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04 July 2015

जयश्री रॉय की कहानी: दुर्गंध

गूगल

रेत की आंधी उठी है, प्लास्टिक के टुकड़ों से बनी छ्त तेज शोर के साथ फरफरा रही है। हुरा फर्श पर पड़ी-पड़ी चुपचाप देखती है मगर कुछ करती नहीं- कर नहीं सकती। घुटनों को एक-दूसरे से सख्ती से जोड़े इस तरह अर्से से पड़े-पड़े उसके पांव असक्त हो गए हैं। वह ठीक से चल-फिर नहीं सकती।

 

हुरा अपने जिस्म की कैद में सालों से है और इससे छूटने के इंतजार में इस टाट की झोंपड़ी में पड़ी है। उसे मृत्यु चाहिए। इस जीवन का अबसे अच्छा विकल्प केवल मृत्यु है उसके लिए। अपने निर्वासन में वह हर पल इसी का रास्ता देखती है। एक दिन वह सुखद,  मखमली अंधेरा उतरेगा आकाश से और उसे उसकी समस्त पीड़ा,  अपमान और अकेलेपन के साथ ढंक लेगा। फिर उसके पास टीसने को यह देह नहीं रहेगी,  न आत्मा तक को सड़ा देने वाली कोई बदबू होगी। शरीर के पिंजरे से छूटकर वह आकाश हो जाएगी,  हवा हो जाएगी,  सुगंध हो जाएगी। हुरा बदबू, मवाद और खून से लिथड़ी अपनी देह को देखती है। उसके चारों तरफ की हवा सड़ गई है। जगह-जगह नीली मक्खियों के थक्के जमे हैं,  चिपचिपाती जांघों के बीच नसों के गुंजल में आग लगी है। धपधपा रही हैं बेतरह... देखते हुए वह अचानक आतंक से,  यातना से भर कर चीखती है। बहुत भयानक है उसकी चीख। जैसे किसी गूंगे का गला रेता जा रहा हो। एक तेज घरघराहट के साथ वह रोती है, पहले भींची आवाज में,  फिर हिलक-हिलककर। मगर उसका रोना किसी को सुनाई नहीं पड़ता। बाहर दोपहर का मरु आकाश गर्मी की अधिकता में तांबई पड़ गया है। रेत की सतह पर हवा धुआं रही है। काली,  अनगढ़ पत्थरों के बीच खड़े इक्के-दुक्के ताड़ के पेड़ों के नंगे माथे पर बैठे गिद्ध अपनी पलकहीन खूनी आंखों से सड़ती लाशों का संधान करते निस्तब्ध बैठे हैं। कैक्टस की झाड़ियों के पीछे सूखे नाले के पास कुछ लकड़बग्घे चुड़ैलों की तरह एक साथ खिलखिला रहे हैं। देर तक रोने के बाद हुरा एक समय चुप हो जाती है। वह जानती है,  यहां कोई नहीं आएगा। कोई नहीं पूछेगा वह क्यों रो रही है। किसी तरह घिसट कर वह सिरहाने रखे हुए मसक से पानी के कुछ घूंट पीती है और अपनी जगह लौट कर चित्त लेट जाती है। उसे अब नींद, थोड़ी राहत का इंतजार है। उसकी आंखों में धीरे-धीरे कुछ स्याह धब्बे तैर आते हैं। इस नीम बेहोशी को अब वह नींद के नाम से जानने लगी है।

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नींद में भी रिहाई नहीं। वही गुर्राते भेड़िये,  हूंकते सियार और नकिया कर हंसते हुए लकड़बग्घे। समय से परे गेद्दा की कंजरी आंखें चमक रही हैं। उसके हाथ में धारदार पत्थर हैं। उसके गिद्ध के चंगुल-से नाखूनों में कच्चा मांस और खून भरा हुआ है। वह उसके जनानांग को काट-कूट कर मांस के लोथड़े में तब्दील कर चुकी है। चीख-चीख कर हुरा का गला बैठ गया है। उसके आसपास औरतों का जमघट है। कोई उसके हाथ पकड़े हुए है तो कोई पांव। उसकी दाहिनी कलाई टूट चुकी है और बाईं तरफ की तीन पसलियां। अम्मा समझा रही है, दर्द ही औरत की जिंदगी है। दर्द से क्या घबराना? खाला भी उसकी हौसला अफजाई कर रही हैं - दीन के रास्ते पर चलने वाली नेक औरतें रोती नहीं। शिकायत नहीं करतीं। हुरा अपने रोने पर शर्मिंदा है, मगर अपनी चीखों पर काबू नहीं कर पा रही है। वह क्या करे,  वह औरत है मगर इंसान है। उसका शरीर हाड़-मांस का है। उसे दर्द होता है।

