रविवारीय विशेष: सपना सिंह की कहानी 'दुधारु'
"आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए सपना सिंह की कहानी। पारिवारिक कहानियां कई बार परिवार की सीवन भी उधेड़ कर रख देती हैं। स्त्री मन की विशेष कहानी, जिसमें परिवार का दिया हुआ दर्द भी है और उसी में छुपी हुई जिंदगी भी।"
भाभी का फोन कई बार आ चुका था। “कहां हो तुम लोग? रस्में शुरू हो गई हैं।”
बस भाभी! नीतू और श्रेया तैयार हो जाएं।
“इतनी देर लगती है तैयार होने में।” भाभी झल्ला उठीं।
छोटे-छोटे बच्चे हैं न, जानती तो हो आजकल के बच्चों को। मैंने भाभी को सफाई दी।
भाभी भी क्या करतीं? गृह प्रवेश और बेटे का जनेऊ, दोनों एक साथ ही रख दी थी। और अभी तक कोई नहीं पहुंचा था। 270 किलोमीटर चल कर मैं यहां जबलपुर आ गई थी। छोटे बेटे के घर रुकी थी। बड़ा बेटा भी गुडगांव से आ गया था पत्नी और बेटी के साथ। तय था सुबह सब साथ चलेंगे। पर बहुओं के सज ही नहीं बैठ रहे थे। बड़ी जिज्जी तो यहीं थीं, जबलपुर में ही। वह भी शायद अभी तक नहीं पहुंची थीं। विभु ने मेरी बेचैनी भांप ली, “मौसी चलो मैं आपको छोड़ आता हूं, फिर बाद में इन सबको लेकर आ जाऊंगा।”
बहुएं भी बोलीं, “हां मां, आप जाओ! कोई एक तो पहुंचे समय से।”
मुझे भी बात ठीक लगी। विभु ने गाड़ी निकाली और मैं पर्स लेकर, बहुओं को जल्दी तैयार होकर आने की हिदायत देती हुई गाड़ी में बैठ गई। पहुंचते ही भाभी का उलाहना सुनने को मिल गया। “घर के लोग ही जब मेहमान गिरी करेंगे तो कैसे चलेगा? कितनी सारी रस्में होनी थी, सबका खाना भी बना था। अभी भी क्यों आए, सीधे राज पैलेस में ही आतीं जहां डिनर की व्यवस्था है।” मैं खाऊंगी ही जब बना है तो। अब गुस्सा मत हो प्लीज! मैंने भाभी के गले में बांहें डाल दीं। भाभी ने हाथ झटक कर कहा, “रहने दो यह दुलार न दिखाओ” और प्लेट में इंद्रहर निकाल कर मुझे थमा दिया। मेरी फेवरेट डिश है।
“और जीजा जी कहां रह गए? उन्हें भी तो तुम्हारे साथ आना था।” भाभी इन्हें पूछने लगीं।
“छोड़ो भाभी, जानती तो हो इनको। बच्चे आए हैं, तो उन्हीं में मगन हैं। और फिर सूद भी तो साथ आए हैं। कहते हैं न मूल से प्यारा सूद। मेरी बात सुनकर भाभी जोर से हंस पड़ीं।
बड़ी जिज्जी का इंतजार ही होता रह गया, वह नहीं आईं। यानी सीधे होटल ही पहुंचेंगी। भाभी बड़बड़ा रही थीं। एक ही शहर में रहने पर यह हाल हैं। दूर वाले आ गए। कार्यक्रम में शामिल भी हो गए पर पास वालों के नखरे ही नहीं मिलते। बड़ी जीजी को छोड़ बाकी चारों बहनें और भाई पहुंच चुके थे। मैं समझ रही भाभी का गुस्सा जायज है। हम अम्मा के कमरे में बैठकर बतकही में जुटे थे, तभी विभु का फोन आया। मैंने चिंता में पूछा, कहां रह गए? सब को लेकर आए क्यों नहीं?
