कहानी - प्रेक्षागृह
जब-जब हम दोनों मिलते, अपने समय और समाज पर गंभीर बातचीत करते थे। दोनों की भावनाएं एक जैसी होने के बावजूद सामंजस्य बैठाना कठिन होता था। दोनों समाज के हित में समय के साथ चलने पर सहमत होते थे। फिर भी न मालूम क्यों एक अजीब बात होती थी। जब भी अपनी परंपराओं पर बातें करते तो, कई बार हम दोनों की बांहें चढ़ जाती थी। एक दिन उसने कहा, ‘क्या हमें ऐसी परंपराओं को उसी रूप में अपनाना चाहिए जैसे कि समाज में हम देख रहे हैं? वे परंपराएं जो कि बजबजाती नालियों की तरह बदबू मार रही हैं।’
उसने अच्छी बात कही और मैंने उसका भरपूर समर्थन किया । उसने आगे जोड़ा, ‘नहीं, हमें हमेशा प्रदूषित धारा के विरुद्ध तैर कर नया कुछ करने का प्रयास करना चाहिए।’
‘ऐसा प्रयास जो हमें नदी की धारा के विपरीत दिशा में ले जाएगा। यानि अपनी पूरी शक्ति उसके तेज बहाव को काटने में व्यय करनी चाहिए।’
‘हां यही धारा के विरुद्ध चलकर देखो, इसमें भी अलग आनंद की अनुभूति होगी।’
मैं उसके उस आनंद में शामिल होने की सोचने लगा। अब तक रामगंगा की जलधारा कन्नौज में गंगा में मिलती रही। बैजनाथ से फूटी जलधारा का लाखों लाख घन लीटर पानी गंगा में मिलता रहा है। रामगंगा ही नहीं, हिमालय की गोद से निकली नदियां गंगासागर में समाती रही हैं। फिर भी जीवनदायनी गंगा का जलप्रवाह खारे पानी के समुद्र को आज तक स्वच्छ, निर्मल और जीवन के लिए जरूरी नहीं बना सका। अच्छा होता इस पानी को हम रोक लेते।
उसका सोचना मुझे अच्छा लगा और मैंने कभी भी उसकी भावनाओं के विरुद्ध जाने का साहस नहीं किया। वह जैसा भी कहता, मैं उसका अनुसरण करता था। धीरे-धीरे वह मुझे अपना अधिक विश्वसनीय और करीबी लगने लगा। उसकी आत्मीयता मुझे उस समुद्र की गहराई में ले गई, जहां मुझ जैसे हजारों हजार प्रकार के जीव पल-बढ़ रहे थे। एक अलग दुनिया जो, हमारी अपनी सांसारिकता से एकदम अलग और भिन्न थी। उसने दिन को रात, जीवन को मृत्यु और मोक्ष कहकर मुझे एक ऐसी दुनिया में ले जाने की सोचता रहा जहां उसकी अपनी पहुंच थी। वह जैसा भी कहता, मैं अराध्य भाव से अपना सिर हिला लेता। और जब मुझे सिर हिलाने की आदत सी बन गयी है- आज चाहते हुए भी सिर हिल नहीं रहा है। एकदम नजर टिकाए उसे घूर रहा हूं - उस रूप में नहीं घूर रहा, जैसे भिखारी दानी को, पुजारी भगवान को, प्रेमी प्रेमिका को और गिद्ध मरे जीव को देखता है। मेरी विचित्र स्थिति एकदम बदल गयी है। मेरी आंखों में बाज की रोशनी आ गई है।
