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28 March 2015

कहानी : बार कोड

माधव जोशी

रात नींद अच्छी नहीं आई। नींद वाली गोली खाना शायद भूल गया था। यों भी रात भर नींद में तो सपनों की एक अनजान बस्ती में ही भटकना होता है। पिछले कई सालों से तो उसी बस्ती में भटकता रहा हूं। न जाने कौन-सी बस्ती है वह जहां की सडक़ सुनसान होती हैं। सडक़ों से कई गुना ज्यादा तो गलियां मिलती हैं जो अचानक, बेवजह बंद हो जाती हैं। दरवाजे खुले मिलते हैं। जिसमें घुसता हूं, गलियारे, बरामदे आगे चलता जाता हूं। कोई मिलता नहीं जिससे आगे का रास्ता पूछा जाए। अचानक सीढिय़ां मिल जाती हैं जिन पर चढ़ते जाने पर वे कहीं पहुंचकर रुक जाती हैं। न वहां कोई छत होती है, न कोई सहन। मुडक़र देखने पर सीढिय़ां गायब मिलती हैं। अब नीचे कैसे उतरा जाए। तभी लगता है ये सीढिय़ां किसी पुरानी बंद इमारत की सीढिय़ां थीं, इन पर मैं कैसे चढ़ आया। लेकिन बगल में ही दूसरी सीढ़ी दिखाई देती है। लगता है मैं जमीन के उपर नहीं, नीचे से उपर चढ़ता आ रहा था। मैं सोचने लगता हूं, मैं जरूर किसी तिलिस्म में फंस गया हूं।

मुझे एक बूढ़ा आदमी एक बरामदे में बैठा दिखाई देता है। लेकिन चेहरा उसका अंधेरे में है और आंखें उसने अपनी बंद कर रखी हैं। उससे कुछ पूछना ठीक नहीं लगता। मैं आगे बढ़ जाता हूं। अब मैं एक छत की फर्श पर खड़ा हूं। मैं अब इस छत पर कब तक टंगा रहूंगा। दिन भी ढल चुका है। मैं कहां, कैसे जाऊंगा, समझ नहीं आता। मैं घबरा कर वहीं बैठ जाता हूं। नींद खुलती है तो देखता हूं धूप निकल आई है। मैं यूं ही छत को देखता रहता हूं। दीवाल पर टंगी घड़ी पर नजर जाती है-साढ़े छह बज चुके हैं। सेकेंड की सुई कदम-ब-कदम आगे बढ़ रही है। मुझे याद आता है, मुझको मार्निंग वॉक पर जाना है। आलस छोडक़र उठना होगा।

मेरे फ्लैट से थोड़ी दूर पर पार्क है। आधे-पौन घंटे में रोज वहां जाकर चार-पांच चञ्चकर लगाता हूं। अञ्चटूबर आ गया है हवा में उसके आने की गंध और खुनक महसूस होने लगी है। वाक-वे के किनारे फूलों की ञ्चयारियों में फूल खिल आए हैं। मैं अञ्चसर शाम को अपनी पोती को यहां घुमाने लाता हूं। शाम में पार्क में बच्चों, उनकी मक्विमयों और आयाओं की अच्छी जुटान होती है। सुबह ज्यादातर अधेड़ और बूढ़े लोग टहलने आते हैं। सुबह-शाम पार्क में लगी बेंचों पर कुछ बूढ़े, कुछ अधेड़ और कुछ नौजवान जोड़े भी बैठे दिखाई देते हैं।

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लगता है कुछ देर हो गई है। अहले सुबह वाले ज्यादातर बूढ़े लोग जा चुके हैं। अधेड़ और नौजवान लोगों की चहलकदमी चल रही है। कुछ लोग अभी आ रहे हैं। गौर से देखने पर मुझे लगता है कि उनके कपड़ों पर बार-कोड जैसे कुछ निशान बने हैं। जैसे आजकल अमूमन बाजार में बिकने वाले हर सामान पर दिखते हैं। पहली बार आज ऐसे कपड़े पहने लोग यहां दिखाई दे रहे हैं। अंदर आकर वे लोग आपस में बातें करते तेजी से आगे बढ़ गए हैं।

