एवन साइकिल वाली लड़की, 'रंग' की चिट्ठी और बेदर्दी से प्यार का...
नाम जानकर क्या कीजिएगा पर यह जरूर जानिए कि लड़कों से ठस्स भरे हुए स्कूल में वह जिस ताव और तेवर के साथ रहती थी, वह देख हम सब उससे बीघा भर दूरी पर रहते थे। वह तुरकहां नहर के उस पार के किसी गाँव के दबंग परिवार की बड़ी लड़की थी। उसके परिवार के दबंगई के किस्से हॉस्पिटल चौक तक हवाओं में थे। सो कोई उससे बहुत सटता न था। उन दिनों स्कूल में शायद वह एकमात्र लड़की थी जो सायकिल से स्कूल आती थी। स्कूल गेट से दन्न से अपनी लाल एवन सायकिल से ऑफिस के पास तक आती और सायकिल खड़ी करके एक उड़ती हुई दृष्टि मैदान की ओर डालती थी। यह उसका रोज का काम था। मेरे याददाश्त में शायद यह पहली लड़की थी जो कभी कभार गुटखा भी खाती थी। लंबी चोटी छरहरी लंबे कद और गहरे आँखों वाली उस लड़की से स्कूल का आम छात्र तो आँख तक नहीं मिला पाता था। गणित वाले पांड़े मास्टर साहब अक्सर उससे भोजपुरी का कोई गीत सुनाने को कहते और वह हमेशा 'भँवरवां के तहरा संघे जाई' सुनाती। आम लड़कियाँ जहाँ स्कूल में झुंड में सिर झुकाए आतीं-जाती, वहीं यह लड़की अपने आचरण और व्यवहार से दुनिया बदल देने वाली लगती। आनंद भूषण से उसकी दोस्ती थी। कितनी थी यह तो नहीं मालूम पर आमना-सामना होने पर वह उसको 'का पांड़े?' कहकर जरूर कोंचती और चली जाती। उसकी पहचान आनन्द से कैसे हुई इसका कारण शाही जी की ट्यूशन क्लास थी,जहाँ ये दोनों पढ़ा करते। यह बात आनंद ने ही हमको बताई थी कि वह लड़की भी भारी फिलिमबाज़ है और मौनिया चौक से उसने भी 'जान तेरे नाम' के गीतों का कैसेट भरवाया हुआ हैं। एवन सायकिल उसके व्यक्तित्व में चहुँ ओर समाया हुआ था। स्कूल, कोचिंग, बाजार, फ़िल्म सब ओर वह और उसकी दनदनाती लाल एवन सायकिल। पंकज का दावा था कि "बेटा, देखना इसका बियाह जल्दिये होगा।" पर जैसा कि हमने सुना है कि पत्थर पर भी फूल खिलते हैं, रेगिस्तान में भी कहीं हरियाली पसरती है और जेठ में भी बादल कहीं बरस जाते हैं। वैसा ही कुछ उस रोज हुआ था जब मंतोष जायसवाल ने ब्रह्मजी सर के कोचिंग में एक शनिवार को 'बेखुदी' का 'जब ना माना दिल दीवाना, कलम उठाके जाने जाना, खत मैंने तेरे नाम लिखा, हाले-दिल तमाम लिखा'- सुनाया। आनंद ने बताया था बस यही वह दिन था जब वह खुद ही मन्तोषवा के फेर में फँसी। मंतोष पढ़ने में तेज़ था ही साथ ही देखने में कमल सदाना वाली छांई का था। या इसे आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि हीरो ओढ़ने में दक्ष हमारी पीढ़ी को उसके चाल-ढाल-बाल में 'रँग' वाला हीरो कमल सदाना दिखता था। वैसे भी इसमें कोई दो राय नहीं कि ब्रह्मजी सर के कोचिंग में वह हम मूंगफलियों के बीच काजू-बादाम था। लड़की रीझ गयी। फिर किताबों में एक रोज वह 'कागज़ के इस टुकड़े को तुम दिल समझ लेना' से बढ़ता हुआ 'तुम्हें देखें मेरी आँखें, इसमें क्या मेरी खता' और जिस रोज वह नहीं आती-आता तो आलम 'तुझे ना देखूँ तो चैन मुझे आता नहीं' तक जा पहुँचा था। इन्हीं दिनों में वह आनंद से अधिक बात करने लगी थी और यदि किसी रोज मंतोष स्कूल या कोचिंग में नहीं दिखता तो आनंद को उसके घर पता लगाने दौड़ा देती। आनन्द भी इस दरम्यान हमसे कम ही मिलता था। हमें उसके इस व्यवहार से कोफ्त होती लेकिन पंकज का कहना था कि 'जाने दो उसको। उसको कुछ और ही नशा लगा हुआ है।'
सब सहज भाव से चल रहा था। लेकिन यह शहर नारायणी के किनारे बसा है। नारायणी का जल ऊपर से स्थिर दिखता है पर उसमें भीतरी त्वरा बहुत है। कब तक यह सहज भाव से चलता। इसमें चकोह आना ही था। ब्रह्मजी के कोचिंग का किस्सा धीरे ही सही अंकुरित होकर आकार ले रहा है और पता नहीं क्यों पर कमबख्त अभय हमेशा कहता था - 'देख लेना, यह लड़की अभी तो होश में नहीं है लेकिन कहीं ऐसा न हो कि इसके पागलपन में मन्तोषवा का विकेट गिर जाए' -तो अंकुर पौधा बनता गया और उस छोटे शहर के कोचिंग से बात निकलती एक मुँह से दूसरे मुँह स्कूल भर में फैल गयी थी। हालांकि कोई खुलकर कुछ नहीं कहता था।
