कहानी: हिंदी पखवाड़े में लोकभाषा हितैषी
एक थे राजा मंथरमति। एक बार उन्हें एक रिपोर्ट के बारे में जानकारी मिली, जिसमें लिखा था कि भारत की अनेक लोकभाषाएं विलुप्त होने की कगार पर हैं। चूंकि भाषा एक क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान होती है, इसलिए भाषा के साथ-साथ उसकी सांस्कृतिक पहचान पर भी खतरा रहता है। इससे राजा साहब चिंता में पड़ गए। उन्हें लोकभाषा का यह संकट अपनी पहचान का संकट दिखा। अब तक उन्हें लगता था कि अंग्रेज बहादुर की बुलाई मीटिंग में उनका खास किस्म की अचकन और पगड़ी पहनना ही उनके राज्य की सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के लिए काफी है। पर रिपोर्ट को जानने के बाद (पढ़ने के बाद नहीं) उन्हें लगा कि संस्कृति की रक्षा के लिए लोकभाषा को बचाना जरूरी है। सो उन्होंने इस दिशा में प्रयास शुरू किए।
सबसे पहले उन्होंने विचार किया कि उनके राज्य की अपनी एक राजभाषा होनी चाहिए। इस बारे में उन्होंने अपने मंत्री वक्रबुद्धि से चर्चा की, जिन्होंने उनसे असहमत होने के बावजूद भी हमेशा की तरह सहमति जताई। तय हुआ कि इस बारे में मंत्रणा करने के लिये लोकभाषा के विद्वानों को बुलाया जाए। जनता की भाषा अपनाने के लिए जनता के विचार जानने जरूरी हैं।
नियत दिवस पर सात विद्वान दरबार में उपस्थित हुये। राजा साहब ने गौर किया कि उनमें से तीन विद्वानों की भेषभूषा बाकी चार से अलग है और वो उन चारों से दूरी बनाकर बैठे हैं। उनके चेहरे पर साफ लिखा था, ‘ये यहां क्या करने आ गये !’ राजा मंथरमति ने इशारों में वक्रबुद्धि से पूछा, ‘ये माजरा क्या है?” वक्रबुद्धि ने भी इशारों में अनभिज्ञता जताई। राजा साहब ने इशारों में उनसे बात करने को कहा और वो अपने आसन से खड़े हुये। सामान्य शिष्टाचार के सवाल-जवाब के बाद उन्होंने पूछा,“ हे विद्वानों, हमारे मन में आपकी भेषभूषा की विभिन्नता को देखकर जिज्ञासा उठ रही है, कृपया कर उसका निराकरण कीजिये।”
“हे मंत्रिश्रेष्ठ, हम आपके राज्य के ‘अ’ क्षेत्र से आये है। चूंकि यह भेषभूषा हमारी सांस्कृतिक पहचान हैं, इसलिये यह ‘ब’ क्षेत्र की भेषभूषा से भिन्न है।”
“और हम चारों ‘ब’ क्षेत्र से आये है, जहां ‘ब’ भाषा बोली जाती है, और यह ‘अ’ भाषा से भिन्न है।”
“तो आप यह कहना चाहते हैं कि आपकी भाषा, भेषभूषा और संस्कृति एक-दूसरे से अलग है ?”
“जी हां, बहुत अलग।”
मंत्री से राजा को देखा, राजा ने मंत्री को। वो भी हैरान से थे। ‘हमारा पूरा राज्य तो कुल तीस किलोमीटर पर खत्म हो जाता है, उसमें भी दो संस्कृतियां, दो भाषायें!’