“पापा सो गए हैं मौसी। तनु और श्रेया भी हैं। वहां भी अब सारे कार्यक्रम खत्म हो गए होंगे। शाम को सीधे होटल में ही पहुंचते हैं हम सब।” विभु का जवाब सुनकर मुझे कोफ्त हो आई। मेरे आते ही सबको थकान लग गई। और ये महाशय, कहा था मैंने साथ चलने को, पर मजाल जो बेटे-बहू पोते-पोती का साथ छोड़ दें। मैं तो एकदम आउटसाइडर हो जाती हूं इन सबके बीच।
शाम को जब सब तैयार होकर होटल निकलने की तैयारी में थे तो बड़ी जीजी, अपने बहू-बेटे के साथ आईं, अस्त व्यस्त सी। भाभी ने उनको भी अपना उलाहना थमा दिया।
“अरे कैसे आ जाती घर छोड़कर। बच्चे आए थे, कितना कुछ देखना-संभालना था। जी हलकान हो गया।” दीदी बिसूरते हुए बोलीं, मानो दुनिया में इनसे कर्तव्य परायण स्त्री दूसरी कोई नहीं।
“मीरा दी के भी तो बच्चे थे साथ में, आखिर उन्हें छोड़ कर ये भी आई हीं न।” भाभी कह रही थीं। दीदी ने तुरंत मुंह बनाकर भाभी को सुनाया, “कहना आसान है। अपने होते, तो देखती कैसे आ जाती।”
भाभी का चेहरा फक्क पड़ गया। मेरा चेहरा उतर गया। आंखें पनिया गईं। मैं तुरंत मुंह फेर कर बाहर निकल गई। निकलते हुए मेरे कानों में भाभी के तीखे शब्द पड़े, “दीदी बोलने से पहले कुछ तो सोच लिया करिए।”
“ऐसा क्या कह दिया मैंने? सच सबको कड़वा ही लगता है।” दीदी ने मुंह बिचका कर कहा था।
मेरा मूड खराब हो गया था। पार्टी में भी मन नहीं लगा। भाभी ने कहा भी, “जाने दो मीरा, उनकी बात का क्या बुरा मानना। वह ऐसे ही सबको जबान के खंजर से लहूलुहान करती हैं। अच्छा है तुम यहां से दूर हो। मैं तो इसी शहर में हूं, हमेशा कोई न कोई बात सुनती रहती हूं इनकी। इनके व्यंगबाणों पर कान दूं तो जीना मुश्किल हो जाए।”
बात शायद और बहनों तक भी पहुंच गई थी। सभी कानाफूसी के साथ बड़ी जीजी की भर्त्सना कर रही थीं। मैं इस स्थिति से उकता चुकी थी। मेरे त्याग, बड़प्पन के कसीदे यही लोग पढ़ते हैं, फिर समय-समय पर इनमें से ही कोई बड़ी निर्ममता से मुझे कटघरे में खड़ा कर देता है। मौके ब मौके ऐसी असहजता ही मेरी नियति है शायद।
लौटकर आई तो थकी होने के बावजूद आंखों में नींद नहीं थी। बगल में अमन सोया था। श्रीमान जी पिछले दो वर्षों से अलग ही सोते थे। दोनों बेटों की शादी होने के बाद, हमारा एक साथ सोना अच्छा नहीं लगता। फिर आज तो मजबूरी थी। बेटे का घर इतना बड़ा नहीं था, कि सब को अलग कमरा मिले। मैं, दोनों बहुएं अपने बच्चों के साथ एक ही कमरे में थे। श्रीमान जी चाहते तो यहां मेरे और अमन के पास सो सकते थे, पर वह बाहर हॉल में दोनों बेटों के साथ सोने चले गए। बड़े-बड़े शादीशुदा बच्चों के सामने एक कमरे में सोना उन्हें बहुत लज्जाजनक लगता। मुझे मुहल्ले के वृद्ध माथुर चाचा-चाची याद आ जाते, जो अस्सी, बयासी वर्ष के थे पर