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01 July 2019

बाजार, राज्य और समाज

हाल में देश में संपन्न आम चुनावों के नतीजे कई राजनैतिक जानकारों के लिए इसलिए भी चौंकाऊ थे कि जिस दौर में अर्थव्यवस्था और रोजगार के हर मोर्चे पर संकट का साया लंबा होता जा रहा हो, उसमें किसी मौजूदा सरकार को जनादेश मिलने के साक्ष्य पहले नहीं मिलते। इसकी वजहें कई हो सकती हैं। मसलन, विपक्ष पर भरोसा न जग पाया हो और लोगों को इस संकटकाल में राज्य सत्ता को अस्थिर करना ठीक न लगा हो। बेशक, सत्ता-तंत्र में होने के दूसरे फायदे भी हो सकते हैं, खासकर उस दौर में जब समाज का अपना स्वावलंबी ढांचा बाजार के गहरे हस्तक्षेप की वजह से चरमराने लगा हो।

अर्थव्यवस्था के संकट के दौर में समाज या सामुदायिक स्वावलंबी ढांचा लोगों की ताकत बनता रहा है। लेकिन जब यह ढांचा भी डगमगाने लगे तो वही होता है जिसकी ओर प्रसिद्ध अर्थशास्‍त्री, भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने अपनी नई किताब ‘द थर्ड पिलर: हाउ मार्केट्स ऐंड द स्टेट लीव द कम्युनिटी बिहाइंड’ में इशारा किया है।

समुदाय या समाज से राज्य व्यवस्था और बाजार के आगे निकल जाने से टेक्नोलॉजी के मौजूदा दौर में राजन एक गजब के निष्कर्ष पर पहुंचते हैं जिसके कई तरह के सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक निहितार्थ से आजकल हम रू-ब-रू होते जा रहे हैं। वे कहते हैं, “शायद कड़ी मेहनत और अच्छी पढ़ाई-लिखाई से भी महत्वपूर्ण यह है कि टेक्नोलॉजी में बदलाव शीर्ष पर गैर-बराबरी में बढ़ोतरी में भी मदद कर रहा है-इसने ‘विजेता को ही सबसे ज्यादा लाभ’ वाली अर्थव्यवस्था पैदा कर दी है।” इससे आप न सिर्फ मौजूदा सत्तारूढ़ राजनैतिक बिरादरी की लाभ की स्थितियों को समझ सकते हैं, बल्कि उस क्रोनी कैपिटलिज्म या याराना पूंजीवाद के ताकतवर होने की प्रक्रिया का भी अंदाजा लगा सकते हैं।

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कहने की जरूरत नहीं कि जिस टेक्नोलॉजी क्रांति से समाज के हर वर्ग को ताकत मिलने की कल्पना की जा रही थी, वह अब ताकतवरों को ही सबसे ज्यादा लाभ पहुंचा रही है, बल्कि हमारे सामाजिक तानेबाने को भी नष्ट कर रही है। यही सामाजिक तानाबाना समुदाय को राज्य और बाजार से अधिक मजबूत बनाता था। राजन कहते हैं, “दरअसल समुदाय ही पहला स्तंभ है जिससे राज्य और बाजार के स्तंभ तैयार हुए हैं और उन्हें ताकत मिलती रही है। लेकिन इस दौर में राज्य और बाजार ही समुदाय को दुबला कर रहे हैं। यह न सिर्फ गैर-बराबरी की खाई चौड़ी कर रहा है, बल्कि अर्थव्यवस्था को भी संकट में डाल रहा है।”

यह भी बताने की जरूरत नहीं कि हमारे देश सहित मौजूदा व्यवस्था गैर-बराबरी में भयंकर इजाफा कर रही है। कोई याद कर सकता है, वह बहस जो फ्रांसीसी अर्थशास्‍त्री पिकेटी ने ‘वन परसेंट वर्सेस नाइनटी नाइन परसेंट’ कहकर छेड़ी थी और बताया था कि दुनिया के ज्यादातर संसाधनों पर कैसे एक प्रतिशत से भी कम लोगों का कब्जा है।

हमारे देश में भी कहा जाता है कि करीब 73 प्रतिशत संसाधनों पर बमुश्किल एक प्रतिशत का कब्जा है। यही क्यों, शीर्ष पर देखें तो गिनती के उद्योग घराने राज कर रहे हैं और वे लगातार मजबूत होते जा रहे हैं। लेकिन राजन इससे भी बड़ी विभीषिका की ओर इशारा करते हैं कि व्यापक समाज लगातार कमजोर होता जा रहा है। “तनख्वाहें ऊपरी स्तर पर तो बेहिसाब बढ़ी हैं लेकिन निचले स्तर पर आमदनी लगातार घटती जा रही है।” इससे वे इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि अर्थव्यवस्था एक और महामंदी के मुहाने पर खड़ी है, जिसकी आशंकाएं चहुंओर व्यक्त की जा रही हैं।

अपने इसी अध्ययन में वे यह भी बताते हैं कि कैसे अनियंत्रित उदारीकरण और बड़े कारोबार का बाजार छोटे उद्ममों को नष्ट कर रहा है और बड़े पैमाने पर लोगों को गैर-हुनरमंद बना रहा है। शायद

एक वजह यह भी थी कि वे रिजर्व बैंक के गवर्नर रहते नोटबंदी के हिमायती नहीं बने और अलग हो गए। जिसे हमारे यहां अनौपचारिक क्षेत्र कहा जाता है, उसे वे औपचारिक बनाने के उतने हिमायती नहीं हैं क्योंकि उनका अध्ययन बताता है कि इससे गैर-बराबरी बढ़ने और समुदाय के दुबले होने का सीधा संबंध है।

इसी वजह से वे मौजूदा वित्तीय पूंजीवाद में समाज और लोकतंत्र के संकटों का स्रोत तलाशते हैं और समाज या समुदाय के प्रति राज्य के दायित्व को अहम मानते हैं। वे समुदाय या सभ्यता के पहले स्तंभ को मजबूत करने की बातें करते हैं जिससे संकट कुछ हद तक दूर हो सकता है। लेकिन क्या इस दौर में उनकी यह आवाज सुनी जाएगी।

बहरहाल, यह किताब अर्थशास्‍त्र और समाजशास्‍त्र के अध्येता के लिए तो बेहद जरूरी है ही, आम पाठकों के लिए भी ज्ञान बढ़ाने वाली है।

द थर्ड पिलर

रघुराम राजन

प्रकाशक | हार्पर-कॉलिंस

पृष्‍ठ ः 435 | मूल्य ः 799 रुपये

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TAGS: raghuram rajan, harimohan mishra, the third piller
OUTLOOK 01 July, 2019
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