दस साल की उम्र में हुरा का सुन्ना हुआ था। उसे शादी के काबिल बनाया गया था। मां होने के काबिल बनाया गया था। उसके जनानांग को बाहर से पूरी तरह काट कर और उसे कैकसिया कांटे से सिल कर उसके स्त्रीत्व को सुरक्षित बनाया गया था। अब वह पवित्र है,  नेक औरत है,  दीन में ईमान रखने वाली है। सोमालिया के समाज में अब उसका सम्मान है। दर्द से अवश पड़ गए हाथों से वह लोगों के दिए उपहार समेटती है। रोती है और सब समझते हैं वह हंस रही है।  ख़ुशी के अतिरेक में उसकी आंखों से आंसू अनवरत बहते रहते हैं। उसकी खुशी देख अम्मा भी बार-बार आंख पोंछती हैं। उसे अपनी परवरिश पर गुमान है।  

 

सुन्ना के बाद जंगल में एक हाथ से बनाई हुई झोंपड़ी में वह महीना भर पड़ी थी। उसके जनानांग के जख्म को भरने के लिए उसमें जानवरों की लीद और धूल-मिट्टी डालकर उसके दोनों पांवों को घुटनों तक जोड़ कर बांध दिया गया था। उसी अवस्था में पड़ी-पड़ी वह मरण यंत्रणा झेलती रही थी। उसका घाव पक गया था। उससे मवाद बहने लगा था। तेज बुखार में वह घंटों बड़बड़ाती रहती। नीम बेहोशी में दु:स्वप्नों का स्याह डेरा होता। रेगिस्तान की हड़ियल चुड़ैलें उसे घेर कर नाचतीं, उनकी लंबी परछाइयां आसमान में गिद्ध के डैनों की तरह लपलपा कर फैलतीं। पीला चांद नि:शब्द झरते मरु के उंचे-नीचे टीलों पर। रात पिघल कर बहती बहुत धीरे-धीरे। उसके शाने पर चांदनी के बदसूरत धब्बे फफूंद-से जड़े होते। केंचुल की तरह उतरता अंधेरे का जिस्म। भोर सुर्ख घाव की तरह दगदगा कर फैलती रेत पर। उठकर वह अपने जख्म पर बजबजाती चींटियों के जमे थक्के देखती और चिल्लाती – मां ! मां...!

उस झोंपड़ी से तब जाने कैसे वह जिंदा निकल आई थी। वर्ना अधिक रक्त स्राव के कारण उसे कबीले की औरतें डायन कह कर पुकारने लगी थीं। डायन न होती तो सुन्ना कराने पर इतना खून बहता ?  जनानांग के नाम पर अब उसके शरीर में एक माचिस की नोक बराबर छेद रह गया था, पेशाब और माहवारी के लिए। इस जिस्म की कैद में उसने तीन साल निकाले थे। वह अर्सा खालिस अजाब का था। एक सुलगता हुआ दोजख। रात को दिन और दिन को रात करना पहाड़ धकेलने, आकाश उठाने जैसा था। उसके भीतर खोह बन गए थे। चुक गयी थी वह सिरे से। जिसे जिंदगी कहते हैं काश उसका माने कोई हुरा से पूछता !