ऐसा नहीं है कि इस प्रेक्षागृह में पहली बार आया हूं - बीसियों बार आना हुआ है। वह रंगमंच का एक अच्छा अभिनेता है। और मैं नियमित उसका दर्शक और प्रशंसक रहा हूं मालूम नहीं क्यों आज वह मुझे हमेशा की तरह सहज नहीं प्रतीत हो रहा है। जब भी वह अभिनय के लिए इस प्रेक्षागृह में आया, मैं छाया की भांति उसके करीब रहा हूं। परंतु आज सब कुछ बदल गया है। इस प्रेक्षागृह में वह दबे पांव चला आया। आश्चर्य! क्या उसके लिए आज सूर्य नहीं उदय हुआ। रात में चंद्रमा ने अपनी कलाएं नहीं बदलीं। धरती अपनी धुरी पर नहीं घूमी। क्या समय ठहर गया है। इसीलिए प्रेक्षागृह में दर्शक नहीं आएंगे। इस रंगमंच पर सिर्फ वही अभिनय करेगा और वह स्वयं ही अपने अभिनय को देखेगा। या फिर उसके अभिनय को मैं देखूंगा।
हां, यही विधि का विधान है। परंपराओं से मुक्ति पाने का एकमात्र विधान। उसके पिता ने एक बार मुक्ति क्या ली, इस दुनिया में अब लौटकर नहीं आएंगे। कभी, शायद उसी पीड़ा-वेदना का प्रतिफल ही उसे मंच के उस कोने पर ले आया है । मैं उसे देख रहा हूं - वह अवाक खड़ा पिता की मृत्यु उसके लिए चलाचली का खेल नहीं है। वह एक साधारण घटना नहीं है उसके लिए। अब वह कभी भी पिता को स्पर्श नहीं कर सकेगा। सिर्फ उनके होने को महसूस कर सकेगा। मां जीवित है। वह भी, उसके पिता के न होने के एकांत को अनुभव कर रही है। उसका जीवन अकेला और कठिन लगने लगा है। अभी 15 दिन हुए, उसको पिता से नहीं मिले। मां इन दिनों में बावली हो गई है। बीसियों बार कह चुकी, उसके पिता कब लौटकर आएंगे। वह कहां गए। उन्हें ढूंढकर ले आओ रामगंगा की अतल गहराई से। उसी ठौर पर ही तो होंगे जहां उनके शरीर को पंचतत्वों को समर्पित किया था।
उसने जीवन में मां के शब्दों को व्यर्थ नहीं जाने दिया और आज जब पिता की स्मृति लौटा लाने को कहा तो दबे पांव वह इस प्रेक्षागृह में चला आया। और मैं जब अंधेरे में हाथ को हाथ नहीं दीखता, कस्तुरा को कस्तुरी नहीं दीखती और मछली को अपने शरीर का पसीना नहीं दीखता, ऐसे में उसके इस प्रेक्षागृह में चले आने का अहसास मुझे कैसे हुआ। मैं भी यहां चला आया। मैंने आवाज देकर उस से पूछना चाहा। परंतु प्रेक्षागृह में इस तरह संबोधित करना न मेंरे आचरण के अनुकूल था और न दर्शक दीर्घा से अभिनेता को संबोधित करने की अनुमति थी। शायद यही निषेध का भाव भी उसने मेरे आचरण में शामिल कर दिया था।
खैर! रंगमंच को उन सभी ऐसी शर्तों से मुक्त रखा गया है। इस संबंध में भी उससे बात हुई। इसे वह कभी मुक्ति कहता था तो कभी आजादी। यानी 15 अगस्त, 1947 जैसा एक दिन। हास-परिहास, हंसी-खुशी, रोना-धोना, चीखना-चिल्लाना यह सब रंगमंच पर ही संभव है। एक दिन मैंने उससे एक छोटी सी जिज्ञासा प्रकट की - ‘सुनो, लोग इस दुनिया को रंगमंच मानते हैं और तुम प्रेक्षागृह के इस मंच को। अजीब बात है, तुमने इसकी सीमाओं में स्वयं को बांध लिया है। आखिर क्यों? इस सीमा परिधि से बाहर आओ, रहस्यमयी दुनिया को देखो, यह दुनिया विशाल है। बहुत कुछ है यहां जानने-समझने और नया कुछ करने को।’
