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23 May 2016

कहानी - बेआवाज टूटती हैं कोंपलें

माधव जोशी

इसे सहानुभूति कहें या अनकहा लगाव या इंसानियत का फर्ज, पर मयंक अपनी बौद्धिक चेतना से नेहा को प्रभावित करता था। 'नामी संस्थान से बीटेक, एमबीए लड़कों को भी आजकल कायदे की नौकरी नहीं मिलती, यह कितनी बड़ी समस्या है मगर कोई हमारी तकलीफ समझना नहीं चाहता,’ मयंक, नेहा से बातें करता रहता है। वह बताता है, 'मां कहती है, नौकरी लग गई सो अब उसे अपनी बहन और मां-बाप की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। मां की अपेक्षाओं के हवाई किले इतने भारी हैं कि सुनकर रूह कांप जाती है’ नेहा हमेशा मयंक के बारे में सोचती रहती है। एक दिन देर रात नेहा का फोन बज उठा। मयंक का नाम देखकर नेहा ने तुरंत फोन उठा लिया, क्या पता कोई जरूरी बात हो। 

'हां, बोलो क्या हुआ? इतना घबरा क्यों रहे हो?’ नेहा ने लगाव से पूछा।

'मैम, इस कंपनी से जी उकता गया है। बहुत दबाव में ज्यादा दिन जी नहीं पाऊंगा। कभी-कभी मन करता है आत्महत्या कर लूं। दिन-रात टारगेट की डेडलाइन याद कर मन बुझ जाता है। कुछ भी करने का मन नहीं करता। सॉरी मैम पर क्या करूं। सच बताऊं, जीने की इच्छा मरने लगी है। अकसर बुरे खयाल परेशान करते हैं। करूं तो क्या करूं मैम? प्लीज हैल्प मी। आपसे मिलना चाहता हूं। मुमकिन हो तो जल्द से जल्द। प्लीज कम मैम,’ कहते हुए वह फोन पर ही रोने लगा। उफ्फ, कितना संवेदनशील है यह। रह-रहकर उसे सुंदर से हैंडसम मयंक का मासूम चेहरा याद आने लगा। जब आया था तो कितना जोशीला, फुर्तीला, ऊर्जा से भरा था। कुछ ही महीनों में कितना बुझा-बुझा-सा लगने लगा है। एकाध-दो मौकों पर उसने पूछने की कोशिश की पर 'ऐसे ही मैम। बिलकुल ठीक हूं’ कहकर वह टाल गया।

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उसकी बातें सुनकर डर लगने लगा नेहा को। कहीं वह सचमुच कुछ गड़बड़ न कर बैठे। अभी पिछले हफ्ते किसी कंपनी के लड़के ने काम के दबाव में बालकनी से कूदकर आत्महत्या कर ली थी। अखबार में आया था कि वह लड़का महीनों से सोया नहीं था और डिप्रेशन में चला गया। भागमभाग वाली जिंदगी में उसकी तरफ किसी को देखने की फुरसत ही नहीं थी।

'मैम, आई नीड योर हैल्प, प्लीज डू कम। आई एम टू लोनली, आई फील टू नर्वस,’ उसकी कांपती आवाज में कातरता भरी गुजारिश थी। 'हां, बोलो न क्या बात है?’ नेहा ने सावधानी भरे स्नेहिल अंदाज में पूछा। 

'बहुत घबराहट हो रही है मैम। नींद नहीं आ रही।’ नेहा को समझ ही नहीं आया कि अचानक वह इस वक्त क्या करे। इतनी रात किससे इस मसले पर मदद मांगे। कुछ देर सोचकर बोली, 'धीरज रखो। मैं आ रही हूं। किसी बात की चिंता मत करो। मैं हूं न,’ उसने हर शब्द नाप-तौल कर कहा। नेहा ने अपनी एक जूनियर को नींद से उठाया और कार निकालकर उसी समय उससे मिलने चल दी।