एक ही पलंग पर सोते थे। उनके घर की बहुएं मुंह पर हाथ रखकर खीं-खीं करतीं पर चाचा-चाची पर कुछ असर न पड़ता। कभी कभी मुझे लगता श्रीमान जी, मुझसे दूर भागने लगे हैं। मुझसे उम्र का अंतर अब उनके व्यवहार पर असर डालने लगा है। पर साथ सोना का मतलब क्या सिर्फ शारीरिक आवेगों की पूर्ति ही होती है। इस क्षण मेरा हृदय उनकी बातों के घेरे में दुबक जाने का कर रहा था। उनके हाथों की आश्वासन भरी थपकियों को अपने सिर पर महसूस करते हुए निश्चिंत हो कर नींद में गुम हो जाने का कर रहा था। भले ही वो कुछ न कहें, कुछ न समझाएं मेरे मन को जानें बस। इतना ही।
मेरी आंखों में नींद नहीं थी। मैं हमेशा सोचने पर विवश हो जाती हूं कि मेरा निर्णय सही था या गलत। आज इतने वर्षों बाद भी मैं कभी भी निश्चिंत होकर अपने निर्णय को सही या गलत की श्रेणी में नहीं डाल पाती। जो नियति ने आपके लिए तय कर रखा है, आपका प्रारब्ध ही आपको उस रास्ते पर ले जाता है। मीना दीदी को क्या हुआ था अचानक, कोई नहीं समझ पाया। बस जीजाजी का फोन आया था, मीना की तबीयत खराब है, डॉक्टर ने जबलपुर रेफर किया है। सब घबरा गए थे। बड़े भैया, बड़ी दीदी-जीजाजी, छोटी दीदी माधुरी और नरेंद्र जीजाजी अम्मा-पापा, छोटा भाई, जो मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहा था और सबसे छोटी मैं। जीजाजी तीनों बच्चों को साथ ले आए थे। जीजी को मेडिकल कॉलेज में भर्ती कर दिया गया। बच्चे घर पर थे। मैं और अम्मा संभाल रहे थे। 13 साल का विभु, 10 साल का मनु और 3 साल की गरिमा, जो हर वक्त मुझसे लिपटी रहती। विभु और अनु की भी मैं फेवरेट मौसी थी, जो उनके साथ क्रिकेट और फुटबॉल भी खेलती थी और उन्हें स्कूटी पर बैठाकर बाजार भी घुमा लाती थी। बाकी दोनों मौसियों के बच्चों के साथ जब झगड़े होते तो मैं ही उनकी तरफदारी में खड़ी होती। अब मां की बीमारी से दोनों सहमे से रहते। गरिमा तो मुझसे हमेशा चिपकी रहती। वैसे भी उस पर मेरा विशेष स्नेह था। जब वह पैदा हुई थी तब से जब तक दीदी मायके में थी, उसे नहलाना धुलाना, मालिश करना, खिलाना, पॉटी साफ करना सब मैं करती। सभी हंसते कि मेरी तो बच्चा पालने की ट्रेनिंग हो गई थी। शादी के बाद जरा भी मुश्किल नहीं आएगी।
बच्चों को लेकर मैं भी गई थी दीदी से मिलने हॉस्पिटल। मुझे और बच्चों को देख दीदी के पीले चेहरे पर खुशी की एक रेखा आकर गुजर गई। दूसरे ही पल वहां चिंता आ पसरी। मैं दीदी का हाथ सहलाती रहीं। “मेरे बाद इनका क्या होगा?” टूटे शब्दों में दीदी के मुंह से यही निकल रहा था बारम्बार। एक मां मरते वक्त भी अपने बच्चों के लिए ही सोचती रहती है। आखिर दीदी नहीं बची। सारे घर पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा था। दीदी के जाने का दुख और बच्चों के सिर से मां का साया छिन जाने का दुख। जीजा जी की दूसरी शादी आज नहीं तो कल हो ही जानी थी।
