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05 December 2015

स्त्री की मार्मिक दशा बयान करती कहानी - निकाह

गूगल

‘शाकिर जब पैले पेल आया तो गोरा-गबरू था। भारी बाजुओं में अलग ही कसाव था।’ अलीगढ़ के मदार गेट की बदनाम गली की नरगिस के चेहरे पर खुशबू के छींटें पड़ रहे थे। पान का बीड़ा दबाती सारुन की भौं सिकुड़ी, ‘अब न रहा बो कसाब का?’ हाल ही बुझी, धुंआ छोड़ती मोमत्ती सी हिली नरगिस। ‘कसाव कुछ बेदम सा होता जा रहा है। केई दफा थूक में खून आ जाए है।’ नरगिस के मुंह पर तिर्यक रेखा सा खिंचाव आ गया था।

‘हैं? अये कैंसर-बैंसर तो न है?’

‘न-न ऐसा तो कुछ बताया न उसने। अबके आए तो तुम नजर भर  देखियो। उसके निचले होंठ पे जले का गहरा घाव है।’

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‘किसने जला दिया उसका होंठ? कहीं और भी जाबे है का?’

‘अमां कौन जलाएगा। बाजा बजाबे है केई घंटे  बेरोक। बाजा रहबे पीतल को। बजाबत रहने से पीतल गरम हो जाए है और लगे शाकिर को होंठ जलाने। अब करे भी का। दिन में कैइ घटा परेक्टिस फिर रात दो-तीन सिफ्तन में ब्याह बाजा। यंई बरब्बर गली के बादशाह बैंड में बाजा बजाबे है।’ महबूब का दुख नरगिस के चेहरे पर पुता हुआ था।

‘तुझे तो न होगा कुछ?’

‘अए अब मुझे क्या होगा ?’

‘अब ऐसी नादान भी न है। जब वह जले होंठों से तुझे चूमता होगा तो क्या तुझे इनफैक्सन न होगा?’

‘अरे तुम भी क्या ले बैठी। अल्लाह मियां का शुकर कर कि जब वह ऐसा करता होगा उसे कितनी तकलीफ होती होगी। फिर भी कभी मुझे चूमे बिना नहीं रहता।'

‘अच्छा और तो कुछ न है उसे?’

‘हं आपा, बता रा था पैले कहीं और ढ़ोल भी बजाया करता था। हाथ देखियो उसके। अल्लाह कसम ठेठ भरी पड़ी है दोनों हाथन में।’

‘तेरे बदन पे चुभते न होंगे क्या?’

‘उसका दुख चुभे है मुझे। ऊपर से मुआ दिन भर बीड़ी–गुटका चबाता रहे सो अलग।’

‘अरी, पान तो तेरे मुंह को भी न छोड़े कभी। एक बात तो बता, तुझे का गाहकन की कमी है जो इस बीमारी को गले लगाय है।’

‘न, न आपा, हर रात अंधेरा गाहक बन के आए है, पर देवे तो स्याही ही है न। शाकिर रात का उजला धब्बा है और इस सफैद दाग में मुझे धूल धूसरित रोशनी नजर आए है।’ नरगिस का चेहरा नरगिसी हो गया था।

‘पर तुझे एक बात कहे देती हूं, तू शाकिर से दूर ही रै। जाने कब उसकी बीमारी तेरे गले पड़ जाए।’

‘आपा, अब तो ये बीमारी गले पड़ गई ही जानो।’ उसके लफ्जों से उस रोग की बूंदें टपक रहीं थीं।

उस रात शाकिर ने तीन शिफ्टें बजाईं। फटे फफोले से लसीला पानी सूख चुका था। लगातार बजाने से उसका हिस्सा गहरा काला हो गया था। बिलकुल उस घनियारे बादल की तरह जो चौमासे में लगता है कभी रीतेगा ही नहीं। कभी सफेदी ओढ़ेगा ही नहीं। हां, लाल पानी का पतनारा जरूर बार-बार छूट निकलता। वह उसे हर दफा उबकाए रुमाल से पोंछता। रुमाल फिर यहां-वहां से भर जाता। ऐसी हालत में उसे ठौर मिला नरगिस के दर। और नर्गिस जैसे बैठी थी इसी आस पे दोनों जहां लुटाने। हाथों-हाथ लिया उसे। ‘हाय दैया, इत्ता बजाने की कै जरुरत थी भला।’

