आशा पांडे की कहानी - खुद्दार
हरे-पीले, पके-अधपके आमों से लदे पेड़ों का बगीचा। बीच से निकली है सड़क। बगीचे को पार करती हुई मेरी कार एक घने आम के पेड़ के नीचे रूक जाती है। हम सभी कार से उतरते हैं।
नीचे पेड़ की जड़ के पास पके हुए सात आठ आम पड़े हैं। मैं कुछ बोल पाऊं उसके पहले ही बच्चे आम उठाकर खाना शुरू कर देते हैं। पेड़ की एक डाल आमों से लदी हुई काफी नीचे झुकी है। पति ने डाल को पकड़ कर हिला दिया। तीन-चार आम टपक पड़े। मैं मना करती हूं। मुझे डर है कि अभी पेड़ का मालिक आकर लड़ने न लगे। इन लोगों का क्या भरोसा । लड़ने लगेंगे तो ऐसा चिल्ला-चिल्ला कर लड़ेंगे कि अपनी तो बोलती ही बंद हो जाएगी। इनका तो कुछ मान-अपमान होता नही, अपनी इज्जत का जरूर फालूदा बन जाएगा। किंतु मेरी बातों का बच्चों पर असर नहीं पड़ता। बच्चे आम उठाकर गाड़ी में रख लेते हैं। शहरी सभ्यताओं को ढो-ढो कर थके मेरे बच्चे यहां आकर स्वतंत्र हो गए हैं। मैं चुप हो जाती हूं। मन में सोचती हूं, बच्चों को खुश हो लेने दो। ये बाग-बगीचे, ये गांव इन्हें कहां देखने को मिलते हैं। अगर पेड़ का मालिक आएगा तो मैं इन आमों की कीमत चुका दूंगी। यह सोचते हुए मेरे मन में दर्प भाव उमड़ उठता है।
बगीचे से कुछ फर्लांग की दूरी पर छह-सात घरों का एक छोटा-सा गांव है। वहां भी इक्के दुक्के आम, महुआ, नीम के पेड़ दिख रहे हैं। दो-तीन घरों का दरवाजा बाग की तरफ खुलता है। इनमें से एक घर के सामने नीम की छांव में खटिया बिछाए तीन-चार व्यक्ति ताश खेल रहे हैं। समीप ही दूसरी खटिया पर एक अधेड़ किस्म का व्यक्ति लेटा है। जब हमारी कार बगीचे में रुकी तब उन सभी की निगाह हमारी तरफ मुड़ गई। थोड़ी देर तक हमारी तरफ देखने के बाद उस अधेड़ व्यक्ति ने किसी को आवाज लगाई। घर के अंदर से दो लड़कियां निकल कर पेड़ की तरफ आने लगीं। एक दस-बारह साल की है, दूसरी उससे कुछ छोटी, लगभग आठ-नौ साल की। दोनों ने फ्रॉक पहनी है लेकिन बटन दोनों के ही फ्रॉक से गायब हैं। पीठ को उघाड़ता हुआ उनका फ्रॉक कंधे से नीचे लटका जा रहा है। लड़कियां उसे कंधे के ऊपर चढ़ा लेती हैं। फ्रॉक बार-बार लटक रहा है लड़कियां बार-बार उसे कंधे पर चढा रही हैं। फ्रॉक को पकड़े-पकड़े ही छोटी लड़की पेड़ के इर्द-गिर्द नजरें गड़ाए कुछ खोजने लगी। उन्हें आश्चर्य हो रहा है वे आपस में कुछ फुसफुसा भी रही हैं। दरअसल लड़कियों ने पेड़ के नीचे जिन आमों को इकट्ठा किया थां उन्हें तलाश रही हैं। मेरी बेटी आगे बढ़ कर उनसे पूछती है, ‘यहां जो आम गिरे थे, उन्हें खोज रही हो क्या?’