मेरे से बड़ी वाली रानी जीजी का भी तब तक ब्याह नहीं हुआ था। भैया अक्सर भाभी से कहते, “तुम देखना तीनों को तीन साल में निपटा दूंगा। भाभी के तेवर हमेशा चढ़े रहते। रानी जीजी और मैं ही घर का सारा काम करते। रानी जीजी उस समय बीए में थी और मैं दसवीं में। दो जगह रिश्ता देखा था भैया ने। एक साथ दोनों को निपटाने के फेर में थे। खर्चा कम होगा ऐसा तर्क था उनका। जो परिवार दीदी के लिए देखा गया था, उनको मैं पसंद आ गई अपनी सुंदरता और अच्छी कद काठी की वजह से। और जिसे मेरे लिए पसंद किया गया था उसने दीदी को पसंद किया कि दीदी बीए पास है, वे लोग कहीं न कहीं नौकरी लगवा देंगे। मुझे तो पढ़ाना पड़ेगा। हम दोनों बहनें अम्मा को पकड़ कर रो पड़े थे। हम कोई भेड़ बकरी हैं क्या जो हमारी इस तरह जांच परख हो रही है। अम्मा अड़ गईं कि इन दोनों घरों में शादी नहीं करेंगे। भैया ने खूब तन्न फन्न किया पर अम्मा टस से मस नहीं हुईं। अगले लग्न में दीदी की तो शादी हो गई, बची मैं और सबसे छोटी मीना। मैं ही खटक रही थी भैया को। उनकी चलती तो एक ही लग्न में, एक ही खर्चे में दोनों बहनों से फुर्सत पा लेते।
दीदी की तेरहीं से पहले ही जीजाजी के विवाह की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। भैया जब गांव से लौटे, तो यह खबर दी और साथ में यह सलाह भी कि, “सोचता हूं बेबी की शादी जीजाजी से हो जाए तो ठीक है। अम्मा ने सिर पर हाथ रखा, “कुछ भी कहता है यह लड़का।”
पर भैया तो एक चिंगारी डाल चुके थे। तीनों बच्चे मुझसे खूब हिले थे। बेटी तो मुझे छोड़ती ही नहीं थी। घर में आए दिन इस आशय की बातें होतीं। जीजाजी दूसरी शादी तो करेंगे ही। दूसरे घर की लड़की तीन-तीन बच्चों को पता नहीं अपनाएगी या नहीं। मर्द जात को भी अपनी सुविधा आराम दिखता है। नई नवेली पत्नी के नाज नखरे उसे भी बच्चों से मुंह फेरने को मजबूर कर देंगे।
भाभी और बड़ी दीदी ने एक दिन मेरे सामने यह बात उठा दी, “तू ही क्यों नहीं हां कर देती शादी के लिए।” मैं तो कुछ कह ही न पाई। सारा शरीर पसीने से भीग गया। आज तक जीजाजी लोगों के सामने पड़ते भी संकोच होता था। बहुत आदर और लिहाज था उनका। पैर छूकर, चाय पानी देकर हम इधर-उधर हो जाते थे। अब मंझले जीजाजी को पति के रूप में स्वीकारने का दबाव समझ में नहीं आ रहा था। भैया तो हमेशा हम बहनों को देखकर चिड़चिड़ाते थे। हमें भार समझते थे। मुझसे छोटा भाई अभी पढ़ाई में लगा था। घर के वातावरण ने तो वैसे भी हम बहनों को शादी के प्रति एक राहत वाली सोच दे दी थी। सभी बहनें अपने घरों में सुखी-संतुष्ट थीं यह बात और आकर्षण पैदा करती। मायके में तो हमें हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती। अब भाभी के नाज उठाए नहीं जा रहे थे।
