शहरनामा/जबलपुर: संस्कारी से आधुनिक नगरी बनने का सफर
"संस्कारधानी नगरी से आधुनिक शहर होने तक”
न्यू और पुराना
न्यू भेड़ाघाट रोड पर आइटी पार्कनुमा चमचमाती इमारतें, बरेला रोड़ पर डिस्कोथेक, पब, कुछ चार-पांच सितारा होटल, सदर-बाजार के पेंटीनाका वाले छोर से शुरू होने वाले रोड पर पिछले दो दशकों में उग आए कुछ क्लब भले ही थोड़े आधुनिक तर्ज पर स्मार्ट होने का नजारा पेश करें मगर इस शहर की अपनी ऐतिहासिक और पुरानी विरासत छुपाए नहीं छुपती। शहर की आत्मा, तो अब भी 1939 के त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन की स्मृति में बने कमानिया गेट के दो-तीन किलोमीटर के दायरे में पसरे पुराने जबलपुर में ही बसी हुई है। एक तरफ सुनरहाई (सर्राफा) और तमरहाई (बर्तनों का बाजार) दूसरी तरफ अंधेरदेव, मिलौनीगंज और सुपर मार्केट जैसे पुराने बाजार। ये इलाके अभी भी शहर में खुल चुके कई अत्याधुनिक मॉल्स से डटकर मुकाबला कर रहे हैं।
ठेठ बुंदेलीपन
कमानिया गेट से बड़ा फुहारा तक आने पर ही आपके कानों में ठेठ बुंदेलीपने की मीठी फुहार न पड़े, तो कहिएगा। हाइकोर्ट, टाउन-हाल, घंटाघर, मदनमहल, ग्वारीघाट और विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल भेड़ाघाट हर जगह आपको अंग्रेजों के जमाने की स्थापत्य कला, संस्कृति और सौंदर्य की धड़कन सुनाई देगी। यहां ‘नर्मदा क्लब’ भी है, जहां 1875 में स्नूकर जैसे खेल ने जन्म लिया। उसी ऐतिहासिक क्लब की तर्ज पर सिविल लाइंस, राइट-टाउन, नेपियर-टाउन और विजयनगर के बाद नए रिहाइशी इलाकों में तिलहरी तक का इलाका गुलजार होता जा रहा है।
नर्मदा स्पर्श
सदर बाजार के दूसरे छोर से गोरखपुर, रामपुर के बाद अब ग्वारीघाट तक विस्तार ले चुका यह शहर नर्मदा की लहरों को छूकर मानो कोई भूल सुधार कर रहा है कि एक खुशहाल नगर को किसी नदी के किनारे ही बसना चाहिए। जबलपुर के ताल-तलैया भी अपनी कहानी कहते हैं। हैरत की बात है दर्जनों तालाब वाले जबलपुर को कभी तालाबों के शहर के तौर पर पहचान नहीं मिली। हालांकि आधारताल, हनुमानताल, रानीताल, हाथीताल, देवताल जैसे दो दर्जन से ज्यादा बड़े तालाबों में से अब गिने-चुने ही अपने अस्तित्व को बचाने में कामयाब हैं पर वे भी अब सिकुड़ गए हैं। कुछ यही हाल यहां रहे करीब ढाई दर्जन सिनेमाघरों का हुआ। ज्योति, जयंती, शीला, प्रभु-वंदना और विनीत जैसी टॉकीज में से इक्का-दुक्का ही सक्रिय रह गई हैं। 1952 में प्रसिद्ध अभिनेता प्रेमनाथ की खरीदी हुई एंपायर टॉकीज का खंडहर देखकर किसी भी सिने प्रेमी को सदमा लग सकता है।
प्रकृति, संस्कृति और संतुलन
