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30 January 2016

कहानी - मनुष्य की भाषा राक्षसों के बीच

माधव जोशी

दफ्तर आलीशान था।

एकदम साफ सुथरा। चमकदार।

बड़ी बिल्डिंग का वह पूरा तल्ला विदेशी संस्थान ने किराए पर लिया हुआ था। जैसा अमूमन माना ही जाता है कि अमेरिका प्रेरणा से उपजे संस्थान मालदार होते हैं। उनके रख-रखाव और साफ-सुथरेपन से यही झलकता था। वह एशिया में सामाजिक स्तर के अन्याय का अध्ययन करने वाली संस्था थी। सरकारी नियमों के अनुसार ही वह खोली गई होगी। इसका अर्थ है कि अपने काम की आजादी उसे सरकारी अनुमति से मिली ही हुई है। बुद्धिजीवियों के गलियारों में ऐसे पारदर्शी संस्थानों की काफी चर्चा थी।

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परंतु...इधर कुछ दिनों से स्वैच्छिक संस्थाओं के प्रति बदली निगाहों ने अफवाहों का बाजार गरम कर दिया था। जिससे उनमें काम करने वालों के दिलों में असुरक्षा का भाव जागने लगा था।

इसे महज संयोग ही मानिए कि मैं भी एक ऐसी संस्था से जुड़ा हूं जो मुझसे सुरक्षा मामलों के परामर्श के मामले सौंपती है और मैं अपनी तकनीकी विशेषता के मुताबिक लोगों की सुरक्षा उपकरणों के इस्तेमाल की वैज्ञानिक जानकारी देता हूं।

अब एक सुरक्षा परामर्शक के जीवन से आप परिचित हों तो कह सकते कि साहब इस धंधे में मजे ही मजे हैं। और सच जानिए तो इसमें तनिक भी झूठ नहीं है। अब देखिए तो मैं अन्याय का अध्ययन करने वाली संस्था की सबसे बड़ी अफसर यानी प्रशासिका जी से ही तय समय पर मिलने जा रहा हूं। वे खुद आजकल अपने निजी मामलों में असुरक्षित हैं। और सच मानें तो इस दौर में असुरक्षा बहुत बढ़ आई है। राष्ट्रों के बीच भी अविश्वास के कारण असुरक्षा बढ़ आई है। आतंक ने हमारे सामाजिक  जीवन को बुरी तरह से असुरक्षित किया हुआ है।

प्रशासिका जी मेरी पुरानी परिचित हैं।

उनकी समस्या का थोड़ा परिचय आपको दे दूं। आजकल वे अपने छोटे बेटे की वजह से परेशान हैं। परेशान तो वे अपने विवाह के बाद से ही रहती थीं। तब भी मैंने परामर्श दिया था। और वे खुश थीं कि उन्हें अपनी जेब से पैसा नहीं देना पड़ता था। इससे भी पहले जब वे अपना एमबीए कर रही थी उन्हें एक टेलीविजन कार्यक्रम से एक बाबा जी का पता चला था। टेलीविजन कंपनी ने तगड़ी फीस झटक कर उन्हें बाबा जी का शुभाशीष दिलवा दिया था तो वे जल्दी ही प्लेसमेंट प्रक्रिया से इस मलाईदार संस्थान में जूनियर प्रशासिका नियुक्ति हो गई थीं फिर वे अपने काम के गुणों के कारण तरक्की की सीढिय़ां चढ़ती गईं। पर झंझट तब हुई जब उन्हें पता चला कि उनके पति किसी दूसरे से भी मिलते हैं और इसी सिलसिले में उनकी इंश्योरेंस कंपनी ने हम लोगों से संबंध स्थापित किए और मैंने उन्हें अपने पति की जासूसी का परामर्श दिया।

इस बार की मेरी फीस इंश्योरेंस कंपनी ने दी थी। और इंश्योरेंस कंपनी सामान्य जीवन बीमा का प्रीमियम उनकी कंपनी से वसूल करती थी। यह ब्यौरा इसलिए देना जरूरी है कि अब जब हम स्मार्ट सिटीज के नागरिक बनेंगे तब हमें हर वक्त अपना पर्स नहीं खोलना पड़ेगा। बस इसी कारण लोग अब भविष्य को मौज मजे का कालखंड समझते हैं और मेरे जैसे लोगों के जीवन को आनंद का जीवन मानते हैं। और ऐसा मानना ठीक भी है। आखिर पैसा ज्यादा हो तो क्यों न उनका व्यवस्थित इस्तेमाल हो। अब प्रशासिका जी को ही लें उनके घर में चार नौकर हैं जो हर छह घंटे बाद काम पर आ जाते हैं और छह घंटे की पारी पाकर काम करने वाले भी खुश हैं।