वह एकदम गंभीर हो गया था- ऐसा ही, उतना, जितना आज है उसने धीरे से कहा था- ‘‘जिस दुनिया की बात कह रहे हो, वहां वास्तविकता में ऐसा कुछ नहीं है। एक छोटी सी खुशी भी कहां है दुनिया में।’
‘खुशी! कहां है?’ वह ठीक ही तो कह रहा है। मैंने स्वयं से पूछा, मैं उसकी बात पर अधिक सोच नहीं पाया। आग की भांति प्रज्ज्वलित मेरी जिज्ञासा यकायक शांत हो गई।
प्रेक्षागृह में प्रवेश करते ही यह प्रश्न मैंने स्वयं से आज भी किया था। न मैं चिल्लाया था, न उसे संबोधित किया था। फिर भी वह मेरे होठों पर मचल रहे शब्दों को उड़ा ले गया। आश्चर्य यह क्या सोच रहा हूं - आज उसने मेरे शब्दों को छीना है, कल मेरे हाथ-पांव और एक दिन। वैसे दुनिया में कौन भला दूसरे की खुशियां नहीं छीनता। यही तो कह रहा है। हम एक-दूसरे को खुशियां देने की बजाय, रोटियां छीनने के सिवाय करते ही क्या हैं?’
‘यही तो - पूरे सतासठ साल हो चुके हैं - छीनने-झपटने के खेल को। कहां है खुशी-खुशहाली खेत-खलिहान में। ‘फिर वही, छीन ली मेरी मन की बात। अब तो वह अभिनेता से कुछ और ही लगने लगा है। इस समय उसने जितनी सहजता से बात कही और फिर तेजी से उसने मेरी तरफ पीठ फेरी, लग रहा है, कुछ है, जो वह मुझसे छिपा रहा है। परंतु उसकी गिद्ध दृष्टि का अनुसरण करना मेरे लिए संभव नहीं। फिर भी उत्सुकता की छलांग को मैं रोक नहीं सका। आश्चर्य से आंखें खुली रह गईं। वह मंच पर एकांत में इसीलिए आया होगा, ताकि उन मृतप्रायः चीजों को आंख भरकर देख सके। क्या है उसके हाथ में - टाइपिंग मशीन, कंप्यूटर या फिर कुछ और।’
मैं आगे कुछ सोच पता, उसने बिना मेरी तरफ देखे ही, मेरे विचारों की मशीन को पढ़ लिया और पूरे प्रेक्षागृह में अजीब तरह का शोर गूंज उठा। मेरा अनुमान ठीक निकाला ई.वी.एम., जिसके लाल बटन को दबाकर, उसके जीवंत होने का परिचय उसी ने दिया।
इ.वी.एम. के शांत होते ही थोड़ी देर यानि पल दो पल में फिर से एक तरह की शमशानी चुप्पी प्रेक्षागृह में फैल गई। इस बीच न मैं और न वह स्वयं को जीवंत अनुभव कर रहे थे, बल्कि केवल इ.वी.एम. अपने होने को जतला गई। जिसका स्पर्श मेरे मन मस्तिष्क पर और उसके भी। इसीलिए वह चीखा, ‘लो, अब हो गया।’
‘हां, हो गया अब, समय बदल चुका है, हजारों हजार घन फीट ग्लेशियर निहाल हो चुके, लाखों लाख ट्रक कोयला धरती के सीने को चीरकर धुआं हो गया।’ मैंने स्वयं से कहा। मेरा स्वयं से कहना भी उसने सुन लिया। चेहरे पर एक अजीब तरह की गंभीरता का मुलम्मा चढाया हुआ, मैं इससे अधिक उसके विषय में सोच भी नहीं सकता था। मैंने उसे जब भी मंच पर खड़ा अभिनय करते देखा, उसके चेहरे पर मुलम्मा चढ़ा हुआ देखा। मैं उसके चेहरे को ठीक से न देख सकूं इसलिए उसने दाएं-बाएं देखा और फिर बोला ‘इतने सालों में हम एक मशीन का निर्माण कर सके हैं।’
