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25 April 2015

कहानी - नदी

दादी कहती, हम नदी में रहते हैं। नदी के पेट में।

दादी अक्सर रातों को नींद से चिहुंक कर जागती और हमें बताती कि नदी गा रही है। नदी का गीत-नाद उसे सुनाई पड़ रहा है।

दादी जमीन पर ही सोती। उसे बचपन से जमीन पर ही सोने की आदत थी। घर के दूसरे लोग दादी की बातें सुन कर हंसते। दादी किसी की परवाह नहीं करती। दादा की भी नहीं। दादा उसे मतिमंद समझते। वह विहंसते हुए कहते, ‘बउराहिन है यह औरत।’

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वह अक्सर चलते-चलते रुक जाती और कहती उसके तलवों में गुदगुदी हो रही है। वह हमें बताती कि नीचे जो नदी बह रही है, उसकी धारा में भांवरे उठ रही हैं और यही भांवरें उसके पैरों के तलुओं में गुदगुदी कर रही हैं। हम सब आंखें फाड़कर दादी को निहारते। चकित भाव से उसकी बातें सुनते।

दादा कहते, ‘नदी तो बहुत पहले यहां से दूर जा चुकी है। कई युग बीत गए होंगे। हम सब न जाने कितनी पीढ़ियों से यहां बसे हुए हैं!’

दादा अक्सर पुरखों की कथा सुनाते हुए कहते, ‘कहीं किसी दूर देश के पहाड़ों से उतर कर हमारे पुरखे समतल भूमि पर आए थे। इधर-उधर भटकते रहे। आज यहां, तो कल वहां डेरा डाला। कोसों चले। कभी शीत में ठिठुरे, कभी गर्मी की ताप से झुलसे, तो कभी बरखा के दिनों में डूबे-उतराए। और जीवन की आपाधापी में एक दिन यह भूमि मिली। इसे नदी छोड़ गई थी। कुछ रेत, कुछ माटी। कहीं नम, तो कहीं कठोर। किसिम-किसिम की वनस्पतियां। कुछ लताएं, कुछ झाड़ियां। कुछ वृक्ष। कुछ जीव-जंतु और कुछ जलकुंड। पुरखे यहीं बस गए। अनुभवी थे हमारे पुरखे, सो वे पहचान गए कि यह किसी नदी का छूटा हुआ पेट है।’

दादा, जो दादी को मतिमंद समझते, पीठ पीछे उसकी बात की तस्दीक करते। कहते कि नदी ने इस धरती पर युगों तक बहते रहने का ऋण चुकाया है। नदी यहां खजाना छोड़ गई है। हमारे खेतों में जो फसल लहलहाती है और अन्न के दानों में बदलकर खेतों से खलिहान और खलिहानों से घर की डेहरी-बखरी और चूल्हों तक पहुंचती है, वो सब नदी के छोडे़ गए खजाने से ही निकलता है। हमारे पुरखों ने यहां नए वृक्ष लगाए। इन वृक्षों ने हमें फल दिया। हमारे चूल्हों के लिए आग दी।  उन्होंने इस धरती को जोता। इसमें बीज डाला। धरती की हरीतिमा को सूरज अपनी चमक और चंद्रमा अपनी शीतलता से सींचता रहा। हवा दुलराती रही। भोर और सांझ असीसती रही। पुरखों ने अन्न पैदा किया। अपने पशुओं के लिए यहां नांद बनाया। खूंटा गाड़ा। अन्न, फल, दूध-दही, सब इसी नदी के पेट से उपजता रहा। जन्म-मृत्यु और रोग-शोक-संताप और हर्ष-उल्लास के बीच जीवन उपजता और पनपता रहा। स्त्रियों की देह का भूगोल बदलता रहा और वे गर्भवती होती रहीं। संततियों को जनमती रहीं। जन्म का उछाह बखानते गीतों के बोल फूटते रहे।

