भारतीय रेल : बायोडाइजेस्टर शौचालय कर सकते हैं रेलवे को स्वच्छ
कई सालों के भरसक कोशिशों के बाद भी एेसा होना आसान नहीं होगा, चाहे इसमें कितने ही हजार करोड़ रूपये डाल दिये जाएं। पटरी के किनारे बैठे व्यक्ति के अलावा ट्रेन के अंदर बैठे व्यक्ति भी इसका स्रोत हैं।
किताब के मुताबिक, अगर हर रोज 160 लाख लोग लंबी दूरी की रेलगाड़ी में सफर करते हैं और एक दिन में एक मनुष्य 200 से 400 ग्राम मल पैदा करता है तो सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि हर दिन कितना मल पटरियों पर गिराया जाता है।
सोपान जोशी की शोध आधारित किताब में आगे कहा गया है कि डिब्बों में बने शौचालयों की नाली की बनावट को बदलने के लिए लगभग 40 साल से कोशिश हो रही हैं। भारतीय रेल की समस्या दूसरे देशों से एकदम अलग है, क्योंकि हमारे यहां पानी का इस्तेमाल किया जाता है।
हालांकि, किताब में बताया गया है कि अंटार्कटिका में पाये जाने वाले बिना आक्सीजन के जीवित रहने वाले बैक्टीरिया की खोज डीआरडीओ के वैज्ञानिक लोकेंद्र सिंह ने एवरेस्ट के प्रदूषण को समाप्त करने के लिए की। यहां से ही भारतीय रेल के लिए बायोडाइजेस्टर शौचालय बनाने का विकल्प सामने आया, क्योंकि हमारे पेट में इस तरह के बैक्टीरिया बसते हैं और उनके बिना हम भोजन नहीं पचा सकते।
किताब के अनुसार, रेलवे और डीआरडीओ की साझेदारी से भारत में रेल के आने के 150 साल बाद शौचालयों की व्यवाहारिक रूपरेखा तैयार हुई। भारतीय रेल के डिब्बों में काम करने के लिए डीआरडीओ के बनाए ढ़ांचों में फेरबदल भी किया गया। खासकर सूखे कचरे को टंकी में जाने से रोकने के लिए, क्योंकि यात्रियों को पुराने शौचालयों की तरह चीजें फेंकने की आदत है।
किताब के अनुसार वर्ष 2016 के फरवरी महीने तक 10 हजार से अधिक डिब्बों में 32 हजार से ज्यादा शौचालयों को बायोडाइजेस्टर में बदल दिया गया है। शुरू में हर डिब्बे के चार में से दो शौचालयों को बदला जा रहा है, क्योंकि एेसे शौचालयों को लगाना आसान नहीं है। किताब के मुताबिक हर डिब्बे में चार शौचालय लगाने की लागत चार लाख रूपये है। सारे सवारी डिब्बों में इसे लगाने का खर्च आज की कीमत पर दो हजार करोड़ रूपये होगा। इस कार्य में तकरीबन आठ से दस साल लग जायेंगे। डिब्बों को रेलगाडि़यों से निकालकर लाने से रेलवे के संचालन पर असर पड़ता है। फिर भी रेलवे के कई अधिकारियों को भरोसा है कि रेलवे अपने डिब्बों की गंदगी मिटा सकेगा।
रेलवे की तुलना नगरपालिकाओं से करते हुए किताब में प्रश्न किया गया है कि क्या एेसा जादू हमारे शहरों और गांवों में हो सकता है? कुछेक शहरों को छोड़ दें तो हमारे बाकी नगर निगम कंगाल हैं और नगर निगम से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक पानी और स्वच्छता की बात एक साथ की जाती है।
किताब मंे कहा गया है कि केंद्र सरकार ने 1986 मेंें देश को खुले में शौच मुक्त बनाने की कोशिश शुरू की थी, जो तमाम बदलावों के बाद इस वक्त स्वच्छ भारत अभियान के रूप में हमारे समक्ष हैं। भाषा एजेंसी