‘गिरे नहीं थे, हमने उन्हें वहां रखा था।’ जवाब में अकड़ है। ‘हां, जो भी हो। वह बड़े मीठे थे। उनमें से कुछ हमने खा लिए, कुछ गाड़ी में रख लिए हैं।’ मेरी बेटी की आवाज में लापरवाही समाई है। बड़ी लड़की के चेहरे पर कई भाव आए और गए। ऐसा तो नहीं हुआ होगा कि हमारी जबर्दस्ती उसे खराब न लगी हो लेकिन जाने क्यों वह चुप रह जाती है. मैं उसके चुप रह जाने का कारण खोजती हूं। हमारी अकड़? हमारा शहरीपन? हमारी चमक-दमक या उसकी उदारता? पता नहीं।
मैं लड़कियों के पास आती हूं। ‘यह बगीचा तुम्हारा है?’ ‘नही, पूरा बगीचा मेरा नहीं है। इसमें सिर्फ तीन पेड़ मेरे हैं। उधर जो दो पेड़ दिख रहे हैं वह और यह जिसके नीचे आप लोग खड़े हैं।’ बड़ी ने गर्व से जवाब दिया।
‘आम तो बहुत निकलते होंगे, यहां गांव में बिक जाते हैं?’ ‘गांव में तो सभी के पास पेड़ हैं। यहां कौन खरीदेगा। हां, पकने पर बाबा बाजार ले जाते हैं। कच्चे आम की खटाई और पके आम का अमावट बिक जाता है।’
‘हम लोग खाते भी हैं। दोपहर में हमारे घर रोटी नहीं बनती आम ही खाकर रह लेते हैं।’ अब तक चुप खड़ी छोटी लड़की ने मुंह खोला।
‘शाम को रोटी बनती है?’ मेरी जिज्ञासा बढ़ गई।
‘हां शाम को पना (आम रस) के साथ हम लोग रोटी खाते हैं। आज शाम को हमारे घर में दाल भी बनेगी और अगर सुनीता के घर से चावल मिल जाएगा तो भात भी बनेगा।’ छोटी ने चहकते हुए बताया। बड़ी बहन ने छोटी को घूर कर देखा। छोटी सहम कर चुप खड़ी हो गई।
‘तुम्हारे पास खेत भी है?’
‘हां, है न। एक छोटा-सा खेत भी है।’ बड़ी लड़की ने जवाब दिया।
‘बस एक ही?’
‘हां, वही जो उस कुएं के पास दिख रहा है।’ लड़की ने हाथ से इशारा किया। मेरी नजरें उसके हाथ का पीछा करती हुई कुएं के पास जाकर ठहर गई। लगभग आठ-नौ सौ स्क्वेयर फिट का जमीन का एक छोटा टुकड़ा।
‘इसमें क्या बोते हैं तुम्हारे बाबा?’
‘सब कुछ। कभी गेहूं, कभी मूंग, कभी उड़द। सब्जियां भी लगाते हैं।’
‘बाबा कह रहे थे इस बार सब्जियां बेचने से जो पैसे मिलेंगे उससे हम लोगों के लिए कपड़े और चप्पल भी लाएंगे।’ छोटी लड़की फिर बोल पड़ी। बड़ी ने छोटी के हाथ में चिकोटी काटी। मैं मुस्करा उठी।
मेरे दोनों बच्चे उन लड़कियों के साथ खेलने में जुट गए। आम के पेड़ की जड़ें जमीन के ऊपर निकल कर गोल आकार बनाती हुई फिर से जमीन के नीचे धंसी हुई हैं। पति उस जड़ पर बैठ गए हैं, मैं वहीं पास ही खड़ी हूं।
‘कितना सुंदर बाग है। यहां का हर पेड़ कुछ न कुछ आकार बना रहा है। डालियां कितने नीचे तक झुकी हुई हैं। लगता है पकड़ कर झूलने लगूं। हमारे गांव में एक ऐसा ही पेड़ था। हम सब बच्चे पूरी दोपहर उसी के इर्द-गिर्द जमा रहते थे। यहां आकर मुझे मेरा गांव याद आ गया।’ पति की आवाज कुछ गहरी और भीगी-भीगी लग रही है।
‘बाग तो सचमुच अच्छा है। मैं तो कुछ और ही सोच रही हूं।’ ‘क्या सोच रही हो?’