‘थी नरगिस, तुम नहीं समझोगी। तुम और हम तो रोज की कमाने खाने वाले हैं। इसी रोजी के आसरे तो फसल के खात्मे पे शहर आया था।’

‘हां, बो तो ठीक है शाकिर मियां पर कुछ अपना हाल तो देखो।’ फिर गुफ्तगू आबाद हो गई शमा की रोशनी में।

दोपहर की धूप सेकती नरगिस के चेहरे से खुशगवार बयार बह रही थी। सारून की बूढ़ी आंखों ने कुछ समझा और कुछ जायजा लिया।

‘कै बात है नरगिस, आज तो…|’

‘आपा, हम निकाह करने की सोच रे हैं। तुम तो साथ दोगी न?’

‘ब्याह और बैस्या? काहे इत्ते खन मजाक करे है बुढ़िया से?’

‘आपा, एक बात तो बता, रंडी कौन होबे?’

‘एक औरत जाय कई मरद भोगे, बो।’

‘तो एक मरद ब्याहने पे भी सायद भौतेरी औरत रंडी होती हुंगी।’

‘का बक रई ए?’

‘सोले आने सच्च कै रइ ऊं। भुगत भोगी ऊं। बचपने में रईस बाप की छोरी। एक अंकल आए करते। मैं पांचेक साल की रई हुंगी। पापा और बे दोनों जने बैठते। काजू खाते, दारू पीते। मां सज सजा के बैठतीं। बारी-बारी से मां पापा और अंकल के पास जाती। फिर बे पापा के पीछे भी आन लगे। मां ने बुरो मानो तो पापा ने फटकारो मां कू, 'मेरो यार है बो। मेरी फैक्ट्री में बाको पैसा लगो है। जादा सती साबित्री बनने की जरूरत न है।' मां के साथ ही साथ मैं भी अंकल की गिरफ्त में आबे लगी। मेरे लए भोत सुंदर सुंदर गुड़िया लाते। मोय देते। कहते, ‘तुम जैसी खूबसूरत है ये भी।’ उनके रेशमी बालन पे हाथ फिराते कहते, ‘कितने सॉफ्ट बाल हैं न इनके।’ यकायक उनके कपड़े उघाड़ देते। ‘अंदर से भी इतनी ही सॉफ्ट है बिलकुल तुम्हारे जैसी। फिर मेरे भी कपड़े उघड़ने लगे। मैं भी उन खूबसूरत गुड़ियों की नाईं नर्म, चिकनी, रेशमी है गई। अंकल की खुरदरी हथेलियां मेरी नदी सी फिसलती त्वचा पर नाव बन लहराने लगी थीं। उनकी आंखन के लाल डोरे मेरी नदिया में हिचकोले लेते इससे पहले मेरी मां को यह कतई गवारा न भयो। कैइ दफा की तरह उस बार भी जैसे ही उन्होने मेरी फ्रॉक उघाड़कर नीचे का कपड़ा खींचा मां आपे में न रही। ‘बस्स अपनी तईं सब सहन किया मैंने। मेरी बेटी को छुआ भी तो…’

‘मिनट के अंदर मां-बेटी को बाहर कर दूंगा। मेरी बदौलत घर है और तू इसमे है। तेरा पति दिवालिया है। भिखारी है।’ मुझे छोड़ मां पर बुरी बीती। मां-पापा को कहती तो उनकी बीरता मां पर ही उतरती। शराब के नसे में बे मां के होंठन कू अपने होंठन मे लील लेते। मां के सब्द टीस में तरमतर वापस हो दिल के खड्ड में जमा होते जाते। पति के हाथन के नीचे उसकी हाथन की नसें, टांगन के नीचे उसकी टांगें सिसक भी न पाती। कराहती रहतीं बेआवाज। उनकी टांगन के बीच का हथौड़ा उसकी कोमल सुरंग में बेतहाशा चोटें करता जब तक वह खूनमखून न हो जाती। फिर अपने फुंफकारते घमंड को वही टपकता छोड़ विजइ मुद्रा मे सूरबीर विस्राम करता। मां बैचेन, कुटी-पिटी, लालम्लाल, रोती कलपती अपने अंदर के दरद को संकरी गली में ही दबाए रहती। जमा करती रहती उसकी टूटन, थकन और नफरत।’ ‘तो…तू यहां तक?’