मैं गेट से अंदर आने के बाद बाईं ओर से टहलना शुरू करता हूं। इस ओर थोड़ी दूर पर एक फव्वारे का खूबसूरत-सा गोलंबर है। थके हुए बुजुर्ग लोग उस गोलंबर के मुंडेरे पर बैठकर सुस्ताया करते हैं। उसका झरना अब नहीं चलता। हौज भी हमेशा सूखा ही दीखता है। लेकिन उस ओर गुलाब के फूलों के साथ लगातार वाकवे के किनारे-किनारे कतारों में लगे हैं जिन पर कभी-कभी लाल-गुलाबी एकाध फूल जरूर दिखाई देते हैं। उधर पार्क का एक किनारा भी पड़ता है जिसके बाद कॉलोनी के मार्केट वाली लंबी सपाट दीवाल है जिस पर साबुन का एक विज्ञापन बना है जो अब काफी धुंधला पड़ चुका है। मैं भी किसी-किसी दिन ही उधर का एकाध चञ्चकर लगा लेता हूं।

बांईं ओर के गुलाब वाले गोलंबर के पास वाकवे के एक किनारे लगभग सात बजे एक व्हीलचेयर पर एक बूढ़े आदमी को उसका नौकर रोज लेकर आता है। उसकी वही जगह तय है, गोलंबर के पास वहीं वाकवे की दूसरी ओर घास वाले मैदान में। शाम में उस मैदान में अकसर कुछ लडक़े फुटबॉल खेलते हैं, हालांकि गेट पर ही नोटिस बोर्ड में इसकी सख्त मनाही की गई है। सुबह मैं जब तक चञ्चकर लगाता हूं, देखता हूं वह आदमी एक मोम के पुतले की तरह बैठा सब कुछ देखता रहता है। उसकी गर्दन एक ओर झुकी होती है। उसका नौकर भी चुपचाप वहीं बगल में खड़ा रहता है, उसी तरह कुर्सी थामे। कभी-कभी लगता है वे भी पार्क की सजावट का एक हिस्सा हैं। शाम में जरूर वह जगह खाली-खाली लगती है।

पार्क में टहलने वाले लोग उसी कालोनी के रहने वाले लोग होते हैं, हालांकि उनमें बहुत-सारे अपनी कारों  से ही वहां तक आते हैं। सभी अपने पहनावे और चालढाल से संपन्न वर्ग के लगते हैं। लड़कियां भी आज के फैशन वाली नीची कमर वाली जीन्स या केप्री और तंग कुर्तियां या इजारबंद वाले जैकेट पहने आती हैं। लडक़े ज्यादातर शॉर्टस या बरमुडा और स्लीवलेस टी-शर्ट पहले होते हैं। कभी-कभी तो लगता है किसी मॉल के ही कुछ मैनिकिन्स दुकानों से आजाद होकर निकल आए हैं। मैं यही सोचते-सोचते लाल सुर्खीवाले वॉकवे पर आगे बढ़ जाता हूं। लेकिन मुझे हैरत होती है जब एक लडक़े-लडक़ी का जोड़ा सामने से आता दिखाई देता है जिसमें लडक़े का सिर गायब है, और लडक़ी की दोनों बाहें नहीं है।

लडक़ें ने अपनी कमीज के ऊपर नए फैशन का जैकेट पहना हुआ है, जो सामने से आधे खुले हुए हैं, उसका चौड़ा सीना साफ झलक रहा है। गले में उसने एक नीला स्कार्फ बांधा हुआ है। लडक़ी ने भी बिना बांहों वाली सुरमई रंग की एक कसी हुई कुर्ती पहन रखी है जिसका गला भी काफी नीचे तक चौड़ा खुला हुआ है, जिससे उनके सीने का उभार भी झांक रहा है। मेरी आखें झिप जाती हैं। मेरे पांव जल्दी-जल्दी मुझे आगे ढकेलते हुए बढऩे लगते हैं। सामने से आ रहे एक बूढ़े आदमी की छड़ी से टकराते-टकराते मैं संभल जाता हूं। मेरा सर चकराने लगा है। थोड़ी दूर चलकर मैं बगल की एक खाली बेंच पर बैठ जाता हूं। फिर आगे पैरों को फैलाकर बदन को ढीला कर लेता हूं, आर आंखे खुद-ब-खुद बंद हो जाती हैं। थोड़ी देर उसी तरह बेसुध बैठा रहता हूं, आंखें बंद किए। सर का चकराना धीरे-धीरे कम हुआ है। आंखें बंद हैं, जैसे खुलना भूल गई हैं। सर में भी एक सन्नाटा पसर गया है- जैसे वञ्चत पर बर्फ की एक परत जम गई हो।