‘ठीक कह रहे हो।’ जिस स्थान पर हो वहां से इससे अधिक तुम सोच भी नहीं सकते। काश! इस मंच से कहते, ‘बरखुरदार मैंने सिर्फ तुम्हारा मन-मुखड़ा ही पढ़ना नहीं सीखा। लूट-खसोट, मंहगाई, भ्रष्टाचार, आगजनी, बाढ़, सूखा को रोकने की मशीन का निर्माण कर, उसकी भाषा को भी पढ़ना सीख लिया है।’
मैं इतना ही सोच सका था कि एक अजीब किस्म के भय से मेरे पांव हिलने लगे। एक अदृश्य भय से कंपकपी छूटने लगी। कहीं यह मेरे मन को न पढ़ ले। वही हुआ। वह चीखा, ‘देश की संपूर्ण धरती की उर्वरा शक्ति को कौन खत्म कर रहा है। इसके विषय में भी सोचते हो कभी। मैं या तुम नहीं, नहीं सिर्फ तुम, मैं नहीं।’
उसने इतना भर कहा और सोचता-विचार करता मंच पर टहलने लगा। जहां मध्यम-मध्यम रौशनी फैली हुई है। वह रौशनी उसके प्रभामंडल की भांति उसके हिलने-डुलाने को प्रकट कर रही है। उसके कदम उस इ वी एम की तरफ तेजी से बढ़ने लगे हैं और उसने हाथों में उसे उठा लिया। शायद उसके लिए वह एक खिलौना था जिससे वह एकांत में खेलने आया है। ओह भगवान यह क्या, उसने सचमुच मेरी सोचने की शक्ति को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। इसीलिए दोहरा रहा है, ‘नहीं-नहीं यह सिर्फ इ वी एम है इससे अधिक कुछ नहीं। घबराओं नहीं। इससे अधिक अविष्कार का भ्रम न पालो।’
‘ठीक है। इससे अधिक सोचना मेरे लिए ठीक नहीं। सोच-विचार पर अब तुम्हारा ही अधिकार है बंधु!’ तुम ही इसे उलट-पलट कर देख-समझ लो, बस।’ उसने मेरे विश्वास को मजबूती देने के लिए इ वी एम के उस बटन को फिर से दबा दिया और कर्कश स्वर प्रेक्षागृह में फैल गया। मैंने उसे ध्यान से देखा, वह मुस्कुरा रहा था, जैसे कोई रहस्य, कोई चमत्कार उसमें से उसके हाथ लग गया हो, जिसे सिर्फ वह समझ रहा है।
‘हां, मैं समझ रहा हूं।’ तुम क्या समझोगे, जड़ मूर्ख। रोज-रोज प्रेक्षागृह में उकड़़ू बनकर बैठने के अलावा तुमने किया ही क्या है।’
‘यह भी कहने की बात है भला। मैं-मैं तो सिर्फ तुम्हारे अभिनय को देखने चला आता हूं। फिर लौट जाता हूं।’
इस समय वह खुलकर मुस्कुराया और मुझसे कहा, ‘इस बीप के रहस्य को सुनोगे।’ इस समय उसने जोर से ठहाका लगाया, ‘बहुत कुछ है इसमें। इसके भीतर, 67 वर्ष के इतिहास के शानदार पृष्ठ दर पृष्ठ हैं।’
‘तब तो यह चीख उसी इतिहास की होगी।’ मैंने स्वयं से पूछा।
हां। पूरे सतासठ वर्ष हो चुके हैं। कहां है खुशी-खुशहाली- फिर वही- दरअसल बात यह है -मैं इसके भीतर बंद पृष्ठों को पढ़ना चाहता हूं। इसमें छुपे रहस्य को जानना चाहता हूं, आखिर बंद पड़ा इतिहास क्यों चीख रहा है? कहीं इतिहास की गति की सूई समय के विपरीत दिशा की तरफ तो नहीं।’
उसने गंभीरता से कहा, ‘क्यो मुझे इसके भीतर बंद गांधी, नेहरु, सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद और स्वामी विवेकानंद के शब्द सुना सकते हो।’ मेरे मन में उत्सुकता हुई।
एक बार फिर चीख प्रेक्षागृह में फैल गई है और मैं उसे सुन भी रहा हूं। मुझे लग रहा है, मंच पर फैले घने अंधेरे में भटक रहा कोई पात्र, संवाद भूल गया। परंतु उसके अलावा तो वहां कोई नहीं है।
धीरे-धीरे वह चीख दब गई। मेरे कानों में सीटी सी बजने लगी। हालांकि, मैंने रेल में बहुत समय से यात्रा नहीं की। रेल की सीटी को सुने सालों बीत गए। मेरे बच्चें भी ‘छुक-छुक करती आई रेल‘ कविता को नहीं पढ़ते। उनके लिए इस कविता के मायने बदल गए हैं। तो फिर आजाद भारत के जननायकों की आवाज भी हो सकती है इसमें।
‘नहीं, ऐसा हो भी नहीं सकता। यह सही है वर्तमान को दूसरे पल इतिहास होना है। खैर!’ उसने झट से कहा और वह फिर इ वी एम की तरफ बढ़ने लगा है। उसी बटन को दबाने को उसकी अंगुलिया तन गई हैं। यह क्या? उसकी अंगुलियां क्यों कापने लगीं - हाथ क्यों कांपने लगा। ओह, यह मैं क्या देख रहा हूं। उसका पूरा शरीर ही कांपने लगा है।
‘हां, मेरा शरीर थरथराने लगा है। यह मेरे मस्तिष्क के नियंत्रण से बाहर लगने लगा है - ‘सुनो, ध्यान से सुनो, यह सच है इसमें किसी जननायक की आवाज नहीं है। इसमें सिर्फ दर्द-पीड़ा, चीख-चिल्लाहट और भूख है।’
‘तब तो इसमें तुम्हारे पिता की आवाज होगी और मेरे पिता की भी।’ मैने पूछा।
उसने ई वी एम पर सुनने के लिए कान लगाया। उसके चेहरे की हवाइयां उड़ने लगीं। ‘यह क्या?’ उसने चौंक कर कहा, ‘अजीब यंत्र है। 1984 का शोर, बेतहाशा मंदिर की बजती घंटियां, रेल यात्रियों का यह मिलाजुला कोहराम। क्या है यह। ई वी एम या भानुमती का पिटारा, जिस तरफ देख रहा हूं, चीख चिल्लाहट के सिवाय कुछ नहीं सुनाई पड़ता। बटन है या फिर किसी की दुखती रग।’
‘यह मशीन है, बंधु, इसमें प्राण तत्व नहीं होते। इसीलिए इसकी बीप में न संवेदना, करूणा और दया होगी और न सिर्फ अबूझ पहेलियां। हां अनकहा इतिहास अवश्य हो सकता है। अब तक मैं जितना समझ पाया, इसमें न इंसान है न इंसानियत सिर्फ अतीत कैद है। वर्तमान भी नहीं है और भविष्य की तो सोच भी नहीं सकते। इसीलिए सच कहते हैं अतीत मरता नहीं, चीखता है। और यह चीख वही है।’