जबलपुर को प्रकृति से मिला सबसे बड़ा वरदान भेड़ाघाट का धुआंधार जल-प्रपात है। यह यहां आने वाले पर्यटकों के लिए खास आकर्षण का केंद्र है। बनारस और हरिद्वार की तर्ज पर होने वाली मां नर्मदा की आरती का आकर्षण श्रद्धालुओं को ग्वारीघाट खींच ही लाता है। जो भेड़ाघाट जाते हैं वे प्राचीन चौसठ योगिनी मंदिर भी घूमकर आते हैं। त्रिपुर सुंदरी और पाट बाबा मंदिर में श्रद्धालुओं की आवक बरकरार है। कभी संस्कारधानी के नाम से पहचाने जाने वाले जबलपुर में सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रहती आई ऐतिहासिक इमारतें उपेक्षा से खस्ताहाल होती जा रही हैं। फिर भले वह शहीद स्मारक हो, जिसकी नींव आजादी के बाद 1948 में देश के प्रथम राष्ट्रपति ने रखी हो या कल्चुरी और गोंड़वाना राज्य के महत्व से परिचय करवाता रानी दुर्गावती संग्रहालय। इस बीच 1892 में बने टाउन हॉल यानी गांधी-भवन लाइब्रेरी के कायाकल्प की खबर जरूर राहत देती है। लेकिन ‘बैलेंसिंग रॉक’ के तौर पर मशहूर एक चट्टान की छाती पर संतुलन बनाकर खड़ी दूसरी गोल भीमकाय चट्टान को देखकर, यह विचार जरूर आएगा कि इस शहर को भी ऐसे ही किसी संतुलन की जरूरत है।
मावा जलेबी पर भारी पोहा जलेबी
जबलपुरिया खानपान पर देश के कई राज्यों का असर है। उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे पड़ोसी राज्यों के खानपान की आदतें जबलपुर ने खुले दिल से अपनाई हैं। बिहार का ट्रेडमार्क लिट्टी-चोखा यहां गक्कड़-भर्ता के रूप में, महाराष्ट्र और गुजरात का स्वाद मालवा के रास्ते पोहा-जलेबी के रूप में सामने आ जाता है। दाल-बाटी का आनंद लेना चाहते हों, तो सीधे ग्वारीघाट पहुंच जाइए। यहां का फेमस कलाकंद बोनस रहेगा। वैसे जबलपुर की ईजाद तो खोवा (मावा) जलेबी है। कमानिया गेट से सटी बड़कुल की जलेबी के अलावा अब मिठाई की बाकी दुकानों पर भी उपलब्ध है। हर गली चौराहे पर सुबह की चाय के साथ पोहा-जलेबी का नाश्ता अक्सर मावा जलेबी पर भारी पड़ जाता है। कुछ कॉफी-हाउस जरूर जबलपुर की पहचान से अब भी जुड़े हैं, जिनमें करमचंद चौक, सुपरमार्केट और खासकर सदर बाजार के कॉफी-हाउस की भव्यता के सामने आलीशान रेस्तरां भी फीके नजर आते हैं।
विविधता का प्रतिबिंब
जबलपुर देश के लगभग बीचोबीच है, तो पिछले कई दशकों में देश के हर कोने से लोग यहां रोजगार के लिए आते गए। इसमें गन फैक्ट्री, व्हीकल-फैक्ट्री, ऑर्डिनेंस फैक्ट्री का योगदान है। यहां दुर्गोत्सव ऐसे मनाया जाता जैसे बंगाल में दुर्गापूजा। गणेशोत्सव ठीक वैसे जैसे महाराष्ट्र में। ओणम, पोंगल ठीक वैसे जैसे दक्षिण भारत में और लोहड़ी भी पूरी पंजाबियों वाली। इससे कई साल पहले आया मध्य प्रदेश पर्यटन विकास निगम का वह विज्ञापन याद आएगा, ‘तिल देखो, ताड़ देखो, राई का पहाड़ देखो... हिंदुस्तान का दिल देखो...!
(पंकज कौरव, पटकथा लेखक और म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन के वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित)