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29 November 2015

अशोक मिश्र की कहानी: किरदार

माधव जोशी

भाग्य ने सदैव उसे चक्रवात के मध्य से गुजरकर अपनी राह बनाने की चुनौती दी थी और दुर्दिन, वह तो परछाई की भांति उसकी सहचरी करते थे। अपने होश संभालने तक वह एक आधुनिक ग्रेजुएट से कहीं अधिक कुशलता से फर्राटे के साथ मुहावरे वाली लच्छेदार अंग्रेजी में बाजी मार ले जाने की प्रसंशनीय हिम्मत जुटा सका था। अभी वह कुछ और संवरना चाहता था लेकिन ममतामयी मां का साया दुनिया से उठ गया।

मां उसके लिए एकमात्र संबल या जीने की प्रेरणास्रोत थीं। जाने क्या उसने अपनी मां में देखा और अनुभव किया था कि वह उसे किसी भी स्थिति में अप्रसन्न नहीं कर पाता था। सच तो यह है कि वह ऐसा सोच भी नहीं सकता था।

आम लोगों के लिए उसकी मां एक साधारण औरत थीं और अब कभी-कभार वह ऐसे-वैसे वक्तव्य सुनता तो कुढ़कर रह जाता, बस ! जहर जैसा घूंट पीकर फिर वह बुदबुदाता, 'क्या अर्थ है, उनकी अभिव्यक्ति का जो आत्मा की गहराई को नहीं छूती, सतही होती हैं।’ फिर वह सब कुछ भूल जाता।

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जिंदगी उससे एक के बाद एक छल रचती जा रहती थी। पर अभी तक वह टूटा न था। मां जो उसके पास थी। अब अकेला, पौरुष का अस्त्र लिए जीवन पथ पर अपने उलझे-सुलझे विचारों के ताने-बाने में, अंतिम निर्णय की साध का परिचय देने हेतु वह कैफे की मेज पर बैठ गया। कुछ देर चुपचाप वेटर उसकी प्रतीक्षा करता रहा, जब उसका ध्यान नहीं बंटा तो वेटर ने सलीके से मीनू उसके आगे बढ़ा दिया।

'कॉफी और सैंडविच।’ सुनकर वेटर चला गया। वह फिर अपनी दुनिया में लौट आया। उसके मस्तिष्क में दो प्रश्न हथौड़े की भांति प्रहार कर रहे थे। वह शहर छोड़ दे या फिर यहीं-कहीं नौकरी कर ले। अपने विचारों की तेज दौड़ में वह कभी भागता, कभी रुकता, कभी लौटता। एक परोक्ष मोह, एक परोक्ष संवेदनशीलता उसे लौटा लाती। उसका संघर्षशील जीवन व्यक्तित्व उसे आगे धकेलता।

वेटर ने सामान हुनर के साथ टेबल पर रख दिया और वह कॉफी के गर्म प्याले से उठते हुए भाप की तुलना अपने मस्तिष्क में उठने वाले विचार प्रवाह से करने में खो गया। कुछ देर बाद सेंडविच का एक लुकमा उसने दांतों से काटकर हलक के नीचे उतारा और एक घूंट कॉफी सिप की।

सामने मेज पर बैठा एक हष्ट-पुष्ट व्यक्ति उसकी ओर कभी-कभी गौर से देख लेता था। अभी वह कॉफी और सेंडविच में ही उलझा था कि सामने की टेबल से उठते हुए व्यक्ति ने अपना विजिटिंग कार्ड उसके सामने रख दिया और तेजी से बाहर निकल गया।

जब तक वह माजरा समझ पाता, पतंग कट चुकी थी और वह आदमी टेबल छोडक़र जा चुका था। उसने कार्ड वाले पते पर पहुंचने की ठानी। दो दिन बाद वह तीसरी मंजिल पर पहुंचते-पहुंचते पस्त हो गया था।

स्लिप अंदर भिजवाकर वह मिलने की प्रतीक्षा में रखी बेंच पर दम लेने बैठ गया।

कुछ ही देर में अंदर से बुलावा आया।

'तशरीफ रखिए।’

'शुक्रिया।’

फिर कुछ देर खामोशी छाई रही।

'आपको आने में तकलीफ तो नहीं हुई? दरअसल हमें आप जैसे एक मायूस और मेहनत और लगन के साथ काम करने वाले किरदार की जरूरत है।’

बात बीच में काटकर वह बोला, 'किसलिए?’

'आप मेरी दृष्टि में ऐसे व्यक्ति हैं जो उस कार्य के लिए सबसे अधिक उपयुक्त...’