“पर हमें तो आज तक मालूम ही नहीं था कि हमारे राज्य में दो किस्म की संस्कृतियां बसती हैं। हमें तो दोनों एक समान लगती हैं।”
“नहीं महाराज ऐसा नहीं हैं। दोनों एक दूसरे से काफी अलग हैं। अब आप हमारे लोकनृत्यों को ही ले लीजिये। ‘ब’ क्षेत्र में नृत्य करते हुये तीन कदम आगे और दो कदम पीछे रखे जाते हैं, जबकि हमारे यहां चार कदम आगे और तीन कदम पीछे।”
“अरे, पर बात तो वही हुई न ! कुल मिलाकर दोनों एक कदम ही तो आगे बढ़े।”
“अंतर सिर्फ यही नहीं है महाराज। बाहर से देखने पर दोनों संस्कृतियां चाहे एक सी दिखें, पर भीतर से देखने पर आपको ये अलग दिखेंगीं। जैसे हमारे यहां त्योहारों में पकौड़े पीली सरसों में बनाये जाते हैं, तो उनके यहां काली सरसों में। अब चाहे बाहर वाले को दोनों सरसों दिखें, पर हम तो जानते हैं कि काली सरसों पीली सरसों से अलग है।”
इसके बाद विद्वानो ने उन्हें विस्तार में बताया कि किस प्रकार संस्कृति की तरह उनकी भाषायें भी अलग है। उनके तर्क सुनकर राजा मंथरमति परेशान हो गये। ये तो दिक्कत हो गयी। अब राजभाषा का क्या होगा ? जब ‘अ’ और ‘ब’ भाषा के आंतरिक मतभेदों की बातें उनके सिर के ऊपर से गुजरने लगीं, वो उन्होंने तय किया कि मामले को वक्रबुद्धि के भरोसे छोड़कर थोड़ा आराम किया जाये। वो काफी मानसिक श्रम कर चुके थे, अब आराम जरूरी था। वक्रबुद्धि मानो इसी पल की प्रतीक्षा में थे। वो जानते थे कि ज्यादा दिमागी मेहनत राजा साहब के बस की नहीं हैं। वो जल्दी थक जाते हैं। थकने वाली यह स्थिति हमेशा वक्रबुद्धि के अनुकूल रही। ऐसे में वो जो भी फैसला करते, राजा साहब को मंजूर होता। और मंजूर न होता तो वक्रबुद्धि उन्हें तब तक थकाते, जब तक वो मंजूर न कर लें। वक्रबुद्धि एक ठेठ नौकरशाह थे। वो राजा और प्रजा दोनों को थकाकर अपना काम निकलवाने में माहिर थे।
राजा साहब के जाने के बाद जब विद्वानों ने वक्रबुद्धि को समझाना शुरू किया, तो उन्होंने एक के बाद एक कई बेतुके सवाल किये। आखिर थकाना जो था। थोड़ी देर में ही वो लोग खीजने लगे, “मंत्री महोदय, अगर आप मामले की बारीकी को पकड़ नहीं पा रहे हैं, तो ये हमारी गलती नहीं हैं। आप एक बात अच्छे से समझ लीजिये - जब रोज-रोज एक दूसरे के साथ रहना हो, तो छोटे दिखने वाले अंतर भी बड़ी खाई पैदा करते हैं। इसलिये चाहे बाहर से दोनों भाषायें एक लगें, पर वो एक दूसरे से भिन्न हैं और रहेंगी।”
मंत्री वक्रबुद्धि को समझ आ गया कि भाषा और संस्कृति का सवाल इसके जज्बाती जानकारों द्वारा नहीं, बल्कि उन जैसे सयाने नौकरशाहों द्वारा ही हल हो सकता है।
उन्होंने फिर वही सवाल किया, “बाकी तो सब ठीक है, पर ये बताइये, राजभाषा किसे बनाया जाये- ‘अ’ को या ‘ब’ को ?” उनका इतना कहना था कि सब लोग बिलबिला उठे। मौका भाँपकर मंत्री जी ने सभा समाप्त की और उन्हें अगले दिन आने का कहा।
शाम को राजा साहब को मिर्च-मसाला लगाकर किस्सा सुनाया गया और समझाया गया कि वो इन दोनों से जो भी भाषा चुनेंगे, उसे दूसरे इलाके के लोग खुद पर थोपा हुआ मानेंगे।
“क्या एक इलाके के लोगों को खुश करने के लिए बाकी को नाराज करना उचित रहेगा ?”