जाने कैसे मेरा मन बच्चों की तरफ झुक रहा था। सचमुच अगर विमाता ने बच्चों का जीना हराम कर दिया तो? विभु तो मेरे भांजे से ज्यादा मेरा दोस्त जैसा था। ननिहाल में उसका सबसे ज्यादा समय मेरे साथ ही गुजरता। उससे छोटे मनु और फिर गरिमा। मनु और गरिमा के लिए मेरे मन में वात्सल्य भरा था। बच्चों के प्रति ईश्वर ने मेरे भीतर ममतालु स्वभाव इसलिए भरा था कि इन तीनों को मेरी जरूरत पड़ने वाली थी। आखिर एकदम सादे तरीके से शादी हो गई। बिना किसी धूमधाम के। किसी ने नहीं सोचा कि, मेरी तो यह पहली शादी ही है। न मैं पार्लर जाकर सजी न मेरे लिए कोई विशेष खरीदारी हुई। दीदी के कपड़े, जेवर तो मेरे ही हुए न, तो फिर बेकार पैसा खर्च करने की क्या जरूरत? अभी साल भर पहले ही सीता के विवाह की तैयारी सबने उत्साह से की थी। लहंगा, साड़ियां जेवर हर चीज। सगाई से लेकर शादी तक सभी रस्में धूमधाम से हुई थीं। पर अब बस खानापूरी की गई। सगाई, जयमाल सबके लिए जीजाजी ने मना कर दिया। स्टेज पर चढ़कर यह सब करते क्या अच्छा लगेगा?
फेरे जरूरी थे, तो हुए।
सिंदूरदान जरूरी था, तो हुआ।
और मैं विदा होकर ससुराल आ गई। जीजाजी मेरे पति परमेश्वर हो गए पर बच्चों के लिए मैं उनकी मौसी ही रही। न उन्होंने कभी मुझे मां कहा न कभी मां का दर्जा दिया। न इसके लिए कभी किसी ने उन्हें समझाया। मैंने भी नहीं।
छुट्टियां खत्म होते ही हम शहर आ गए। शहर में संयुक्त रूप से बना घर था। जिसमें जिठानी और चाचा ससुर का परिवार रहता था। उसी में दो कमरे में दीदी की गृहस्थी थी। हम बच्चों के साथ वहां आ गए। शहर का पुराना मोहल्ला था। आसपास कामगार परिवार थे, जिनके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते और सारा दिन आवारगी करते। आंगन में इतने बड़े परिवार के बीच एक ही लैट्रिन बाथरूम था। जाने के पहले देखना पड़ता कि खाली है या नहीं। औरतें तो सुबह ही निपट लेतीं पर कभी अगर दिन दोपहर पेट में दर्द हो और जाना हो, तो बहुत कुछ देखना पड़ता था। पति महोदय पूछते कहां जा रही हो? बताने पर कहते, अभी रुको... आंगन में सब बैठे हैं। झांककर देखती, जेठ के बेटे बैठे होते जो कि हम उम्र या एक-दो वर्ष बड़े थे। समझ जाती, उनके सामने निकलना भी पति को गवारा नहीं। विभु दर्द भरे चेहरे को महसूस कर पूछ बैठता, “क्या हुआ मौसी? बताती लैट्रिन जाना पर पापा कह रहे हैं अभी मत जाओ, सब सामने ही बैठे हैं। विभु गुस्साता, “तुम जाओ तो...पापा भी बस...।”