'मयंक, बाहर आओ। मैं नीचे गाड़ी में हूं,’ मयंक के घर पहुंच कर नेहा ने फोन किया। मयंक हड़बड़ाता-सा नीचे उतरा। उतरा हुआ चेहरा, लाल आंखें। मयंक के आते ही उसने सबसे पहले उसे प्यार और आत्मीयता से गले लगाया। फिर देर तक बहुत से तर्क और दूसरे सहकर्मियों के उदाहरण दे कर समझाती रही। नेहा ने बहुत प्यार से कहा, 'सुनो, दफ्तर केवल नौकरी है जो तुम्हें कहीं भी मिल सकती है। नौकरी तो कभी भी बदली जा सकती है न। कभी भी बदल लो। पिछले महीने का किस्सा सुनाती हूं, मेरी दोस्त संजना एक नामी कंपनी में बड़े पद पर थी। उसने 15 लाख रुपये के पैकेज से लकदक कॅरिअर छोड़कर एक कंसल्टेंसी फर्म के सीधी सादी नौकरी के साथ संतोष कर लिया। पता है क्यों ? वही जानलेवा टेंशन। हर बार उसी से उम्मीद की जाती थी कि वह कंपनी का रेवेन्यू बढ़ाए। दफ्तर की पूरी प्रक्रिया इतनी समय खाऊ, उलझाऊ और नीरस थी कि उसके पास क्लाइंट्स से बात करने का समय ही नहीं बचता था। फिर वह लोगों से पैसा मांगने कब जाती। जबकि उसकी कंपनी क्लाइंट्स के हितों को सबसे ऊपर रखने का दावा करती थी। लेकिन इस बात पर किसी ने तवज्जो नहीं दी। सब कुछ नकली, झूठा और विज्ञापनबाजी से चलता गोरखधंधा था वहां।’

'बिल्कुल यही सब तो मेरे साथ होता है मैम। दफ्तर की मीटिंग्स में शामिल होने, कागजी कार्रवाई पूरी करने तमाम तरह की रिपोर्ट बनाने और ईमेल पर जवाब देने में ही दिन भर निकल जाता है। फिर क्लाइंट्स के साथ मीटिंग कब करें? पिछली कंपनी में 15 घंटे से ज्यादा तक काम करना पड़ता था।’ ‘अरे ऐसा तो होता ही है। मेरी उसी दोस्त को अकसर क्लाइंट्स से मिलने मुंबई से बहुत दूर बसे उपनगरीय इलाकों में जाना पड़ता था। ऊपर से उससे यह उम्मीद की जाती कि वह उसी दिन अपनी रिपोर्ट भी फाइल कर दे। जो कि नामुमकिन था।’ 

बात को पूरा सुने बगैर ही मयंक बीच में बोल पड़ा, 'नेहा मैम, मैं पक गया हूं पिछले और इस नए जॉब से। दफ्तर में किसी से बात भी कर लो तो बॉस तुरंत टोक देगा, बातचीत लंच टाइम में किया करो। और ऊपर से कभी-कभी परिवार भी सहयोग नहीं करता। आज जिस स्टेज पर हम खड़े हैं या होने की कोशिश कर रहे हैं वहां परिवार का भी सहयोग चाहिए। मगर उलटा वे हमसे सहयोग मांगते हैं। मैम, मैं किस-किस को क्या-क्या बताऊं। कहां कहता फिरूं कि मेरी तनख्वाह कट-कटाकर 20 से 25 हजार तक सिमट जाती है। इसी में रहने-खाने का खर्चा चलाना है। बचत का सवाल ही नहीं। घर से दफ्तर आने-जाने का ही खर्च बहुत ज्यादा है। दफ्तर के काम से 10 जगह की भागदौड़ करने का खर्च अलग। शहर में दूरियां इतनी हैं कि क्या बताएं। कॅरिअर की खातिर मेरी गर्लफ्रेंड मुझे छोडक़र चली गई। उसे एक प्रमोशन भी मिल गया है मैम। उस पर परिवार की कोई जिम्मेदारी या दबाव नहीं है। हर जगह आती-जाती है। कई संपर्क हैं उसके। लिंक होंगे तभी तो विदेश भी गई। वरना यूं कोई किसी को विदेश नहीं भेज देता। क्या मैं गलत हूं मैम?’