 

जख्म के भरते न भरते उसका निकाह जुम्मन से कर दिया गया था। एक साठ साल का बूढ़ा,  तीन जवान बच्चों का बाप। उसके पास बहुत दौलत थी। सौ ऊंट और पांच मीठे पानी के कुएं। उसने हुरा की कीमत पांच ऊंट से चुकाई थी। साथ नकदी भी। हुरा का पूरा कुनबा भारी मेहर से खुश था।

 

निकाह की रात हुरा के जिस्म को फिर काट कर खोला गया था। मगर उसके शरीर का जख्म अंदर तक इस तरह से भर चुका था कि उसका शौहर किसी भी तरह उसके साथ एकसार नहीं हो पाया था। मगर बिस्तर पर फैले रक्त को देख कर सारी औरतों ने हुरा की अम्मी को बधाई दी थी। उसने अपनी नेक परवरिश से अपनी बेटी को उसके शौहर के बिस्तर तक सही-सलामत पहुंचाया था। दर्द से कराहती हुरा के बिस्तर के आसपास औरतों ने खुशी से रक्स किया था। गुमान और नाज से हुरा की अम्मी फूली नहीं समा रही थी उस वक्त। हुरा के दर्द से नील पड़े चेहरे की तरफ देखने की फुर्सत किसी के पास नहीं थी। सब ठहाकों में डूबी जा रही थीं जैसे। वह नेक औरतों की जीत का नायाब मौका था। हाथ से जाने देना नहीं था।   

 

जुम्मन साल भर तक क़ोशिश करता रहा था मगर हुरा के संग-साथ होने में कामयाब नहीं हो पाया था। अंत में किसी तरह वह उसे हामीला करने में सफल हो गया था। इसमें उसने एक दाई की मदद ली थी। वह दाई कसाई से बढ़ कर थी।  उससे भी बेरहम। उस समय हुरा की उम्र तेरह साल थी।  

 

अपने भारी होते जिस्म के साथ हुरा का आतंक बढ़ता गया था। उसे कम खाने की सलाह दी गई थी ताकि बच्चा छोटा रहे और प्रसव में तकलीफ न हो। उल्टी कर-कर के उसकी अपनी हालत खराब थी। कुछ ही दिनों में उसका वजन घट कर आधा रह गया था। सारा दिन या तो वह उल्टी करती या फर्श पर पड़ी-पड़ी हांफती रहती। उन दिनों उसे बस अपने खुदा का आसरा था। उसे याद करते वह वक्त के गलियारे में धीरे-धीरे घिसटती रही थी। उसे यकीन करना था। करना ही था। न  करती तो क्या करती।  

 

उसका पहला बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ था। बंद जनानांग की वजह से गर्भावस्था में उसका मुआयना संभव नहीं था। जख़्मी अंगों की वजह से पेशाब में मल के रिस आने से पेशाब का नमूना दूषित हो जाता था,  जिससे रासायनिक परीक्षण भी संभव नहीं था। पैदा होते हुए बच्चा संकरे योनि मार्ग में फंस कर दम घुट जाने से मर गया था। वह एक लड़की थी इसलिए किसी ने शोक नहीं मनाया। मगर हुरा की छाती फट कर दूध बहा था। वह जमीन पर दोहरी हो कर रोई थी और लगभग अपनी आंखें गंवा बैठी थी। दर्द भाला-बल्लम बनकर उसे बिंधा था। रुह कलपती हुई मछली की मानिंद जिस्म पर लोटती फिरी थी। लोगों ने कहा था वह दीवानी हो गई है. उस पर आसेब उतरा है अंधेरों की सल्तनत से। अब वह भी नहीं जिएगी देर तक।

 

इसके एक साल बाद हुरा को दूसरा बच्चा पैदा हुआ था। लड़का। इस बार उसकी खूब देख-भाल की गई थी। चालीस दिनों तक प्रसूति गृह में रखा गया था। उसके कान में लौंग बांध कर लटकाये गए थे। बच्चे के हाथ में ‘मामाल’  बांधा गया था।  सुबह-शाम बुरी बलाओं तथा प्रदूषण से बच्चे को बचाने के लिए प्रसूति गृह में धूप का धुआं किया जाता। शीशम के तेल से बच्चे की मालिश की जाती। मगर उसे हुरा का पहला दूध पिलाने की इजाज़त नहीं दी गई थी। यह नवजात के लिए बुरा जो माना जाता था। उसके लिए सबसे अच्छा दूध ’डांबर’ होता है - बच्चा जनने के बाद ऊंट का पहला गाढ़ा पीला दूध।

 

