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28 March 2016

कामकाजी पत्नी पर वैचारिक कहानी - कशमकश

माधव जोशी

सेक्रेटरी को केबिन से बाहर निकालकर रघु ने धड़ाक से दरवाजा बंद कर दिया। इतनी जोर से कि दरवाजे का शीशा चकनाचूर होकर बिखर गया। सेक्रेटरी के मन में भी कुछ टूटा। उसकी आवाज नहीं सुनी गई।

रघु बहुत गुस्से में है। बहुत ही गुस्से में है।

कनाट प्लेस से थोड़ी दूर बाराखंबा रोड पर आसमान को उंगली करती हुई यह इमारत खड़ी है। इसके ग्यारहवें तल पर देश की सबसे बड़ी तेल कंपनी का ऑफिस है। जिनके मां बाप गंगा में जौ बोए होते हैं उन्हीं के बेटे बेटियों को नौकरी मिलती है इसमें। बड़े भाग मानुष तन पावा। उससे भी बड़ा भाग कि इस कंपनी में आवा।

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रघु है कौन?

रघु इसी कंपनी में सीनियर सेल्स मैनेजर है। रघु, रंजना का पति भी है। रंजना, रघु से ज्यादा पढ़ी है। मगर नकचढ़ी नहीं है। शादी के समय रंजना नौकरी नहीं करती थी। पढ़ाई के बल पर मोटे तनख्वाह वाले रघु को फांस लिया था। या कहिए कि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की स्कॉलर से रघु ने शादी के लिए हां कर दी थी।

तो क्या रघु, रंजना से गुस्सा है?

रघु बड़ी पोस्ट पर है। खूब कमाता है। रंजना इलाहाबाद में कंपटीशन की तैयारी कर रही थी, जब रघु उसे ब्याह कर लाया। शादी के बाद एक बरस कैसे निकल गया दोनों को पता न चला। किसी तीसरे के आने की आहट से साल बीतने की भनक लगी। कुछ दिनों बाद एक पुरुष सदस्य ने घर में जन्म लिया। यह हैप्पी फेमिली का तीसरा सदस्य था। अमन के आने से घर की रौनक बढ़ गई। रघु की जिम्मेदारियां बढ़ गईं। रंजना की व्यस्तता बढ़ गई। 

रघु जब तब रंजना को छेड़ता रहता। ‘इतने अरमानों से पढ़ाई की थी। कुछ कर लो। समय निकल जाएगा तो हाथ मलती रहोगी।’

दोनों ने सहमति से ‘हम दो हमारे एक’ का चीनी फैसला लिया। अडिग रहने की कोशिश करते रहते। बढ़ी हुई व्यस्तताओं से रंजना कसमसाती रहती थी। किसी सहेली से कभी बात हो जाती तो वह छटपटाने लगती। उसकी कई सहेलियां नौकरी में लग चुकी थीं।

तो क्या रघु, रंजना के कुछ न कर पाने से गुस्सा था?

दो तीन साल बाद रंजना की कोशिश रंग लाने लगी। मगर रंजना ने महसूस किया कि जब भी कोई फाइनल रिजल्ट आने वाला होता है, रघु का व्यवहार बदल जाता। वह ताने मारने लगता, ‘अब तो तुम दिल्ली से चली जाओगी।’ ‘इतने दिन दिल्ली में रहने के बाद छोटे शहर में कैसे रहोगी?’ ‘अमन की पढ़ाई का क्या होगा?’

छोटी-छोटी बातों पर रूठ जाता। बोलना बंद कर देता। गांव में मॉल कहां मिलेगा? एसी कहां मिलेगा? मेट्रो जैसा नजारा कहां होगा? बिजली भी नहीं रहेगी। उसे सुनाता रहता।

रंजना उसे समझाने की कोशिश करती, ‘हम लोग खुद गांव से आए हैं। तुम गांव से पढ़कर इतने बड़े पोस्ट तक पहुंचे हो।’

रघु कुछ देर के लिए समझ जाता मगर जैसे ही किसी इंटरविव के लिए कॉल होती, वह बड़बड़ाने लगता। कहीं सेलेक्शन नहीं होता तो वह रंजना को अच्छे से समझाता। खूब दिलासे देता और अच्छा करने के लिए उत्साहित करता था।

तो क्या रघु, रंजना का सेलेक्शन न होने से गुस्सा था?