उस समय छोटा भाई भी यहीं कमरा लेकर पढ़ता था। दोपहर या शाम को आ जाता। बच्चों को पढ़ाता खुद पढ़ता, फिर खा-पीकर जाता। विभु बड़ा हो रहा था, उसका मन बाहर लगने लगा था। सारा-सारा दिन बाहर लड़कों के साथ खेलता। टोकने पर अकड़ कर कहता, “नहीं पढूंगा। खेलूंगा।” मेरी एक बात नहीं सुनता। मुझे लगता जिन बच्चों के लिए मैंने इतना बड़ा कदम उठाया वह व्यर्थ न हो जाए। गाहे-बगाहे सौतेली मां का तमगा मिल ही जाता। कुछ कहूंगी, डाटूंगी मारुंगी तो और बुरा होगा। भाई ने हल निकाला। बोला, “तुम मत कहना। मैं जीजाजी से कहूंगा।” उस दिन के बाद भाई जब भी इन्हें पाता विभु और मनु के बिगड़ने का हवाला देता। “जीजाजी यहां माहौल नहीं है पढ़ने का, लड़का बिगड़ जाएगा।” पतिदेव को बात समझ में आने लगी और फिर हम दूसरे मुहल्ले में शिफ्ट हो गए। गांव आना-जाना बना रहता। मेरी पढ़ाई भी चल रही थी। तीन बच्चे थे इन्हें ही बड़ा करना मेरा ध्येय था। गांव जाती तो वहां अलग सुगबुगाहट थी। जेठानियां अगर सुबह-सुबह मुझे देख लेतीं, तो दरवाजा भेड़ लेतीं। बांझ है, 4 साल हो गए अभी तक कोख नहीं हरी हुई। मैं रुआंसी हो जाती। चुपचाप कमरे में आकर आंसू बहाती।
मायके गई, तो अम्मा ने उदास देख कर पूछ लिया क्या बात है। मैंने टालना चाहा। अम्मा ने ताड़ लिया, कुछ तो है जो, हमेशा खिलखिलाने वाली चंचल मैं अचानक चुप क्यों हो गई हूं। उनकी चिंता दूसरी थी, “क्या दामाद जी का व्यवहार ठीक नहीं है, उन्हें कोई शिकायत है क्या तुम से?”
यहां भी उन्हीं की चिंता। मैं उनका और बच्चों का ठीक से ध्यान रखती हूं न। अपने लड़कपन में कहीं बच्चों से दुर्व्यवहार तो नहीं करती।
“ऐसा कुछ नहीं है अम्मा। मैं भरसक बच्चों और उनके पिता के लिए अपने कर्तव्यों का निर्वाहन करती हूं। बात दूसरी है।”
“क्या?” अम्मा संशय में थी।
“सब लोग बांझ कहते हैं हमको। पर हम अपनी मर्जी से बच्चा नहीं चाहते। तीन ठो हैं तो।” अम्मा सोच में बैठी रहीं। बाद में इनके आने पर मुझे चाय लाने भेज खुद पास बैठ गई, “एक बात कहनी थी आपसे”
“हां अम्मा आदेश करें।”
“मीरा के अब एक लइका बच्चा हो जाए चाहे। लोग अंड-बंड बोलते हैं। अब तो पढ़ाई भी पढ़ चुकी।”
“पर अम्मा मीरा ही तो मना करती है, तीन बच्चे हैं तो।”
“उसमें लड़कपन है, पर आप तो समझदार हैं। मर्द मेहरारू के उम्र भर लड़कवे ही जोड़ कर रखते। जब तीनों बच्चे अपनी जिंदगी में रम जाएंगे तो वह अकेली पड़ जाएगी। कुछ समय बाद आपके अंदर भी शायद उसके प्रति प्रेम सूख जाए। वह अकेली पड़ जाएगी। औरत के लिए अपना बच्चा बहुत जरूरी है। एक तो हो जाने दीजिए।” श्रीमान जी सिर झुकाये मां की बात सुनते रहे। अगले ही साल अमन पैदा हो गया। उसके आते ही जीवन से सारी शिकायते जाती रहीं। अमन घर में सबका दुलारा था। दोनों भाई उसे अपने बच्चे जैसा प्यार और सुरक्षा देते। गरिमा का तो प्यारा खिलौना ही था वह। श्रीमान जी तो वैसे भी सिर्फ बच्चों के लिए जीते थे। अमन उनके लिए भी सबसे कीमती था।