हजार जतन के बाद भी हुरा का बेटा जिंदा नहीं रह पाया था। पीलिया की वजह से मर गया था। पीली आंखों वाले उस लुथ-पुत कीचड़-से बच्चे को गोद में ले कर हुरा एक बार फिर जमीन-आसमान एक कर के रोई थी। उसे रोना था। यही उसके हिस्से आया था। चालीस दिन बाद हुरा खाली कोख और भीगे कपड़े के साथ प्रसूति गृह से बाहर निकल आई थी। इस बार उसकी देह हमेशा के लिए नष्ट हो गई थी। मूत्राशय में चोट लगने की वजह से अब हर समय उसके शरीर से पेशाब रिसने लगा था।

 

पहले पहल लोगों ने सहानुभूति दिखलाई थी। फिर नाक-भौंह सिकोड़ी थी और आखिर तक खुल कर छी-छी करने लगे थे। उसके शौहर ने उसके हाथ से खाना छोड़ दिया था। अब वह उसे अपने आसपास भी फटकने नहीं देता था। उसके शौहर की देखा-देखी उसके ससुराल वालों ने भी उसे कुछ ही दिनों में दुत्कारना शुरू कर दिया था। हर तरफ से कट कर आखिर में उसने भी वही किया था जो उसके समाज की अधिकतर औरतें ऐसी हालत में किया करती हैं-  लोगों की बस्ती से दूर जंगल में एक झोंपड़ी बना कर रहने लगी थी। पेशाब को रोकने की वह बहुतेरी कोशिशें करती मगर वह रिसता रहता। उसके जिस्म से बदबू आती, आसपास मक्खियां भिनकतीं और वह चुपचाप अपनी झोंपड़ी के निर्जन में पड़ी रहती. पैरों को सख्ती से आपस में जोड़े-जोड़े वे अशक्त हो गए थे। कभी किसी तरह अपने ससुराल वालों से कुछ मांग लाती और उबाल कर खाती- मकई या कोई और अनाज।

 

उसके भीतर की खोह दिन ब दिन बढ़ती ही गई थी। किसी काली गुफा की तरह वह रात दिन सन्नाटों से भरी रहती। अपनी सिसकियों से गूंजती एक कहीं न खत्म होने वाली गुफा। सारे रिश्ते एक-एक कर उससे हाथ छुड़ाते चले गए थे। चेहरे सपाट दीवारों में तब्दील हो गए थे। आवाज और निगाहों में भी फर्क आ गया था। आसपास की हर पहचानी चीज अजनबी होती चली गई। औरत का जिस्म ही उसकी पहचान। जिस्म नहीं तो वह कहां। रूह तक कौन पहुंचता है। सारे हाथ तो उसकी मिट्टी ही टटोलते हैं। यहां मिट्टी-पत्थर के ग्राहक खूब मिलते हैं,  रूह को कोई पूछता नहीं। ढहते शरीर के साथ वह टूटते रिश्तों की चरमराहट सुनती और रोती। और क्या कर सकती थी वह इसके सिवा। रिसती देह वाली सारी औरतों की तरह वह भी दुआ करती- जिस्म की सांकल टूटे,  खताएं माफ हो। मगर हव्वा की बेटियों के नसीब में मौत कहां। उसे तो जिंदगी अता की गई है- किस्तों की मौत- हर क्षण,  हर पल। जियो यही तुम्हारी सबसे बड़ी सजा है।    

 

आज भीख मांगने के दौरान एक अर्से के बाद गांव जा कर हुरा ने सुना था,  जुम्मन का चौथा निकाह हो रहा है। हुरा से पहले की दो बीवियां हैजा और तपेदिक से मर चुकी थीं।

 

जुम्मन के निकाह की बात सुन कर जाने आज उसमें क्या घटा था। वह बेतरह परेशान हो उठी थी। अर्से बाद उसे अपना आप याद आया था - जुब्बा नदी की तरह गहरी सांवली और चंचल। लोग कहते थे,  उसकी आंखें मोतियों जैसी हैं। चेहरे में भी वैसा ही आब। उसे रेत में अपनी हिरणी जैसी कुलांचे याद आईं। नदी की तरह बहना याद आया। वह जीना चाहती थी,  आकाश को छूना चाहती थी,  मगर...