दादी दूध बिलोती और हमारी हथेलियों पर मक्खन के ढेले रख देती।

आषाढ़ महीना चढ़ते ही दादी इस धरती को छोड़कर दूर जा चुकी नदी की पूजा करती। वह धरती का एक छोटा टुकड़ा गोबर से लीपती। उस पर हल्दी की अल्पना से नदी की आकृति उकेरती। इस आकृति को सिंदूर से टीकती। अक्षत और फूल और गुड़ का नैवेद्य चढ़ाती। फिर आंखें मूंदकर अपनी प्रार्थनाएं बुदबुदातीं। धीरे-धीरे उसकी अस्फुट बुदबुदाहट की ध्वनि राग में बंधकर लय-ताल पर हिंडोले भरने लगती। दादी गीत गाकर दूर जा चुकी नदी को आने के लिए नेवता देती, बुलावा भेजती। हम सब को बताती कि यह धरती उस नदी का नइहर है। सावन में बेटी का अपने नइहर आना, अपने बाप-भाई की देहरी पर पांव रखना जरूरी होता है। यह हक है उसका।

सारा घर हंसता कि वह बाढ़ को नेवता दे रही है। सब दादी से ठिठोली करते, पर दादी की आस्था अटल थी। वह अपनी बहुओं को भी, यानी मेरी माई और चाचियों को उनके मायके विदा कर देती। आषाढ़ उतरते- उतरते या सावन चढ़ते ही दादी को छोड़कर शेष सारी औरतें अपने-अपने बच्चों के साथ मायके चली जातीं। घर में केवल मर्द होते और दादी।

दादी के बुलावे पर नदी आती। अपने कूल-किनारों को तोड़ती, उमगती-उमड़ती हुई आती। आते ही हमारे खेतों, खलिहानों, बागीचों, बथानों और घर-दुआर में पसर जाती। जल ही जल। नदी के आने से पहले दादी उसके आते हुए पांवों की आहट सुन लेती। नदी को छूकर आती हवा की आवाज के साथ लिपटी हुई आती थी उसके पांवों की आहट। नदी के जल और माटी के मिलन से उपजती उस गंध को भी सूंघ लेती थी दादी जिसे हवा छिपा कर लाती। दादी आसमान की ओर मुंह उठाकर मंड़राते पंछियों को निहारती और नदी के आने का समय भांप लेती।

पर हर साल ऐसा नहीं होता। कई बार तो दादी गुहारती रहती और नदी नहीं आती। आती भी तो नइहर की धरती छूने से पहले ही लौट जाती। कई बार तो ऐसा भी होता कि नदी अपनी ससुराल की देहरी से बाहर पांव भी नहीं निकाल पाती। नदी के न आने से उसके नइहर की धरती का रंग ही बदल जाता। धूसर, प्राणहीन धरती। पल-पल छीजती हुई। मुंह फाड़े, आकाश की ओर टकटकी बांधे। दादी उदास रहती। वह सारी-सारी रात सो नहीं पाती। धरती के अतल से उठता गीत-नाद उसे सुनाई नहीं पड़ता और न ही उसके पांवों के तलुओं में गुदगुदी होती। पर जिस बरस नदी आती और अपने नइहर की धरती की चौखट पखार कर लौटती, डेहरियों-बखरियों में अन्न नहीं अंट पाता। वृक्षों की डालियां, फलों के बोझ से धरती चूमतीं। दुधारू पशुओं के थन दूध से भरे रहते। इतने रंग उपजते माटी से कि देखने वालों आंखें चमकती रहतीं।

दादी के मरने के बाद मेरी माई ने नदी से संबंध बनाए रखा। मेरी माई के मरने के बाद मेरी औरत ने। मेरी औरत को भी रात में सोते हुए नदी का गीत-नाद सुनाई पड़ता। उसके तलुओं में भी अक्सर चलते हुए गुदगुदी होती।

अचानक न जाने क्या हुआ कि सबकी मति मारी गई! नदी और हमारे गांव के बीच एक लंबी और मोटी लकीर बन गई। मेरे गांव और आसपास के गांवों के हजारों लोग कई दिनों तक अपने-अपने घरों से कुदालें और टोकरियां लेकर निकलते रहे और माटी काटकर इस मोटी लकीर को बनाते रहे।

