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21 January 2015

युवा रचनाशीलता की समार्थ्य

हाल वर्षों में युवा रचनाशीलता ने पाठकों और आलोचकों का व्यापक ध्यान आकृष्ट किया है। यह भी एक तथ्य है कि युवा रचनाकारों को केंद्र में रखकर कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं ने अपने विषेषांक भी प्रकाशित किए। कुछ प्रकाशनों ने युवा लेखकों की पुस्तकें प्रमुखता से प्रकाशित कीं और अब भी कर रहे हैं। सामयिक प्रकाशन भी ऐसा ही प्रकाशन है, जो लगातार युवाओं पर फोकस किए हुए हैं। सामयिक ने तीन खंडों में 'हिन्दी कहानी का युवा परिदृ्श्यनाम से पुस्तक प्रकाशित की है। तीनों खंडों में कुल 27 कहानीकार संकलित हैं। लेकिन कुछ महत्वपूर्ण और चर्चित कहानीकार इसमें नहीं आ पाए हैं। वे होते तो यह खंड अधिक विश्वसनीय होता। किंतु यह भी सच है कि प्रत्येक शृंखला या संकलन में एक कालखंड में रच रहे सभी रचनाकार नहीं आ पाते।

इस संकलन में ली गईं लगभग सभी कहानियां पठनीय हैं। पंकज मित्र और नीलाक्षी सिंह की कहानियों को पाठकों और आलोचकों में विश्वसनीयता हासिल है। 'रंगमहल में राधा नाचीÓ स्मृति में दर्ज रह जाने वाली कहानी है। पंकज मित्र की 'बे ला का भूÓ, रवि बुले की 'आइने, सपने और वसंतसेनाÓ, मनीषा कुश्रेष्ठ की 'स्वांगÓ, आकांक्षा पारे काशिव की 'तीन सहेलियां, तीन प्रेमीÓ अल्पना मिश्र की 'मुक्ति प्रसंगÓ वंदना राग की 'यूटोपियाÓ, प्रभात रंजन की 'इंटरनेटÓ, सोनाली सिंह की 'शब का आखिरी परिंदाÓ, पंकज सुबीर की 'चौथमल मास्साब और पूस की रातÓ, कैलाश वनवासी की 'बाजार में रामधनÓ, शशिभूषण द्विवेदी की 'अभिशप्तÓ, कविता की 'नदी जो अब भी बहती हैÓ, राकेश मिश्र की 'तक्षशिला में आगÓ, अजय नावरिया की 'निर्वासनÓ, संजय कुंदन की 'श्यामलाल का अकेलापनÓ, उमाशंकर चौधरी की 'और इब्नबतूता गायब हो गयाÓ शरद सिंह की 'कस्बाई सिमोनÓ, प्रत्यक्षा की 'शारुख शारुख! कैसे हो शारुखÓ जयंती रंगनाथन की 'चल भाग चल...जिंदगी सेÓ जयश्री रॉय की 'अपनी तरफ लौटते हुएÓ, गीताश्री की 'बनाना नाइटÓ, हुस्न तबस्सुम निहां की 'नीले पंखों वाली लड़कियांÓ, अनुज की 'खूंटाÓ ज्योति चावला की 'अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होतीÓ, विवेक मिश्र की 'हनियांÓ और विमल चंद्र पाण्डेय की 'उत्तर प्रदेश की खिड़कीÓ जैसी चर्चित कहानियां इस संकलन के अलग-अलग खंडों में संकलित की गई हैं।

संकलित कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता विषयों की विविधता है। नए लेखकों के  पास नए संसार की कहानियां हैं। ये कथाकार किसी बनी बनाई परिपाटी पर चलने को तैयार नहीं हैं। इनमें अनुभवों को नए ढंग से कहने की ललक है। कई बार अनगढ़ रह जाने का खतरा उठाते हुए भी ये अपनी बात कहते हैं। नए कथाकार नई नैतिकता के भी प्रस्तावक हैं। ये नैतिकता की रूढिय़ों के समक्ष समर्थ प्रश्नों के साथ खड़े हैं। जरूरी नहीं कि वे सही ही हों लेकिन सुखद यह है कि ये लोग समपर्ण की मुद्रा में नहीं हैं। इनकी रचनाशीलता का एक सौंदर्य यह भी है कि ये चुनौतियों के सहचर हैं। घर, परिवार, प्रेम, मित्र, बाजार, स्त्री, दलित और आदिवासी जीवन के साथ वंचना का प्रतिरोध इनकी रचनाशीलता का जीवद्रव्य है।