“अब क्या करें?” राजा साहब ने पूछा। और हमेशा की तरह हल वक्रबुद्धि ने निकाला। उन्होंने राजा साहब को समझाया कि भाषा थोपने के मामले में जल्दबाजी करना उचित नहीं है। इससे एक क्षेत्र के लोग खुद को दूसरे से श्रेष्ठ मानने लगेंगे, जो राज्य की एकता के लिये घातक होगा। दूसरा यह कि इनमें से जिस भाषा को भी राजभाषा बनाया जाएगा, वो राजा साहब को भी सीखनी पड़ेगी। इससे अच्छा तो यह रहेगा कि वो उस समय का सदुपयोग अपनी अंग्रेजी मजबूत करने में लगायें। जब वो एक्सेंट मारकर अंग्रेज़ बहादुर से बात करेंगे तो इम्प्रैशन अच्छा पड़ेगा। लगे हाथ दरबार के उच्च पदाधिकारी भी अपनी अंग्रेजी ठीक कर लेंगे, ताकि अंग्रेज़ बहादुर के साथ पत्राचार बढ़िया अंग्रेजी में हो सके। इससे राज्य के सम्मान में भी वृद्धि होगी।”
“तो क्या अब हम अंग्रेज़ी को राजभाषा बनायेंगे ?”
“नहीं महाराज, हमारे दरबार के निचले कर्मचारी अंग्रेज़ी नहीं जानते हैं; सिखाने की जरूरत भी नहीं है। वो अपना काम हिन्दी में काम करेंगे और हम अंग्रेजी में।”
राजा साहब को प्रस्ताव पसंद आ गया। तय हुआ कि राज्य की भाषा हिन्दी व अंग्रेजी होगी।
“परंतु लोकभाषा का भी तो कुछ किया जाना चाहिये। आखिरकार हमारी संस्कृति का सवाल है।” राजा मंथरमति का मन अब भी रिपोर्ट पर अटका हुआ था।
“उसका भी हल है महाराज। हिन्दी-अंग्रेजी की यह व्यवस्था अस्थाई होगी और सिर्फ तब तक कायम रहेगी, जब तक विद्वान लोग यह तय नहीं कर लेते कि किसे राजभाषा बनाया जाये। जैसे ही सर्वसम्मत हल निकल आयेगा, यह व्यवस्था बंद कर दी जायेगी।” वक्रबुद्धि जानते थे - न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी। कोई भी इंसान अपनी भाषा, अपनी संस्कृति को दूसरे से कमतर नहीं मान सकता; वो भी तब जब इतना कुछ दांव पर लगा हो।
अगले दिन वक्रबुद्धि ने सातों विद्वानों को बुलवाया और बताया कि राजा साहब आपकी विद्वता से प्रसन्न हैं और उन्होंने एक बड़ी ज़िम्मेदारी आपके ऊपर सौंपी है। आपको अपनी-अपनी भाषाओं का एक शब्दकोश बनाना होगा। इसमें हर शब्द का अर्थ हिन्दी व अंग्रेजी में दिया जायेगा। यह पांच साल का प्रोजेक्ट है, जिसकी समय-सीमा जरूरत पड़ने पर बढ़ाई भी जा सकती है। प्रस्ताव सुनकर सभी विद्वान फूले न समाये। राजा साहब ने अद्भुत हल निकाला है। अब हम बतायेंगे कि कैसे हमारी भाषा बाकी से अलग और बेहतर है। उनके खुश होने से वक्रबुद्धि भी खुश हुये। वो मानते थे कि पढे-लिखे लोगों को अगर साध कर नहीं रखा जायेगा तो वो कुछ न कुछ उल्टा-पुलटा करेंगे। ऐसा करके उन्होंने एक तीर से दो निशाने साधे। जरूरत पड़ने पर इन लोगों को ‘कौन बड़ा-कौन छोटा’ के झगड़े में भी उलझाया जा सकता है, जिससे उनका मंत्रिपद ज्यादा निश्चिंतता से गुजरेगा।
इन दिनों वक्रबुद्धि राजा साहब द्वारा लोकभाषाओं के उत्थान के लिये चलाये जा रहे प्रयासों पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं। यह रिपोर्ट अंग्रेज़ बहादुर के अलावा मुल्क के प्रमुख समाचारपत्रों, अन्य राजाओं व इस विषय पर कार्यरत यूरोपीय संस्थाओं को भेजी जायेगी, ताकि पूरी दुनिया जान सके कि राजा मंथरमति अपनी लोकभाषाओं के विकास के प्रति कितने समर्पित हैं।