुछ मुद्दों पर इसी पारखी नजर से सिनेमा की बहुआयामी विधाओं पर खुलकर बहस और ताबीर से मुजस्सम निष्कर्ष हासिल हों तो एक और किताब तैयार हो जाएगी।