धीरे-धीरे बंद आंखों के परदे पर राशनी उभरती है। फिर स्लो मोशन में कुछ तस्वीरें मोंताज की तरह बनती मिटती महसूस होती है। इस बीच लगता है, मेरी आंखें बिना मेरी कोशिश के न जाने कब अपने-आप खुल गईं। हालांकि मेरी देह अब भी वैसी ही निढाल है, बेंच पर उसी तरह लेटी हुई। उसमें कहीं कोई जुंबिश, कोई हरकत नहीं हो रही। जो तस्वीरें मेरी बंद आंखों के परदे पर बन-मिट रही थीं, वैसी ही मुझे खुली आंखों से दिखाई दे रही थीं। तभी मैं देखता हूं वह जोड़ा वहीं उसी तरह हंसते-बाते करते मेरी ओर बढ़ा आ रहा है। पसीने की बड़ी-बड़ी बूंदें उनके चेहरे पर झलक रही हैं। शायद अब यह उन का अंतिम चञ्चक र है, ञ्चयोंकि तुरंत ही वे बगल के छोटे गेट की तरह मुड़ गए जिधर से उनको बाहर निकलना है। मेरी आंखें कुछ देर उन्हीं पर जमी रही हैं जब तक वे बाहर निकल नहीं गए । गेट का पल्ला भी उनके जाने के बाद कुछ देर तक यों ही झूलता रह। 

मैं एक आखिरी चञ्चकर लगाने के लिए धीरे-धीरे उठकर ओस-भीगी घास पर चलते हुए वॉकवे पर आ जाता हूं। घास पर ओस की बूंदे धूप में चमकने लगी हैं। टहलने वालों में अब और भी नए-नए लोग नजर आ रहे हैं, जो आदतन देर से आते हैं। छोटी-छोटी टोलियों में जोर-जोर से बातें करते और ठहाके लगाते तेज कदम चल रहे हैं, ञ्चयोंकि फिर दक्रतर का समय भी तो हो रहा है। मैं फिर देखता हूं इन देर से आने वालों की पीठ पर भी बार कोड जैसी मोटी-पतली-बारीक बनी हैं। लेकिन इस बार उनके कपड़ों पर छपे बार कोड के नीचे कुछ अंक भी दिख रहे हैं। गौर से देखता हूं तो उनमें कुछ तारीखें नजर आती हैं। मैं समझ नहीं पाता इनमें से कई ने ऐसे कपड़े ञ्चयों पहन रखे हैं। ज्यादातर तो इनमें अधेड़ लोग ही हैं, लेकिन आजकल इस उम्र के लोग भी नए-नए फैशन के कपड़े पहनने लगे हैं।

मेरा आखिरी चञ्चकर अब पूरा होने वाला है। लेकिन मैं सोचने लगता हूं कि आज पहली बार ऐसे बहुत सारे लोग ऐसे कपड़ों में टहलने कहां से आ गए। इनमें से ज्यादातर तो जाने-पहचाने लोग हैं। सब इसी कालोनी के। चलते-चलते मैं गेट के पास पहुंच जाता हूं और इन बहुत सारे उलट-पलट सवालों में उलझा अनमना-सा अपने क्रलैट की ओर बढ़ जाता हूं। सुबह की दवा लेने का वञ्चत हो गया है। बल्कि कुछ देर हो गई है।

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TAGS: मंगलमूर्ति, कहानी, बार कोड
OUTLOOK 28 March, 2015
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