 

दूर गांव में बजते बाजे की आवाज यहां तक आ रही थी। जुम्मन के निकाह का जश्न शुरु हो चुका था। हुरा ने अपने आसपास थमी हुई हवा को महसूस किया था। पसलियों में अर्से से जम कर पत्थर बन गए आंसू कसक उठे थे। पुतलियां सुलगने लगी थीं। उसके हिस्से इतना सन्नाटा क्यों ?  इतनी चुप्पी क्यों ?  जिस्म एक घाव के सिवा कुछ नहीं। रूह बस गर्म राख। कितने दिन और कितने दिन में उसका अजाब खत्म होगा। जाने कितनी देर तक अंधेरे में पड़ी-पड़ी वह दूर से आती संगीत की आवाज सुनती रही थी। उसे अपना निकाह याद आया था। अपनी सूरत,  अपनी उमंगे। क्या कुछ। उसने हाथ बढ़ा कर अंधेरे में जाने क्या टटोला था। शायद अपने खोए हुए अपने आप को ही। मगर वह कहीं नहीं थी। खो गई थी अपने ही भीतर से। फना हो गई थी। अगर बचा था कुछ तो बस दर्द,  सन्नाटा और बदबू। रूह तक धंसी हुई,  जान तक धंसी हुई। इन्हीं में लिथड़ी हुई वह देर तक पड़ी रही थी और फिर यकायक कुछ चमका था उसके भीतर। एक तीली आग, एक कतला रोशनी। सीने में जकड़न-सी महसूस हुई थी और जबड़ा भिंच गए थे। तनी हुई नसों के साथ वह उठ खड़ी हुई थी और डगमगाते कदमों से गांव की ओर चल पड़ी थी। उस वक्त वह कुछ भी सोच नहीं रही थी। उसके दिमाग में आग भरी हुई थी। देह उबलती नदी।

 

हुरा को जश्न के माहौल में इस तरह देख सब हैरत में पड़ गए थे। चारों तरफ से ’छी’,  ’याक’,  ’इसे भगाओ यहां से’  जैसी आवाजें आने लगी थीं। खाज खाए कुत्ते की तरह लोग उसे दुत्कार रहे थे। कोई-कोई उसे पकड़ने या धकेल कर बाहर निकालने की भी कोशिश कर रहे थे। मगर हुरा ने किसी की परवाह नहीं की थी। उसने सबके हाथ झटक दिए थे। जाने कैसी ताकत आ गई थी उसमें। इस समय उसकी निगाह दुल्हन पर जमी हुई थी। एक छोटी-सी बच्ची, अधखिले गुलाब-सी। आंखों में ढेर-से सितारे और होंठों पर एक दबी हुई मुस्करहट। उससे पड़े मर्दों से घिरा जुम्मन,  सेहरे-शेरवानी में। हुरा उसके पास जा खड़ी हुई थी। उसके पास जाते ही जुम्मन नाक-मुंह दबा कर ’बदबू-बदबू’ चिल्लाने लगा था। उसके चिल्लाते ही लोग फिर हुरा की तरफ झपटे थे मगर हुरा ने तड़प कर सबसे बचती हुई जुम्मन का सेहरा उसके माथे से नोंच लिया था और फिर सबके सामने उस पर खड़ी हो कर पेशाब कर दिया था। जो बदबू औरतों के जिस्म और नसीब में भर देते हो उसे थोड़ी देर बर्दाश्त नहीं कर सकते? लो निकाह का तोहफा – बदबू। बदबू और बदबू। अब अपनी औरतों से तुम्हें यही मिला करेगा,  इसके साथ जीना सीख लो जुम्मन मियां। शादी मुबारक।

 

इतना कह कर हुरा लड़खड़ाती हुई बीच आंगन गिर पड़ी थी। पूरा घर स्तब्ध हो कर उसे देख रहा था। दूल्हे के चेहरे का रंग उड़ गया था और उसकी नई दुल्हन हुरा को अपनी गोद में सम्हालती हुई उसे जलती आंखों से घूर रही थी। हवा में तेज बदबू फैली हुई थी। 

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OUTLOOK 04 July, 2015
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