कार्टून की दुनिया
राजेंद्र धोड़पकर
जब हम लोग कार्टून की दुनिया में कदम रख रहे थे, तब तक राजिंदर पुरी नियमित कार्टून बनाना छोड़ चुके थे। तब मैं जनसत्ता और द इंडियन एक्सप्रेस का नियमित कार्टूनिस्ट था। वह दौर राजीव गांधी की सरकार के खिलाफ जोरदार आंदोलन का था, जिसे एक्सप्रेस समूह का समर्थन था। तब पुरी साहब यदाकदा, हफ्ते में एकाध बार एकाध कार्टून द इंडियन एक्सप्रेस के लिए बना देते थे। मैं उन कार्टूनों को देखता और हर बार बहुत प्रभावित होता था। चूंकि पुरी साहब एकाध कार्टून ही बनाते थे इसलिए उनके विषय भी अमूमन वे ही होते थे, जिन पर हम जैसे लोग पहले भी कार्टून बना चुके होते थे, लेकिन हर बार वे उसी विषय पर कोई ऐसा कार्टून बना देते जो सबसे अलग और बेहतर होता। मैंने एक्सप्रेस के संपादक अरुण शौरी से पूछा-पुरी साहब इतना अच्छा काम करते हैं, वे नियमित कार्टून क्यों नहीं बनाते? अरुण शौरी ने नकली क्रोध और असली प्रशंसा के भाव से कहा- “उन्हें देश को बचाने से फुरसत हो तो वे नियमित कार्टून बनाएं।”
“देश को बचाना” पुरी साहब के लिए गंभीर काम था। वे पक्के राजनैतिक व्यक्ति थे। जब इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी बनी तो वे उसके महासचिव बने, फिर वे लोकदल के महासचिव हुए। बाद में उन्होंने अपनी भी एक राजनैतिक पार्टी बनाई जिसका कोई नामोनिशान नहीं बचा। उनकी राजनैतिक लाइन बहुत साफ थी। वे राजनीति में उदार, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्षधर थे और अर्थव्यवस्था में खुली, उदारवादी नीति के हामी थे। वे काफी सक्रिय किस्म के राजनैतिक व्यक्ति रहे, लोगों को याद होगा कि जैन हवाला कांड को अवाम के सामने लाने और उसके पीछे जुटे रहने वाले लोगों में राजिंदर पुरी भी थे। लेकिन, महत्वपूर्ण यह है कि वे असाधारण राजनैतिक कार्टूनिस्ट थे जो ऐसे दौर में सक्रिय थे जो भारतीय कार्टून का स्वर्ण युग कहा जा सकता है।
भारतीय कार्टून के पितृपुरुष शंकर का दौर ऐसा था जब राजनेताओं और पत्रकारों के बीच आत्मीयता का संबंध था, जो आजादी की लड़ाई के वक्त से चला आ रहा था। जवाहरलाल नेहरू और उनकी पीढ़ी के राजनेता खुद भी प्रेस से दोतरफा संवाद बनाए रखते थे। लेकिन पुरी साहब के कॅरिअर की शुरुआत नेहरू युग के अंतिम वर्षों में हुई, जब राजनीति के लिए एक संदेह का माहौल बनना शुरू हो गया था। उनके कार्टून ज्यादा तीखे, राजनैतिक और हमलावर होते थे। इस मायने में वे महान कार्टूनिस्ट अबू अब्राहम और ओ.वी. विजयन के ज्यादा करीब थे, बनिस्बत सुधीर दर और आर.के. लक्ष्मण के। वे बाद की पीढ़ी के कार्टूनिस्टों के भी करीब थे जिन्होंने इमरजेंसी के बाद वाले उथलपुथल के दौर में अपना काम शुरू किया।
राजिंदर पुरी के कार्टूनों की किताब ह्वाट ए लाइफ पिछले दिनों आई है जिसे पार्थ चटर्जी और अरविंदर सिंह ने संपादित किया है। ह्वाट ए लाइफ उनके पॉकेट कार्टून के स्तंभ का नाम था। लगभग पचपन साल तक फैले उनके काम को एक पतली सी किताब में समाना यूं भी मुश्किल काम था फिर भी संपादकों ने यह काम बखूबी निभाया है। हालांकि, सौभाग्यवश पुरी साहब की कई किताबें पहले भी आ चुकी हैं जिनसे उनके कृतित्व को जाना जा सकता है, लेकिन यह किताब इस मायने में उल्लेखनीय है कि यह बहुत शुरू से लेकर अंत तक राजिंदर पुरी के काम का लेखा-जोखा रखती है।
इसमें लेखकद्वय की लंबी भूमिका भी है जो उनके काम और उनके समय का गंभीर विश्लेषण करती है। किताब में पुरी साहब के कार्टूनों के अलावा उनके लेखन के भी अंश हैं। पुरी साहब ने अपने काम की शुरुआत इंग्लैंड में मैन्चेस्टर गार्डियन और द ग्लासगो हेरल्ड से की। भारत में वे द इंडियन एक्सप्रेस, द हिंदुस्तान टाइम्स, द स्टेट्समैन जैसे कई सारे बड़े अखबारों के कार्टूनिस्ट और लेखक रहे। बहुत बाद में आउटलुक में उनका एक व्यंग्य का स्तंभ और कार्टून साथ-साथ छपता था।
पुरी साहब बहुत मिलनसार आदमी थे, उनकी दोस्तियां दूर-दूर तक थीं। लेकिन कुछ अपने संकोची स्वभाव की वजह से मैं उनका प्रशंसक होते हुए भी उनसे ज्यादा मिल नहीं पाया। मेरी एक ही लंबी मुलाकात उनसे उनके घर पर हुई थी, जब मैं कार्टून के बारे में कुछ सलाह लेने उनके घर गया। उस दिन करीब दो घंटे उन्होंने बड़ी आत्मीयता से बात की। एक बात मुझे याद है, जब मैंने उनसे नियमित कार्टून न बनाने की शिकायत की तो वे कहने लगे- “पहले बड़े संपादक होते थे, उनके लिए कार्टून बनाने का मन करता था। अब ऐसा संपादक कौन है? जैसे अरुण शौरी थे, उनसे विचारधारा के मतभेद हो सकते थे, फिर भी वे संपादक तो बड़े थे। अब कौन है उस कद का?” यह बातचीत करीब बीस साल पहले की है। अब के दौर के बारे में वे क्या सोचते, सोचा ही जा सकता है।