'एक दिन मां से बर्दास्त न हुआ। अंकल ने मां की जिंदा गुड़िया को बिस्तर पे डाल दिया। गुड़िया रोती रही पर वह हैवान उसे उघाड़ने में लगा रहा। मां ने पीतल की मूर्ति उठा दे मारी उस राक्षस के सिर पे। वहीं ढेर। मां भाग निकलीं मुझे गोद में छुपा।’

‘हाय, अल्लाह, तूने तो रुला ही दिया। फिर कहां पहुंची तुम?’

‘कहां पहुंचना था आपा। जब घर का मरद बेगैरत निकला तो बाहर वालों का तो तुम जानो ईयो। ट्रेन में एक एनजीओ वाला मिला। वह हमें ले गया। मुझे थोड़ा पढ़ाया और बेच दिया। मैं आ गई इहां।’

‘तेरी मां?’

‘मां…’ टीस उठी नरगिस के मन में। ‘मां तो उसी लम्हा सदमे में आ गई जिस पल अपनी बारह साल की बेटी को एनजीओ वाले के बिस्तर में देखा। अब बताओ, घर बाहर औरत है कहीं की। दोनों ही मरदन के हैं। जमीन-आसमान कछु औरत कौ न है। एक इंच भी न। मिले तो धरती की झुलसाने बाली आग और आकास की चीरने वाली तूफानी हवा।’ ‘सई कै रई ए। सुकून तो सिरफ आदमिन के रजिस्टर में ही लिखो है| औरत को पन्ना तो आग में ई सुवाहा है। औरत को पूरो लबादो दरद से ही सिलो है।’ आह छोड़ती बोली, ‘तो तू हिन्दुआनी ए।’

‘अरे आपा,’ ठठाकर हंसी नरगिस। ‘जात और औरत की? जो मरद रखे उसे, बोई उसकी जात, उसका धरम। न रखे तो रंडी। अब रंडियां भी कोई हिंदू-मुसलमान हुआ करें? रतजगे से पैले आज तक पूछी किसी ने हमारी जात? औरत है  येई जात भोत ए हमारी। जेई चइए मरदन कू।’

बात का सिरा दूसरी तरफ मोड़ते हुए आपा बोली, ‘पर तू तो कै रइ कि शाकिर का घर-बार है, जोरू है।’

‘हां, आपा सब था। साल दर साल फसल खराब हैती रही। कर्ज अलग। खेती के लए खाद, बीज, पानी के तांई कर्जा ले रखो थो।’

‘अए ऐसे क्या फक्कड़ था निरा।’

‘उसके अब्बू की पुरानी करजदारी थी। तुम तो जानो हो सूदखोरन कू। सूद पे सूद, सूद पे सूद। मूल तो निरा वहीं कै वहीं पड़ा रै है गोबर के चौथ सा। बस्स आई साल फसल ऐसी बिगड़ी कि कर्जा उठने में ही न आया। सब बिक गया। अब्बू-अम्मी तो पैले ई अल्ला मियां ने बुला लिए। किसानी कर्जे ने उसका खेत, घर, जमीन सब बेच दिया। बो जब यहां था उसकी जोरू बीमार पड़ी। घर में दाना तक न था। मुंह से खून की उलटी हुई। ढेर खून और काम तमाम। इसे खबर लगी तो लुट चुका था। सिर पीट मर लिया। अबकी बार पगलाया सा आया था इधर।  दिल भर न सका इसका। इसकी आंखों की वीरानी ने मेरे दिल में समंदर भर दिया। ज्वार आया और हमें एक कर उठ गया। अब बो चाहता है कि शादी… ।’

‘रहोगे कहां? चकला नहीं चलाएगी तो इहां कहां ठौर है?’

‘यां न आपा, अनाथालय ए। वहीं काम करिंगे और रहेंगे। बात कर ली है उसने। सैन करोगी न आपा कोरट के रजिस्टर में।’ नरगिस की आंखें चमक रही थीं।

‘हं हां।’ आपा की निगाहों में वेश्या और बैन्ड बाजे वाले का जोड़ा झिलमिला रहा था। 

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TAGS: shobha rastogi, nikah, शोभा रस्तोगी, निकाह
OUTLOOK 05 December, 2015
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