पर इस खुशी में रंग भंग का एक कारण लोकल गुंडों ने पैदा कर डाला है। मैं उन्हीं प्रशासिका के दफ्तर जा रहा था कि रास्ते में मेरे ड्राइवर को फोन आ गया। उसने गाड़ी किनारे लगाई। कहा, 'सर जी घर का जरूरी फोन एटेंड कर लूं।’

'करो...करो। पर याद रखो मुझे मैडम के दफ्तर समय से पहुंचा देना।’

'फिक्र न करें सर,’ वह बोला और अपनी बोली में फोन करने लगा। मेरे लिए उसकी बोली ऐसी ही है जैसे किसी पहाड़ी छोरे के लिए अंग्रेजी।

वह जल्दी ही टेलीफोन से मुक्त हुआ और उसने गाड़ी रफ्तार में दौड़ानी शुरू कर दी।

'किसका फोन था?’

'मेरे बेकार बेटे का फोन था सर। वह दिमाग से फिर गया है। कह रहा था...’ अचानक ही आगे की गाड़ी झटके के साथ रुकी तो उसने भी गाड़ी एकदम रोक दी। बस रफ्तार के बीच के ये झटके ही परेशान करते हैं।

'फिर क्या हुआ?’ मेरे मन में सवाल था कि तभी मेरा फोन भी घनघनाया और मैं टेलीफोन पर बिजी हो गया। पर ड्राइवर बड़बड़ाता जा रहा था। जब लंका सोने की बनेगी तो राक्षसों की भाषा पनपेगी पर मैं अपनी अगली टेलीफोन कॉल्स पर व्यस्त हो गया।

असल में हम सब लोग व्यस्तता के दौर के नागरिक हैं और हमें अपनी सुरक्षा के मामले में सजग रहना ही चाहिए वरना कब कौन लूट जाए-इसका क्या पता। आपको दक्षिण अफ्रीका के एक शहर में मेरे दोस्त को मिले अनुभव के बारे में बताऊं तो यही कहना पड़ेगा कि अगर इस वक्त रहते सचेत न हुए तो लूटने वाले हमें अचेत किए बिना न मानेंगे। मेरे दोस्त दक्षिण अफ्रीका के स्मार्ट सिटी में गए तो अवाक रह गए। एक ही जगह पर सब चीजें मुहैय्या। यानी आपके बेडरूम के ऊपर ही आपका स्वीमिंग पूल और तो और पांच तल्ले नीचे उतर जाइए तो हर चीज उपलब्ध रखने वाला साल जिसे उनके उच्चारण में मौल कहेंगे। और वहीं हाई स्पीड की कारें, थोड़ी ही दूर पर एयरपोर्ट और तेज रक्रतार रेल गाडिय़ां...क्या क्या चीजे नहीं थीं। पुराने शास्त्रों में स्वर्ग में जो कुछ भी सोचा जा सकता था वह यहां था। अरे पैसे ही तो खर्च होते हैं-तो कमाओ पैसे...अब देखो न जिस प्रशासिका की सुरक्षा का आज ही मुझे परामर्श देना है उन्हें यह भी पता नहीं कि उनकी पगार कितनी है? अरे भाई पांच साल पहले संस्थान ने उनकी पगार का एक अनुबंध किया था तो तब उन्हें पचहत्तर लाख का पैकेज दिया  गया था। संस्थान अपने अंतरराष्ट्रीय अध्ययन से ज्यादा कमाने लगता है तो तमाम काम करने वालों को बोनस मिलता। वह दक्षिण अफ्रीका की बात भूल ही गया था, वहां लूटने का भी धंधा है। लूट सको तो लूट... साधारण नागरिक कुछ नहीं कर सकता। सब जगह ऐसा ही है न...