‘फिलहाल यह सब सोचना बंद करो। हम कल शांत चित्त से इस विषय पर बात करेंगे। ठीक है।’ 

‘ओके मैम। आप बहुत अच्छी हैं। सभी का बहुत ध्यान रखती हैं। मैं हमेशा आपका आभारी रहूंगा,’ कहते हुए मयंक ने हाथ जोड़ लिए।

‘तो जो मैं कहूंगी वह सब करने के लिए तैयार हो?’

‘यस मैम,’ मयंक ने बच्चों की सी चपलता से कहा।’

'वादा?’

‘यस मैम,’ मयंक खिलखिला दिया। 

‘तुम होशियार और काम के प्रति ईमानदार हो। मैं जानती हूं। खुद में यकीन रखो। और फिर मैं तो हूं ही न। किसी भी समस्या पर मुझसे बात कर सकते हो। बातचीत करते रहोगे तो कभी परेशानी नहीं होगी। ठीक है।’ नेहा की बातें सुनते हुए उसके साथ आई जूनियर अभिभूत हो कर उसे देख रही थी। उसकी आंखों में था, ‘मैम सब आपकी तरह हो जाएं तो हम जैसे नए बच्चों की आधी समस्याएं खुद ब खुद दूर हो जाएं।’ नेहा जाने के लिए खड़ी हुई और जाते-जाते दवा की एक गोली उसकी हथेली में पकड़ाते हुए बोली, ‘इसे गटको और सो जाओ। सुबह मिलते हैं, तैयार रहना। दफ्तर के लिए साथ में निकलेंगे। दवा जरूर ले लेना। अब चलती हूं। गुडनाइट।’ कहते हुए नेहा ने आश्वस्ति से मयंक को गले लगा लिया। ‘मैं हूं न। चिंता की कोई बात नहीं। सब ठीक होगा। बस खुद से प्यार करना सीखो। जान है तो जहान है।’

'थैंक्स मैम, थैंक्स ए लॉट।’ मयंक के भीगे से बोल हवा में तैरते रहे।

नेहा ने कार का स्टीरियो ऑन कर दिया था। रास्ते में वह सोचती जा रही थी, कॉरपोरेट की ये नौकरियां कितनी भयानक होती जा रही हैं। पता नहीं मयंक जैसे कितने लड़के इन कंपनियों में गुम जाते हैं। और उनके मैनेजर कितने कठोर लहजे में इन नए लड़कों से बात करते हैं। सबको एक लकड़ी से हांकना ठीक नहीं। इनमें से कई काबिल, होनहार और अतिसंवेदनशील बच्चे होते हैं। कहीं आज मयंक कुछ कर बैठता तो? कंपनी के नाम कच्चा चिठ्ठा लिखकर मर जाता तो? यह कड़वी हकीकत है कि मोटी कमाई वाली नौकरी छोड़ना आर्थिक असुरक्षा के कुएं में जाना है पर यह भी सच है कि जब तक कोई जोखिम नहीं उठाता तब तक बड़ा काम नहीं कर सकता। सही वक्त पर सही फैसला लेने के लिए कलेजा भी बड़ा चाहिए। आखिर नौकरी छोड़ना और उससे बेहतर नई कंपनी पाना आसान भी तो नहीं है। पतझड़ में कुदरती तौर पर पुराने पत्ते झरते हैं, मगर कोंपलों से जमीन भर जाए इससे तकलीफदेह और क्या हो सकता है। हमें इन असमय झरती कोंपलों को हर हाल में गिरने से बचाना होगा। एचआरडी मैनेजर नेहा ने जैसे मन ही मन कोई संकल्प लिया। बगल की सीट पर बैठी उसकी जूनियर सीट से टिक कर सो गई थी। उसके चेहरे पर सुकून और आश्वस्ति के भाव थे। नेहा ने उसके पुरसुकून चेहरे पर नजर डाली और तय किया, घर से दूर जानलेवा तनाव में घिरे अपने किसी भी साथी की देखभाल करना सामूहिक जिम्मेदारी है। आने वाले समय में वह कंपनी ट्रेनिंग में एक सत्र युवाओं में बढ़ती हताशा पर रखवाएगी। खाली सड़क पर दौड़ती हुई गाड़ी में गाना बज रहा था, अपने लिए जिए तो क्या जिए तू जी ए दिल जमाने के लिए।

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OUTLOOK 23 May, 2016
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