किसान हित या खेती का कॉरपोरेटाइजेशन
केंद्र सरकार ने हाल में किसानों के उत्पादों की मार्केटिंग के लिए आर्थिक उदारीकरण की दिशा में तीन बड़े सुधार किए हैं। इनमें दो सुधारों के लिए पांच जून को राष्ट्रपति ने अध्यादेश जारी किए, क्योंकि इन फैसलों को कानूनी शक्ल देने के लिए सरकार संसद के सत्र का इंतजार नहीं करना चाहती थी। ये अध्यादेश हैं फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड ऐंड कॉमर्स (प्रमोशन ऐंड फैसिलिटेशन) ऑर्डिनेंस, 2020 और फार्मर्स (एम्पावरमेंट ऐंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस ऐंड फार्म सर्विसेज ऑर्डिनेंस, 2020। तीसरा और जिसे सबसे बड़ा सुधार बताया गया है, वह है आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के दायरे से खाद्यान्न, दालें, तिलहन, खाद्य तेल, आलू और प्याज को बाहर करना। इसके तहत इन उत्पादों के लिए कोई स्टॉक लिमिट नहीं होगी और न ही निर्यात पर प्रतिबंध लगेगा। इन उत्पादों की खरीद-बिक्री और देश भर में आवाजाही पर भी कोई प्रतिबंध नहीं होगा। केवल आपदा के समय ही इन उत्पादों को स्टॉक लिमिट के दायरे में लाया जा सकेगा। सरकार का तर्क है कि इससे किसानों को बेहतर कीमत मिलेगी।
इन तीनों फैसलों में एक बात साझा है कि ट्रेड और किसान के उत्पादों के संगठित कारोबार यानी कॉरपोरेटाइजेशन को बढ़ावा देना। जो दूसरी साझी बात है कि किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) या लाभकारी मूल्य मिलने की कोई गारंटी नहीं है। वैसे एक बात चौंकाने वाली है कि चीनी को आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे से बाहर क्यों नहीं किया गया। इसमें दो मसले हैं। एक, गन्ने का एफआरपी तय करने का प्रावधान और उसके भुगतान के लिए शुगरकेन कंट्रोल ऑर्डर इस अधिनियम के तहत आता है। दूसरे, इस समय चीनी उद्योग कुछ मुश्किल में है और माना जा रहा है कि सरकार उसे अभी सुरक्षित ही रखना चाहती है। वैसे यहां किसानों से सीधा मतलब है क्योंकि उनका चीनी मिलों पर भारी- भरकम बकाया है। सवाल है कि अधिनियम के दायरे से बाहर करने वाले उत्पादों पर किसानों को सही दाम मिलेगा तो चीनी को क्यों उसके अंदर रखा गया है जबकि उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़े चीनी उत्पादक राज्य में दो साल से गन्ने का दाम स्थिर है, वह भी तब, जब सारी उत्पादन लागतें बढ़ रही हैं। इसी को शायद चीनी की राजनीति कहते हैं।
एक दूसरा पेच देखिए। फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड ऐंड कॉमर्स (प्रमोशन ऐंड फैसिलिटेशन) ऑर्डिनेंस, 2020 के तहत सरकार ने किसानों की उपज का नहीं, उत्पादों का जिक्र किया गया है। यह केवल फसलों से संबंधित नहीं है, बल्कि किसानों के तमाम उत्पाद इस कानून का हिस्सा हैं। इसमें फसलों के अलावा पशुपालन, पॉल्ट्री और दूसरी गतिविधियों के उत्पाद शामिल हैं। इसलिए इस कानून का दायरा बहुत व्यापक है और यह केवल फसलों तक सीमित नहीं है। इन उत्पादों के अंतरराज्यीय और राज्य के भीतर किसानों से किसी भी व्यक्ति, कंपनी, संस्थान, सहकारी समिति, फार्मर प्रोड्यूसर्स ऑर्गनाइजेशन (एफपीओ) को किसान से सीधे खरीदने, ट्रेड करने, लाने-ले जाने, स्टोर करने की छूट दी गई है। यह छूट एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (एपीएमसी) एक्ट तहत राज्य सरकार की मंडियों के बाहर होगी और इन पर राज्य सरकार कोई शुल्क भी नहीं लगा सकेंगी। असल में कृषि मार्केटिंग राज्य का विषय है और उसके तहत ही एपीएमसी की व्यवस्था है। लेकिन केंद्र सरकार ने एग्री मार्केटिंग शब्द की बजाय ट्रेड शब्द का इस्तेमाल किया है, जो केंद्र का विषय है। अंतरराज्यीय व्यापार भी केंद्र के तहत आता है। इसके लिए अभी नियम बनने हैं। जाहिर है, उसके बाद निजी क्षेत्र इस कारोबार में उतर सकेगा। वह किसान के खेत से या निजी मंडी स्थापित करके किसानों के उत्पादों की सीधे खरीद कर सकेगा।