'कार्य भी तो बताएं।’ उसने फिर बीच में ही टोका, 'मैं एक व्यूह रचना कर रहा हूं, समझो। गोरखधंधा। इसे सफल बनाने के लिए कुछ लोगों की जरूरत है। मुझे तुम पसंद आए।’ कहते हुए हष्ट-पुष्ट आदमी अपनी रिवाल्विंग चेयर पर पसर गया।

'इस विषय में बिना विस्तार से जाने मैं क्या कह सकता हूं।’ 

'तुम हां करो, हम विस्तार से भी बता देंगे।’

'यह कैसे संभव है। हां कर लूं। तब आप बताएं।’

'एक मकसद है जिंदगी का। कुछ लोग इस धांधली और हाथापाई से पूरा करते हैं, कुछ छल और छद्म से...’ बीच में अपनी बात रोककर हष्ट-पुष्ट व्यक्ति ने उसके चेहरे पर नजरें गड़ा दीं। फिर बोला, 'तुम समझ रहे हो मैं भाषण दे रहा हूं। नहीं भाई नहीं। मैं एक टी.वी. सीरियल बना रहा हूं। मेरे पास एक परफेक्ट कहानी है सुनो।’

ऊब सी महसूस करते हुए वह सुनता रहा। पूरी कहानी खत्म होने पर शून्य में छत की ओर निहार रहा था, तभी हष्ट-पुष्ट व्यक्ति ने पूछा, 'क्या निर्णय किया?’

'तो आप अपने मकसद को ईमान और आचरण की नींव पर पूरा करना चाहते हैं। क्या यह इस दुनिया में संभव है?’

'प्रश्न नहीं, मुझे तुम्हारा उत्तर हां में चाहिए।’

'पर मेरा तो एक्टिंग से कभी दूर का भी रिश्ता नहीं है।’ उसने कहा।

'तुम फिक्र न करो। यह हम संभाल लेंगे।’

उसने थोड़ा सोच विचार के बाद हामी भर दी। तारीख तय हो गई और समय निश्चित। वह पहले दिन शॉट के लिए स्टूडियो पहुंचा। उसे एक नारी प्रतिमा को फूलों की माला पहनाना था। यहीं से सीरियल की शुरुआत होती थी।

जब वह मेकअप रूम से बाहर आया और डायरेक्टर की 'रेडी’ की गरजदार आवाज के साथ 'लाईट’ का शब्द गूंजा तब वह तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मुर्दा भयातुर सा चेहरा लिए डरा हुआ सा नीचे देखते हुए चलने लगा।

'कट’ डायरेक्टर की आवाज गूंजी, कैमरा स्थिर हो गया। डायरेटर ने उसके कंधे पर हाथ रखा और सीन की सिचुएशन को फिर से समझाया, हिम्मत बंधाई और फिर आवाज गूंजी 'टेक।’

उसने चेहरा उठाया, माला को अपने दोनों हाथों में थामे आगे बढ़ने लगा। उसके पैर कांप रहे थे। सामने की मूर्ति देखकर उसे अपनी मां की याद ताजा हो आई। वह भाव विभोर हो गया। अपने चेहरे पर सीमित पावन मुस्कान और श्रद्धा भाव का संयोग लिए जैसे ही वह हार डालने बढ़ा कि डायरेक्टर ने कैमरामैन को 'क्लोज अप’ का संकेत किया।

'ओके।’ की आवाज के साथ शॉट पूरा हो गया।

फिर तो वह इसी स्थायी भाव के सहारे पूरे सीरियल में जीवंत किरदार अदा करता रहा। सीरियल पूरा हो कर जब प्रीमियर के लिए प्रस्तुत हुआ तो दिग्गज कलाकारों ने मुक्त कंठ से उसके अभिनय की प्रशंसा की और कहा कि उसका चरित्र पूरे सीरियल में सर्वोत्तम था।

सभी ओर से बधाईयां मिलीं, इंटरव्यू छपने लगे, एक प्रश्न के उत्तर में उसने कहा, 'शायद यह ठीक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपना कोई रोल कर रहा है, परंतु जब उसे अपने रोल के विषय में भली प्रकार पहचान हो, उसकी निष्ठा और श्रद्धा उस रोल में खप जाए, तो मानना होगा कि वह रोल अच्छा होगा। फिर कृत्रिमता और वास्तविकता का अभेदत्व हो जाता है, तब सहज रूप में स्वाभाविकता आती है।’

'आपने इतना जीवंत अभिनय कैसे किया?’ एक अन्य पत्रकार के पूछने पर 'आप विश्वास करेंगे... उस मूर्ति में मुझे मेरी मां की झलक दिखी। धारावाहिक की सारी कथा उसी के इर्द-गिर्द घूमती है, इसलिए मां के प्रति श्रद्धा और भक्ति कभी भी कृत्रिम नहीं बन सकी। मुझे उस हेतु कोई अभ्यास नहीं करना पड़ा, क्योंकि यह तो मैं बचपन से ही करता आ रहा था।’

फिर हंसकर उसने कहा, 'यह भी भाग्य का एक चक्रवात था, जिसमें से जूझकर मैंने अपनी राह बनाई है, आचरण की शक्ति को अनुभव किया है और उसे प्रायोगिक धरातल पर उतारा है।’

इतना कहते-कहते विनम्रतापूर्वक उसकी आंखें छलक आईं और दो मोटे आंसू उसके कपोलों पर लुढ़क गए।

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TAGS: ashok mishra, bahuvachan, अशोक मिश्रा, बहुवचन
OUTLOOK 29 November, 2015
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