मैं नहीं गया। एक तो बूढ़ी, बिना काबू-बूते की झुकती देह और दूसरे संताप से भरा मन। मैंने मना किया। पर किसी ने न सुनी मुझ बूढ़े की बात। मेरे अपने बेटों ने भी नहीं। उन्हें भी नदी से डर लगता था। एक तो डर और दूसरा हथेली पर नगद मजदूरी। यह जानते हुए कि यह लकीर नदी से हमारा रिश्ता खत्म कर देगी। पुरखों का बनाया यह रिश्ता मिट जाएगा। सबने मिलजुल कर मजदूरी की लालच में बेटी के लिए नइहर का द्वार बंद कर दिया। कई सालों तक नदी नहीं आई। चढ़ते आषाढ़ से वह उमगना शुरू करती। सावन-भादो में बाहर निकलती। सूअर की तरह थूथन उठाए राह में खड़े उस माटी की लंबी-मोटी लकीर से टकराती। अपना सिर धुनती। पछाड़ खा-खाकर लोटती और बिलखती हुई लौट जाती।

आखिर कब तक कोई रोक सकता है किसी औरत को अपनी नइहर की चौखट चूमने से? इस बरस, वह आषाढ़ में थिर रही। सावन में अपने दरवाजे पर आकर वह कई दिनों तक निहारती रही। भादो के पहले पखवारे में भी वह धीर-गंभीर बनी रही और सहेजती रही अपनी पीड़ा, अपनी घृणा, क्रोध। भादो के बीतने से ठीक पहले उसने अपनी ससुराल की चौखट से बाहर पांव निकाला और अपनी सारी शक्ति के साथ जा टकराई उस मोटी लकीर से। लकीर की माथे पर बैठे पहरेदार बह गए। लकीर गायब हो गई। लकीर को मिटा कर वह ऊंचे, विशाल वृक्ष, माल-मवेशी, घर और मनुष्य; सबको लीलती प्रलय-वेग से आगे बढ़ी। वह अपने सारे वसन उतार कर नाच रही थी। आकाश में झूमते उसके उनमत्त प्रेमी मेघ के गर्जन-तर्जन में रुदन, चीख-पुकार और हाहाकार की ध्वनियां लोप हो रही थीं।

अपने कुदालों और टोकरियों के साथ मेरे बेटे बह गए। उनकी औरतें बह गईं। उसने अपने नइहर के वंश को लगभग मटियामेट कर दिया। मेरे घर में मेरे अलावा मेरा एक नन्हा पोता बचा है। नदी जा चुकी है। मरे हुए मवेशियों पर गिद्ध मंड़राते रहते हैं। चारों ओर दुर्गंध ही दुर्गंध। इतना जल आया और गया पर पीने के लिए जल नहीं है। कुओं में गाद भर गई है।

मैं धनुही की तरह झुकती अपनी देह लिए अपने घर की डीह पर खड़ा हूं। अपने पोते का हाथ थामे हुए। मेरे पोते को उसकी दादी ने इस धरती के अतल में गूंजते गीतनाद और अपने पांवों के तलुओं में होने वाली गुदगुदी के बारे में बताया है। मैं चाहता हूं कि मेरे जीवित रहते मेरा पोता एक बार इस धरती के अतल में बहती नदी का गीत-नाद सुन लें। इस धरती के नीचे बहती नदी की लहरों की हलचल से एक बार उसके पैरों के तलुओं में गुदगुदी हो जाए। मैं पंकिल धरती पर अपने पांव रोपता हूं। वह भी। फिर हम दोनों झुकते हैं। नीचे। और नीचे। हम दोनों धरती पर बिछ जाते हैं। हमारे कान धरती से सटे हुए हैं। 

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TAGS: वसंत के हत्यारे, धरती आबा, बटोही, तूती की आवाज, बंधा है काल
OUTLOOK 25 April, 2015
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