उस साल जनवरी में पीसीएस का रिजल्ट आया। अंतिम सूची में रंजना का भी नाम था। ट्रेजरी ऑफिसर के लिए हुआ था। रघु भी खुश था। रंजना को समझाता रहा, ‘संभाल के रहना वहां। लोगों से ज्यादा घुलना मिलना मत। अमन को बचाकर रखना।’

रंजना उसे टोकती, ‘अभी तो रिजल्ट आया है। पता नहीं कब जाना होगा? कहां जाना होगा?’ कहती कि कहीं दूर बस्ती, बहराइच जैसी जगहों पर होगा तब थोड़ी जाएगी। फिर भी रघु परेशान था। वह रंजना को सीधे मना नहीं करना चाहता था। लेकिन यह भी चाहता था कि रंजना खुद रुक जाए।

एक दिन ऑफिस से लौटकर रघु ने कहा, ‘राजीव फूफा के यहां चलना है। जल्दी से तैयार हो जाओ।’

वहां पहुंचकर रघु ने पुराना प्रसंग छेड़ दिया, ‘बुआ, आप बीएचयू में पढ़ाती थीं न?’

रघु की बुआ बीएचयू में लेक्चरर थीं। फूफा की नौकरी के चलते, उन्हें दिल्ली आना पड़ा था। बुआ उस पर ज्यादा बात नहीं करना चाहती थीं मगर रघु घूम फिरकर वही बात करता रहा। रंजना ने बुआ के मन की टीस को महसूस किया। पचपन के आसपास की थीं बुआ। घुटनों की बीमारी, मोटापे और शुगर से त्रस्त। रघु ने बुआ के ‘त्याग’ पर ज्यादा जोर दिया तो रंजना बिफर पड़ी, ‘नौकरी करतीं तो इतनी चुप नहीं रहतीं। तुम क्या समझोगे उनका दर्द? क्या बनारस या जौनपुर के बच्चे आई आई एम या एमबीबीएस नहीं कर पाते? खुद फूफाजी भी बीएचयू से ही पढ़े हैं।’

तर्क से खाली होकर रघु ने ब्रहमास्त्र फेंका जो हर पुरुष, स्त्री के लिए फेंकता है, ‘तुमसे तो बहस करना ही बेकार है।’ 

तो क्या रघु, रंजना के नौकरी के फैसले से गुस्सा था?

रंजना के नौकरी ज्वाइन किए हुए चार महीने हो चुके थे। जुलाई का आखिरी हफ्ता था। मौसम में खूब उमस थी। रंजना से मिलने रघु जौनपुर गया हुआ था। अमन के शरीर में जगह-जगह फोड़े फुंसियां निकली थीं। कहीं से मवाद निकल रहा था तो कहीं खून की लाली थी। पापा, पापा कहकर वह दौड़ा तो उसे झिड़क दिया, ‘क्या हाल बना रखा है? यही सब गंदगी नहीं मिल रही थी तुम्हें वहां?’

रंजना गुस्से से कांप उठी। एक महीने बाद रघु आया था। कितना इंतजार किया था उसने? ढेर सारी बातें करना चाह रही थी। ऑफिस की, लोगों की, पड़ोस की, दिल्ली वाले पड़ोसियों की। रघु ने उसकी ओर मुंह उठाकर देखा तक नहीं? अमन को दवा दिलाने चला गया। लौटकर फोड़े-फुंसियों की सेवा में लगा रहा। अमन, पापा के साथ खूब खुश था। रंजना भीतर से सिसक रही थी। अंदर न जाने कितने फोड़ों की टीस उठ रही थी। लग रहा था पूरे बदन में फुंसिया ही फुंसियां हैं। रात में फुंसियों की जगह कांटे उग आए। करवट बदलते रात बीत गई। वह सोचती रही। गुनती रही। कुढ़ती रही। रघु ने पिछले चार महीनों में उसे बार-बार गुनहगार ठहराया था। अमन को खरोंच लग जाए, चोट लग जाए, बुखार हो जाए, दस्त लग जाए। हर बार उसे जिम्मेदार ठहराकर कुछ होने पर देख लेने की धमकी थमा देता। जैसे दिल्ली में अमन को कभी कुछ हुआ ही न हो। रंजना को जलता हुआ छोड़कर लौट गया था रघु।

तो क्या अमन के बीमार होने से रघु गुस्सा हुआ?