इन सब बातों में गुजरता स्कूल दसवीं की देहरी पर आ पहुँचा था। गुरुजनों ने छात्रों को हड़काना शुरू कर दिया था कि ढंग से पढ़ लो नहीं तो इस बार हाइकोर्ट परीक्षा लेगा और सब फेल हो जाओगे। इसी बीच वह हुआ जिसकी उम्मीद हमने नहीं की थी। परीक्षा के फार्म भरे जा रहे थे , शिक्षकों ने अतिरिक्त कक्षाएं लेनी शुरू कर दी थी और महेश ने शार्ट कट फार्मूले से दसवीं पास करने का 'एटम बम' कुंजी ले लिया था। एकाएक एवन सायकिल और मन्तोष दोनों का स्कूल आना बंद हो गया। एकाएक उन दोनों का कम आना पहले सहज लगा फिर नोटिस में आया और फिर यह न आना कुछ चुभने-सा लगा। बात क्या है? असल कहानी या तो आनंद के पास थी या हर्षवर्द्धन के पास । हर्षवर्द्धन नहर के पास बने सुगर मिल के अधिकारी आवास में रहता था। फिर वह कहानी हमारे सामने आई, जिसका अंदाजा तो कमोबेश सबको था पर कोई खुलकर कह नहीं रहा था। जहाँ दसवीं में सब दोस्तों को एक-दूसरे से अलग हो जाने का भावनात्मक डर सता रहा था।उसी दरम्यान लड़की के घरवालों को लड़की के 'मनबढूपने' की कुछ उड़ती-सी खबर लगी थी। सो, उसकी शादी पूरब की ओर तय कर दी गयी थी। लेकिन लड़की में दो गुण ऐसे थे जो हमारे खास मानस वाले समाज के गले नहीं उतरते - जिद और अतिरिक्त हिम्मत। बस यही दो 'अवांछित' गुण उसमें अधिक थे। घर का दबाव बढ़ा तो उसने मन्तोष जायसवाल से चुपके से आर्यसमाज रीति से विवाह कर लिया। उम्र तो न थी पर हिम्मत और जिद का क्या करें? जिले में यह तब और अब के लिहाज से भी खासा क्रांतिकारी कदम था। सुना गया कि कुछ समय के लिए वह घर से सिवान की ओर भागी भी थी पर किसी एक रोज भावनात्मक बहाने से उसको घर बुलाया गया फिर उसके बाद वह किसी को भी न दिखी। पता नहीं उसको तुरकहाँ नहर लील गया या लड़की के खुद का आँगन, पता नहीं। अलबत्ता इस अजूबा का दूसरा हिस्सा भी ऐसा ही निकला। कमल सदाना मंतोष भी कहीं बाहर भेज दिया गया। ईश्वर जाने वह बच गया कि लड़की को बचा नहीं पाने की शर्म लिए खुद भाग गया था। उनकी पढ़ाई का तो जो होना था, सो हो गया। मन की साध भी हमेशा पूरी कहाँ हुई है? फिर इतिहास तो असंख्य 'देवदासों' का भी है, जिन्होंने आधी रात को आई न जाने ऐसी कितनी 'पारो' के प्रेम की हकमारी की है!
यह सारी कहानी कुछ महीने बाद उसके गाँव के एक लड़के से पता चली। यह सच है कि वह हमारी दोस्त नहीं थी पर उसकी एक छवि थी, जो उसे आम लड़कियों से अलग और खास करता था। उसका हम सबके मन में एक रुतबा तो था ही। उसकी अनुपस्थिति स्कूल में कभी न खत्म होने वाला अमावस बना। यकीन मानिए यह लड़की के दुःख का शाप था या केवल हाइकोर्ट की कड़ाई, उस बरस पूरे स्कूल में नब्बे फीसदी से अधिक छात्र फेल हुए। बाद के दिनों में लड़के बताते हैं कि तबसे स्कूल के गेट से कोई लाल एवन सायकिल नहीं दिखी। लड़के यह भी बताते है कि बाद के बैच में भी पांड़े मास्टर जी ने किसी से कोई गीत क्लास में नहीं सुना, हालांकि यह जरूर था कि कक्षा में मामूली गलती पर भी उनकी छड़ी बेतहाशा चलने लगी थी। पंकजवा आधा ही सही पर सच बोला था - 'देखना अगर ये मामला इसके घर गया ना तो मन्तोषवा का विकेट गिरते देर नहीं लगेगी।'- पता नहीं उस रोज उसकी जबान काली थी या नहीं पर कहीं एक तारा तो जरुर टूटा और जाकर मील भर दूर नहर में जमीदोंज हो गया था। सिनेमाई दिल को जिंदगी के इस हिस्से का पता ही नहीं था कि 'जिंदगी की तलाश में मौत के कितने पास आ गए"- ज़िन्दगी हो कि सिनेमा सुखान्त ही होगा इसकी गारंटी क्या है? 'जान तेरे नाम' से लेकर 'रंग वाली चिट्ठी' आठवीं से दसवीं तक के तीन से थोड़ा कम वर्षों में बैरंग हुई और बाद में कोई कह रहा था ' हर दिन तो नहीं लेकिन नहर के पुल पर अकेली साँझ में कोई गाता है - 'बेदर्दी से प्यार का सहारा ना ...।'
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)