अब तक मुझे सिर्फ उसकी आवाज सुनाई दे रही थी। वह भी थम गई है। प्रेक्षागृह में गहरा अंधकार। मुझे अपनी सांसों की आवाज ही सुनाई पड़ रही है। मुझे यहां से बाहर निकल जाना चाहिए। गार्ड दरवाजा बंद कर सकता है। और मैं यहां बंद हो सकता हूं। मुझे संदेह हुआ और एक भय मेरे मन में पैदा हुआ। वह फिर फलने-फूलने लगा। फलदार वृक्ष होता तो फल झटक कर लपक लेता, परंतु मेरी अंगुलियां यकायक कानों पर गईं। बाहर से आता शोर प्रेक्षागृह की खामोशी से कहीं अधिक भयावह सुनाई देने लगा है।
अंधेरे को टटोलता, मैं बाहर जाने की सोचने लगा। उसी पल मन में ख्याल आया कि ऐसे समय में बाहर जाना ठीक नहीं बेहतर है कि एक किरण प्रकट हो तो उसके सहारे बाहर निकला जा सकेगा। उसी क्षण यह भी ख्याल आया कि कानफोड़ू आवाज से बचने के लिए जेब में रूई का होना जरूरी है। उसी क्षण यह सब भी धूमिल पड़ गया कि किसानों ने कपास पैदा करना छोड़ दिया है। कहते हैं, उसे दुनिया की काली नजर लगी है। इस समय उसकी मां यहां पर होती तो स्पष्ट कहती, ‘नजर से बचने के लिए काला डिठौना जरूरी होता है।’ मगर अब तक फसल सूख गई है। किसानों ने ऐसे जीवन से तंग आकर पेड़ों पर लटकना शुरू कर दिया है। सूखे खेतों को देखते रहने की बजाय उनके पास यही रास्ता बचा था। वे आत्महत्या की दौड़ में शामिल हो रहे हैं, इसके पिता की तरह।
ओह, मैं ज्यादा ही सोचने लगा हूं। यह सोचना मेरी अपनी सेहत के लिए ठीक नहीं है। हमेशा पीड़ा जगाती सोच ही तो मन को सुखाती है। सूखकर कांटा बनकर दुनिया को अलविदा करना ठीक नहीं । मेरा दर्शक दीर्घा में सोचना भी उचित नहीं। कोई सुनने वाला भी तो नहीं है यहां। मंच पर दिप-दिप करती प्रकाश की किरणें मुझे सिर्फ उसके होने का अहसास अवश्य करा रही थीं।
फिर भी मैं बाहर निकल आया। झमाझम बरसते मेघों का शोर प्रेक्षागृह में सुनाई पड़ रहा था। संतोष हुआ यह पता पहले लग चुका होता तो मन को समझाता, बाहर जीवन बरस रहा है। देखा, अब सोच रहा हूं, क्या जरूरत है यहां बरसने की। कालीदास होते तो कहते, चले जाओ दूर गिरकंदराओं में, विध्यांचल और विदर्भ की छोटी-छोटी उपत्पाकाओं में। सूखे मैदानों में। बरसो भी तो वहां जहां बरसने का मोल हो। वहां बरसोगे तो जीवन बरसेगा। सूखी डालियां हरी होंगी, खेत-खलिहानों में हरियाली लौटेगी।’
मेघ बरसते रहे ।
मैं प्रेक्षागृह में लौट आया।
वह अभी भी ई वी एम को घूर रहा था। मैं दबे पांव अपनी सीट पर बैठ गया। मेरा प्रयास था कि मेरी उपस्थिति का अहसास उसे नहीं हो। बिना उसे सूचित किए मैं प्रेक्षागृह में चला आया था। मेरी छोटी सी असावधानी उसे संवाद भुला सकती है। उसके एकांत को विचलित कर सकती है। यह मैं भलीभंति जानता था। ऐसा सोचते-सोचते मेरे पांव कब बिल्ली के पंजों में तब्दील हुए थे। उसका मुझे पता नहीं चला था। मेरी तरफ नजर दौड़ाए बगैर वह बोला, ‘लौट आए।’