सच है, एक बच्चा बहुत कुछ बदल देता है। अमन जैसे जीवन का केंद्र हो गया। उसके आने से जीवन का खालीपन हट गया था। पहले कभी दिल में खीज भी उठती कि मैं तो बस इन बच्चों की केयर टेकर बनकर रह गई हूं। मेरी उपयोगिता बस इन्हें पाल-पोस कर बड़ा करना, इनकी हर जरूरत का ध्यान रखना भर है। पर अब अमन के होने से मेरी हर खीज तिरोहित हो गई थी। इसी बीच नौकरी भी लग गई। शहर से साठ किलोमीटर दूर। चार महीने के बच्चे को लेकर अप- डाउन करना, कितना कठिन। स्थानांतरण अपने शहर में हुआ था। अमन के स्कूल जाने तक भागा दौड़ी बनी रही। अमन स्कूल जाने लगा तो राहत हो गई। तीनों बच्चे तब तक उच्च शिक्षा के लिए बाहर जा चुके थे।
समय की अपनी गति होती है। बच्चे पढ़कर सैटल हो गए। उनके विवाह हो गए। गरिमा अमेरिका में है। अमन ने दसवीं की परीक्षा दी है। छोटे भाई को लेकर दोनों भाइयों के बड़े सपने हैं। उसे कोटा भेजने का सोच रहे हैं। बहुएं वैसी ही हैं, जैसी होती हैं। उनके रहते कभी एक कप चाय का भी सुख नहीं। वैसे तो बेटों को भी नहीं दिखता कि मौसी पर काम का कितना बोझ हो जाता है। विभु जो पहले मेरे प्रति इतना संवेदनशील था, सबसे लड़ जाता था, अक्सर कहा कि, “अब अगर मेरी सगी मां भी आ जाए, तो कहूंगा, वापस चली जाओ... तुम तो जनम देकर चली गई थीं, मौसी अगर न अपनाती तो हमारा क्या होता? वही विभु अब अपनी सारी संवेदना सिर्फ अपनी बीवी-बच्चों के लिए रखता है।
सालों नौकरी करने के बाद भी आज भी सब कुछ पति और बच्चों का है। सैलरी अकाउंट की पासबुक भी श्रीमान जी के पास थी। मकान-जमीन सब उन्हीं का। बच्चे पाले, पर हमेशा मौसी ही बनी रही। सारी जिंदगी नौकरी की पर पैसा हाथ में नहीं। एकमात्र राहत बेटा है बस। गरिमा जो मेरे दर्द को समझती थी, वो भी सात समंदर पार थी। सोचते हुए गहरी सांस ली मैंने। गला सूख रहा था। उठकर बैठ गई। बगल में सोते हुए अमन को देखा। सिर्फ यही है मेरा अपना। पर कब तक? कल को इसे भी बाहर जाना है। पढ़-लिखकर नौकरी करना है फिर शादी, बच्चे। यही जीवन की रीति-नीति है। मैं बेकार दिल को दुखी कर रही हूं। विभु, मनु, गरिमा और अमन अलग थोड़ी हैं। मैंने जो किया वो अपने स्वभाव और प्रेमवश किया। किस बात का पछतावा करना? मैंने सोते हुए अमल के सिर को सहलाया।
अमन को देख कर लगा, शायद मैं दुधारू से कुछ तो ज्यादा हूं इस घर के लिए।
सपना सिंह
21 जून 1969, इतिहास, हिन्दी में एम.ए। सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित। आकाशवाणी से कहानियों का निरतंर प्रसारण। तपते जेठ में गुलमोहर जैसा (उपन्यास), उम्र जितना लंबा प्यार, चाकर राखो जी, बनते बिगड़ते तिलिस्म (कहानी संग्रह), देह धरे को दंड (वर्जित संबंधो की कहानियां) का संपादन।