विचित्र बात थी कि अब ज्यादातर लोग अपने बीमे में मानसिक क्षुब्धता के बहाने सुरक्षा परामर्श को प्राथमिकता दे रहे थे। मैं खुद इस बात से हैरान था।

दफ्तर पहुंचते ही निचले तल्ले के दरबान ने मुझसे मुस्करा कर बातचीत की और बताया संस्थान की मैडम ने आपको जल्दी उन तक पहुंचाने की हिदायत दी थी।

साफ-सुथरे दफ्तर के सिनियर प्रशासक के सेक्रेटरी, मातहत लोग अपने-अपने कामों में जुटे हुए थे। माहौल एकदम खुशनुमा था।

प्रशासिका अपने कक्ष के बाहर आकर मुझे अंदर लिवा ले गई थी।

'बहुत अर्जेंट निदान देने हैं आपको। समझे न ऐसे साल्यूशन कि...’

'आप जरा भी फिक्र न करें।’ मैंने बात शुरू करने से पहले अपने ब्रीफकेस से उनका मामला निकाल लिया। 'क्या आपने सीसीटीवी कैमरे फिट कर दिए हैं?’

'किए तो थे। पर लगता है कैमरों से मेरे बेटे ने छेड़छाड़ की है। अब उसे कैसे रोकूं?’

'यह तो आपको ही करना है,’ मैंने समझाया, 'हमारे करारनामे की शर्तों के मुताबिक मेरा काम तो आपको परामर्श देना है।’

'देखिए न मैं आपकी क्लाइंट हूं तो कल और लोग भी अपनी सुरक्षा के लिए आपके पास आएंगे।’

'वो तो ठीक है। मैं आप लोगों का शुक्रिया अदा करता हूं।’

'मुझे तो डर इस बात का है कि कल कोई उसे उठा ले गया तो क्या होगा। आजकल उठाने वाले फौरन हत्या कर डालते हैं। मैं तो इस डर से ठीक से सो भी नहीं पाती।’

तभी बाहर दफ्तर में एक शोर सा उठा। किसी चपरासी का बच्चा बोरवेल में गिर गया था। उसी की वीडियो तस्वीरें सारे चैनल्स रही थीं।

बिना अनुमति लिए एक कर्मचारी ने प्रशासिका को खबर दी और स्थानीय पुलिस को खबर करने के लिए कहा क्योंकि जहां बच्चा गिरा था वह जगह गांव से कुछ मील दूर थी। ऐसा न हो कि कोई उसे वहां तक उठा ले गया हो।

'अरे! गांव में भी यह होने लगा।’ प्रशासिका भी बदहवास सी हो गई। ए मेरे भगवान यह क्या हो रहा है? और क्या कहा गांव घर से कुछ मील दूर। टीआरपी बढ़ाने के लिए कोई भी कुछ अपराध कर सकता है।’

'यह एकदम सुरक्षा का मामला है।’ परामर्शक ने सुझाव दिया और अपने टेलीफोन के स्क्रीन पर खबरिया चैनल उतारने लगा। प्रशासिका सकते में थीं।

'जाओ उसने अपने मातहत को हुक्म दिया, उस कर्मचारी की तुरंत सहायता करो। मैं खुद कमिश्नर को फोन करती हूं।’

'अरे हां... हर बोरवेल के पास एक सीसीटीवी फिट होना चाहिए।’ परामर्शक फिर बोला।

परंतु अब शोर में कुछ ठीक से सुनाई नहीं दे रहा था। बीसियों टेलीफोनों के स्क्रीनों पर हर खबरिया चैनल सवार था।

'यह सब सुरक्षा से संबंधित मामला है,’ परामर्शक की आवाज दूसरी आवाजों के बीच दब गई थी। प्रशासिका अपने बेटे का चेहरा याद कर रही थीं। सुबह तो स्कूल जाते हुए उसने भोलेपन से कहा था, 'टीचर कहती हैं कि मोटर गाड़ियों के धुंए से भी बच्चे बीमार हो जाते हैं तो कारखाने बनाते क्यों हैं भला। मोटर गाडिय़ां बच्चों को मारने के लिए...’  और प्रशासिका सकते में थी। बच्चे ने मासूमियत से कहा था बच्चे बनाने भी तो बंद करो अगर उन्हें मारना ही है...।

प्रशासिका अपने बच्चे की भाषा नहीं समझ पाई थी। अब सोच रही थी दुनिया भी सही भाषा को नहीं समझ रही...मां को महसूस हुआ कि राक्षसों के बीच मनुष्य की भाषा समझने वाला कोई नहीं...दूर दूर तक। सदियों तक। 

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OUTLOOK 30 January, 2016
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