‘हां, लौट आया। गांव में कोई नहीं था। चारों तरफ वीरान। पहाड़ों ने नजर झुकाना अब तक नहीं सीखा। मैने उनसे पूछा, ‘कहां है बचपन?’ वे मौन साधे खड़े रहे। मैं उस पगडंडी पर भी गया, जहां हम अपने मवेशियों के साथ छुपन-छुपाई खेलते थे। बचपन की याद आई। अभी बाहर बरसते मेघों को देखकर। मैंने मेघों से कहा भी, तुम वहां जाओ। पहाड़ों की समतल ऊंचाईयों में जहां पानी की बूंद के लिए जीवन तड़प रहा है। जीव-जंतु ही नहीं मां के स्तन भी सूख गए हैं।’
‘बस! यही।’ उसने इतनी सहजता से कहा जैसे यह भी कोई कहने की बात है। ‘औरतें पानी के लिए रामगंगा की रेत को खोदती हैं। दिन भर चुल्लू भर पानी पीतीं और उतने से ही घड़ा भरती हैं। दम लेती चढ़ाई में वे खुले में शौच नहीं करती। पत्थर की ओट या घने वृक्ष की छाया में वह शरीर से बहते चुल्लू भर पानी की नमी को भी बचा लेना चाहती हैं।’
‘और’
‘बुजुर्ग सूखी रोटी का कौर तोड़कर उसे हथेली पर छुआते हैं ताकि जीभ में धरती के नमक का अहसास बना रहे।
‘और मां से मिलना हुआ, क्या कह रही थीं?’
‘कह रही थीं।’
मैं जैसे ही उसे वृतांत सुनाने को उत्सुक हुआ, मेरी हंसी छूट गई। उसने मेरी हंसी का फायदा उठाकर मेरे होंठों से शब्द छीन लिए, ‘क्या कहा मां ने यही जाओ रामगंगा में डूबकी लगाओ। उसकी अतल गहराई से एक पत्थर चुनकर ले आओ। उसी में तुम्हारे पिता के प्राण प्रतिष्ठित होंगे। और मैं उसके साथ ही शेष दिन व्यतीत कर लूंगी।’
‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं कहा। वहां रामगंगा में डूबकी लगाने को पानी और कहने-सुनने को मां बची ही नहीं। इंसान और मवेशी पानी के बिना और बचपन दूध के बिना दुनिया को ही छोड़ चले हैं।’
वह तिलमिलाया। चीख-चिल्लहाट से प्रेक्षागृह गूंज उठा। वह दोनों हाथों से अपने बाल नोचने लगा, क्या मैं जीवित हूं। क्या मैं इस मशीन की बीप को सुन सकता हूं।’
वह कहते-कहते अपना आपा खो बैठा और ई वी एम को उठाकर, उसे अपने कान पर लगाने लगा। अविराम बजती बीप के कर्कश स्वर ने उसकी चीख को दबा दिया।
प्रेक्षागृह के किसी कोने में दुबके चमगादड़ दहशत में आ गए। वे इधर-उधर उड़ने लगे।
उसे मंच पर औंधा मुंह पड़ा देखकर मुझसे रहा नहीं गया। मैं उठा, मंच पर जाने का साहस बटोरा। अविराम बजती बीप के बटन पर से उसकी अंगुलियां हटाईं। उसकी अंगुलियों की गरमाहट ठंडी पड़ रही थी।
भयावह शोर थम गया। मैं एकांत को घूरता उन चमगादड़ों को इधर-उधर उड़ते देखता रहा। यह सोचता कि वह अपना संवाद याद करते हुए कहेगा, ‘तुम भी उड़ जाना चाहते हो बाहर मुक्त हवा में।’ परंतु, उसने ऐसा कुछ भी नहीं कहा। वह नहीं उठा।
मैंने प्रेक्षागृह का दरवाजा खोला, चमगादड़ उड़ कर बाहर निकले। चमगादड़ अंधेरे में बड़ी देरे तक भटकते रहे और मैं उन्हें उड़ता हुआ देखता रहा।