सरकार का कहना है कि किसानों को अधिक खरीदार मिलेंगे और वह केवल एपीएमसी से लाइसेंसशुदा कारोबारियों के ही भरोसे नहीं रहेगा। प्रतिस्पर्धा बढ़ने से उसे अपनी उपज के बेहतर दाम मिल सकेंगे। इसके तहत पेमेंट की शर्तें तय करने और विवाद के निपटारे के लिए एसडीएम स्तर के अधिकारी या उसके द्वारा नियुक्त आर्बिट्रेशन कमेटी को अधिकृत किया गया है। विवाद अपीलीय प्राधिकरण और राज्य स्तर पर नहीं निपटता है तो केंद्र सरकार के संयुक्त सचिव के स्तर तक जा सकता है। जाहिर है, किसानों के उत्पादों को संगठित क्षेत्र के तहत लाने का यह बड़ा कदम है और देश के बड़े कॉरपोरेट यानी रिलायंस समूह, अडाणी समूह, आइटीसी, महिंद्रा ऐंड महिंद्रा, फ्यूचर ग्रुप समेत तमाम बड़े दिग्गजों के लिए विश्व के सबसे आकर्षक कारोबारों में शुमार इस क्षेत्र में उतरने का रास्ता खुल गया है। लेकिन जो सबसे अहम बात दाम है। किसानो को ज्यादा दाम मिले या कम से कम मुनाफे वाला दाम मिले, इस अहम मसले पर इस अध्यादेश में चुप्पी है।
फार्मर्स (एम्पावरमेंट ऐंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस ऐंड फार्म सर्विसेज ऑर्डिनेंस, 2020 के तहत कंपनियों को किसानों के साथ कांट्रेक्ट फार्मिंग और कंपनियों और दूसरे संस्थानों की कृषि उत्पादन से जुड़ी सेवाओं के संचालन के भी प्रावधान किये गये हैं। साथ ही इसमें लैंड लीजिंग का भी प्रावधान है जिसकी अवधि एक फसल सीजन के लेकर पांच साल तक हो सकती है। अध्यादेश कहता है कि पहले से निर्धारित कीमत और गुणवत्ता मानकों के आधार पर फसल खरीद का कांट्रैक्ट हो सकता है। इसी तरह किसानों को सेवाएं देने का कांट्रैक्ट हो सकता है जिसमें बीज, खाद, पेस्टिसाइड की बिक्री से लेकर तमाम तरह की कृषि से जुड़ी सेवाएं शामिल हो सकती हैं। इसके तहत कंपनियां, प्रसंस्करण करने वाली कंपनियां, सहकारी संस्थाएं, एफपीओ किसानों के साथ कांट्रैक्ट कर सकते हैं। विवाद होने की स्थिति लगभग वही व्यवस्था है जो फार्मर्स प्रॉड्यूस ट्रेड ऐंड कॉमर्स (प्रमोशन ऐंड फैसिलिटेशन) ऑर्डिनेंस, 2020 में है। लेकिन यहां भी कीमत तय करने का कोई फॉर्मूला नहीं है। यानी किसान को लाभकारी मूल्य कैसे मिलेगा, इसका कोई पैमाना नहीं है। तीनों कानूनों में सुधार का फोकस प्रतिस्पर्धा के जरिये किसानों को बेहतर दाम मिलने को ही आधार बनाया गया है।
इन सुधारों का मकसद देश में कृषि का कॉरपोरेटाइजेशन करना है या किसानों को बेहतर दाम मिलने का विकल्प देना। इस मामले में कारपोरेटाइजेशन ही हावी है क्योंकि इस पूरी प्रक्रिया में किसानों के खुद संगठित होकर मोलभाव करने के पक्ष पर कहीं जोर नहीं दिया गया है। साथ ही जब हमारे देश में मजबूत और कामयाब सहकारी संस्थाओं के जरिये किसानों को बेहतर दाम मिलने के बड़े उदाहरण मौजूद हैं तो देशव्यापी स्वायत्त सहकारी संगठन स्थापित करने के विकल्प पर जोर क्यों नहीं दिया गया है, इसका जवाब इस पूरी प्रक्रिया में नहीं मिलता है। जब सरकार पूरे देश को एक मार्केट में तब्दील करने के लिए कानून बना सकती है और राज्यों की नाराजगी मोल ले सकती है तो यह काम सहकारी संस्थाओं को नौकरशाही और राजनीति से मुक्त करने वाले कानून को बनाने के लिए क्यों नहीं किया जा सकता है। बेहतर होता कि सरकार किसानों की आय बढ़ाने के लिए मार्केटिंग की ताकत किसानों और उनके द्वारा स्थापित संस्थानों के हाथ में देती और कॉरपोरेट के साथ मिलकर खुद ढांचागत सुविधाओं पर निवेश करती।