‘यही कि अगर यहां जमीन मिल जाए, यहां बाग से लगकर, तब एक छोटा सा बंगला बनवा लिया जाए और छुट्टियों में कभी-कभी यहां आया करें। शहर से अधिक दूर भी तो नहीं है यह जगह।’
‘जमीन मिल जाए, क्या मतलब? अरे अगर हम चाहेंग तो क्यों नहीं मिल जाएगी?’ पति की आवाज में दंभ भरा विश्वास है।' ‘पैसा हो तो क्या नहीं मिल सकता?’
‘वो तो ठीक है, पर कोई बेचे तब न?’
‘क्यों नहीं बेचेंगे? दोगुना पैसा दे दूंगा। दौड़ कर बेचेंगे। कोई खरीदने वाला तो मिले, गांव में कौन खरीदता है जमीन? फिर इन्हें तो पैसा मिलेगा न।’
‘ऐसा हो सके तो वह जो कुएं के बगल वाली जमीन है उसे ही खरीद लिया जाएगा। लड़कियां कह रहीं थी कि यह जमीन इनकी है। बहुत गरीब हैं बेचारे। रोज खाना भी नहीं बनता इनके घर। ये लोग जरूर बेच देंगे। पैसे की इन्हें बहुत जरूरत होगी। बेचारे, इनका भी भला हो जाएगा।’
‘वैसे यह बात मजाक की नहीं है। तुम्हारी योजना मुझे भा गई है। घर चलकर इस पर गंभीरता से विचार करूंगा। यहां यदि घर बनेगा तो गांव वालों को घर बनने तक रोजगार मिल जाएगा। यह एक तरह से इनकी सेवा होगी।’ पति के जवाब से मैं गदगद हूं।
मेरे बच्चे अब भी उन लड़कियों के साथ खेल रहे है। इन खेतों तथा इस बाग के बीच एक सुंदर सा बंगला अब मेरी आंखों में तैरने लगा है। शहर चलकर इस योजना पर विचार करना है। पति गाड़ी में बैठ चुके हैं। दोनों बच्चे भी अपनी-अपनी जगह ले चुके हैं। गाड़ी में बैठने से पहले मैंने बड़ी लड़की को पचास रुपये का नोट देते हुए कहा, ‘मेरे बच्चों ने तुम्हारे आम ले लिए थे न इसलिए ये पैसे रख लो।’ नोट हाथ में पकड़ते हुए लड़की ने जवाब दिया, ‘रुकिए पहले मैं बाबा से पूछ कर आती हूं।’
‘रख लो पूछने की क्या बात है।’ लेकिन मेरी बात को अनसुना कर वह दोनों लडकियां अपने घर की तरफ भाग गईं।’
आम पंद्रह-बीस रुपये से अधिक के नहीं रहे होंगे। मैं पचास रुपये दे रही हूं। गरीब हैं बेचारे, खुश हो जाएंगे। सोचते हुए मैं अपनी उदारता पर मन ही मन इठला रही हूं। तभी वे दोनों लड़कियां दौड़ते हुए मेरे पास पहुंची और पचास का नोट मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोलीं, ‘बाबा कह रहे हैं, हम पैसे नहीं लेंगे। अगर हम इन आमों को बेच रहे होते और आपने इन्हें खरीदा होता तो तब हम जरूर पैसे लेते। आपने तो अपनी इच्छा से जबर्दस्ती मेरे आमों को उठाया है। इसके पैसे हम नहीं लेंगे।’
मेरी दानवीरता को धक्का लगता है। अति उत्साह में मैं यह नहीं सोच पाई थी कि चीजों को जबरदस्ती उठा लेना खरीदने की नहीं लूटने की श्रेणी में आता है। कोई भी खुद्दार व्यक्ति लूटी हुई वस्तु की कीमत पाकर कभी खुश नहीं होता।
नोट हाथ में पकड़ कर मैं बुझे मन से गाड़ी में बैठ जाती हूं। पति के चेहरे पर मायूसी है। उन्होंने गाड़ी स्टार्ट कर दी। बाग पीछे छूट रहा है और बाग के बगल में हमारे दर्प का बंगला बिना बने ही धराशायी हो गया है।