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इन कहानियों के साथ लेखकों के वक्तव्य भी शामिल हैं। लगभग सभी लेखकों ने अपनी रचना प्रक्रिया को, लिखने के कारणों को व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किया है। शशिभूषण द्विवेदी का वक्तव्य एक स्वतंत्र कहानी ही है। किसी युवा लेखक का इतना रोचक वक्तव्य हाल के दिनों में शायद ही किसी ने पढ़ा हो। प्रभात रंजन ने अपने वक्तव्य में कुछ विचारणीय बातें लिखी हैं। जयश्री रॉय ने माना कि लिखना ही उनके लिए विकल्प था और है। गीताश्री ने अपनी नायिकाओं की बनावट को रेखांकित किया है। उमाशंकर चौधरी ने विस्तार से अपने आरंभिक जीवन और लेखक बनने की प्रक्रिया को उद्घाटित किया है। नीलाक्षी सिंह ने संक्षेप में ही सही, लेकिन अर्थपूर्ण बातें कही हैं। विवेक मिश्र ने भी संक्षेप में ही अपनी बातें कहते हुए एक बड़ी बात कही, 'एक गूंगे का बयान हैं मेरी कहानियां।Ó यह बड़बोले समय में एक लेखक की विनम्रता है। यहां सभी रचनाकारों के वक्तव्यों पर टिप्पणी संभव नहीं है लेकिन यह कहना जरूरी है कि सभी ने अपने लेखक बनने की प्रक्रिया को सामने रखने की कोशिश की है। पाठकों को कई रचनाकारों की रचनाप्रक्रिया या लेखक बनने की प्रक्रिया एक सी लग सकती है। लेकिन इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

हिंदी कहानी या युवा परिदृश्य में संकलित अधिकतर कहानियां पहले से ही पाठकों और आलोचकों का विश्वास हासिल कर चुकी हैं। कैलाश वनवासी की कहानी 'बाजार में रामधनÓ की चर्चा से साहित्य जगत परिचित है। निश्चित रूप से यह एक उल्लेखनीय कहानी है। पिछली सदी के अंतिम वर्षों में पंकज मित्र की कहानियों ने नई उम्मीद पैदा कर दी थी और सुखद है कि वह उसे लगातार पूरा कर रहे हैं। एक समर्थ रचनाकार इसी तरह अपनी रचना-यात्रा में आगे बढ़ता है। संकलित कहानीकारों में से दो-तीन ऐसे हैं जिनके बिना अब कहानी पर कोई बात पूरी नहीं होगी तो कुछ ऐसे भी कहानीकार इसमें लिए गए हैं जो अभी पहचान बनाने की प्रक्रिया में हैं। लेकिन उनमें 'चमकÓ है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता।

संपादक सुशील सिद्धार्थ ने इस संकलन की प्रासंगिकता को रेखांकित किया है लेकिन लेखकों का क्रम किस आधार पर तैयार किया गया, यह स्पष्ट नहीं है। वैसे कुल मिलाकर तीनों खंड पठनीय और संग्रहणीय हैं। जिनकी दिलचस्पी कहानी विधा के निरंतर विकास में है, उन्हें इन खंडों से गुजरना चाहिए। इस प्रकाशन के लिए सामयिक प्रकाशन प्रशंसा का हकदार है। अच्छी कहानियों के साथ लेखकों के इमानदार वक्तव्य के लिए 1400 रुपये (तीनों खंड) बिलकुल ज्यादा नहीं है।

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TAGS: जितेन्द्र श्रीवास्तव, कहानी का युवा परिदृश्य, सामयिक प्रकाशन, लेखक
OUTLOOK 21 January, 2015
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