धीरे धीरे एक साल बीत गया। रघु का जौनपुर आना जाना लगा रहता। इस बार रंजना का चेहरा देखकर मुस्कुराया, ‘अपना चेहरा देखा है आइने में काली माई? कैसी थी? क्या हो गई हो?’

रंजना हंसने लगी, ‘शादी के समय वाली रंजना को भूल गए? गोरी चिट्टी रखकर मुझे क्या ड्राइंग रूम में सजाओगे?’

अमन की तबियत खराब थी। बुखार उतर ही नहीं रहा था। रघु को फिर मौका मिल गया, ‘अब तो सोच लो। न जाने कौन सा भूत सवार है तुम पर। जब तक कुछ बुरा नहीं होगा तब तक नहीं मानोगे तुम लोग।’

रंजना चुप न रह सकी, ‘इस तरह क्यों कोसते हो? मेरी गलती क्या है? तुम्हीं तो नौकरी करने के लिए कहते थे? बहाने छोड़ो सीधे-सीधे बोलो चाहते क्या हो?’

रघु हड़बड़ा गया। उसे खुद नहीं पता था कि वह चाहता क्या है? सीधे कहे भी क्या? कैसे कहे कि रंजना नौकरी छोड़ दे? कैसे कहे कि रंजना पत्नी बनकर घर संभाले? उसकी देखभाल करे। खाना बनाए। कपड़े धोए। उसके पैर दबाए। मालिश करे। वह हकलाने लगा, ‘मैं, मैं, मैं क्या चाहता हूँ। तुम्हीं लोगों की खातिर कह रहा था। मुझे क्या है?’

रंजना आरपार के मूड में थी, ‘हमारी चिंता के लिए ताने मारते हो? इतनी ही चिंता है तो एक काम करो, मेरी तनख्वाह तीस हजार के लगभग है। उतने रुपये मुझे हर महीने दे दिया करो।’

रघु ने मौके को लपका, ‘मैं कमाता हूँ तुम्हीं लोगों के लिए तो। इसमें मेरा तेरा की बात कहां से आ गई?’

रंजना आज फंसने वाली नहीं थी, ‘वही तो, अपने पैसे में से ही तीस हजार मांग रही हूँ। तुम्हें क्या दिक्कत है?’

रघु बात संभालने लगा, ‘क्या करोगी अलग से पैसे लेकर?’

रंजना वैसे ही शांत थी, ‘कुछ भी करूँ? बस मुझे अलग से निकालकर दे दिया करो।’ रघु ने फिर पूछा, ‘मुझसे छिपाकर खर्च करोगी? मैं पूछ नहीं सकता?’

रंजना मुंह बिचकाते हुए बोली, ‘ऐसी कोई बात नहीं। लेकिन मुझे यहां तनख्वाह मिलती है तब तो तुम नहीं पूछते कि कैसे खर्च करोगी?’

रघु एकटक देखता रहा। रंजना पास बैठी थी, ‘आज मेरे एकाउण्ट में तीन लाख है। वह क्या सिर्फ मेरा है? लेकिन मुझे अच्छा लगता है। मेरी खुशी की खातिर ही दे दो।’

रघु का दिमाग झनझना गया। कुछ बहुत बुरा बोलना चाहता था पर इतना ही कहा, ‘तो साफ साफ कहो न कि तुझे पैसे जमा करने हैं। कुछ हासिल करना है। कॅरियर बनाना है।’

रंजना ने धीरे से कहा, ‘तो इसमें गलत क्या है रघु?’ फिर दोनों में कोई बात नहीं हुई। गुस्से में ही वह शाम की ट्रेन से निकल गया। सुबह ऑफिस पहुंचा तब भी मूड खराब था। सेक्रेटरी ने जब टारगेट की बात कही तो उसे गालियां देता हुआ केबिन से ‘गेट आउट’ कहकर भगा दिया। 

रघु को खुद नहीं पता वह इतना गुस्सा क्यों है?

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OUTLOOK 28 March, 2016
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