गैस खनन नीति हवा में उड़ा गई मनमोहन सरकार
पिछले दिनों दिल्ली में जब कैलेंडर की तारीख के हिसाब से सम-विषम गाडिय़ां (डीजल और पेट्रोल संचालित) चलाने की आजमाइश हुई थी तो बहुत सारे लोगों को प्राकृतिक गैस संचालित गाडिय़ों का महत्व समझ में आया था। लेकिन सही मायने में देखा जाए तो देश में प्राकृतिक गैस का विशाल भंडार होने के बावजूद हम अभी तक आयातित गैस पर ही निर्भर हैं और फिलवक्त कम खपत होने के बाद भी हमें 35 प्रतिशत गैस आयातित करनी पड़ती है। यदि देश की सभी गाडिय़ां गैस संचालित करनी पड़ जाएं तो आने वाले समय में प्राकृतिक गैस का एक बड़ा संकट उत्पन्न हो सकता है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की पिछली सरकार के दूसरे कार्यकाल के आखिरी तीन साल इस लिहाज से ज्यादा नुकसानदेह साबित हुए जिसमें गैस खनन से जुड़ी कई विदेशी कंपनियों ने सरकार के ढुलमुल रवैये के कारण भारत में तेल एवं प्राकृतिक गैस परियोजनाओं से हाथ खींच लिए। भारतीय नौकरशाही की अड़चनों और स्पष्ट ऊर्जा नीति के व्यापक अभाव के कारण हम चीन से और ज्यादा पिछड़ चुके हैं। यूपीए-2 के दौर में यहां बीएचपी बिलिटन, सेंटोस, ब्रिटिश पेट्रोलियम, पोस्को और आर्सेलर मित्तल जैसी कई विदेशी कंपनियों को रक्षा मंत्रालय, पर्यावरण मंत्रालय और अंतरिक्ष मंत्रालय से आवश्यक खनन मंजूरी मिलने में इतनी देर होने लगी कि उन्होंने यहां से कारोबार समेटने में ही अपनी भलाई समझी।
जानकारों का मानना है कि यूपीए-2 शासनकाल के आखिरी तीन साल में एक तरह नीतिगत निष्क्रियता बनी रही जिसका व्यापक असर प्राकृतिक गैस उत्पादन पर पड़ा, अरबों डॉलर का नुकसान हुआ और साथ ही प्राकृतिक गैसों की आपूर्ति के लिए भारत की आयात पर निर्भरता बढ़ती गई। योजना आयोग की ऊर्जा नीति रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि भारत को अगले 25 वर्षों तक 8 प्रतिशत विकास दर बनाए रखने के लिए अपनी ऊर्जा आपूर्ति को चार गुना बढ़ाना होगा। अगले तीन साल में यहां हाइड्रोकार्बन संसाधनों से प्राकृतिक गैस उत्पादन 52 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद की जा रही है। जाने-माने ऊर्जा विशेषज्ञ नरेंद्र तनेजा ने आउटलुक से बातचीत में कहा, 'प्राकृतिक गैस के मामले में भारत एक बड़े बाजार के रूप मेें उभर रहा है और भारत के पास गहरे पानी के अंदर गैस का इतना बड़ा भंडार है कि आने वाले 20 सालों में हम 100 प्रतिशत आत्मनिर्भर बन सकते हैं, बशर्ते कि सही तरीके से निवेश नीति, प्रौद्योगिकी और दोहन प्रक्रिया अपनाई जाए। आगामी 40 साल गैस और वैकल्पिक ऊर्जा का ही युग होगा। लेकिन मनमोहन सरकार की शिथिल नीति के कारण हम गैस उत्पादन के मामले में चीन से कई साल पीछे चले गए हैं।’
तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) के पूर्व मुख्य प्रबंध निदेशक और फिक्की में हाइड्रोकार्बन समिति के चेयरमैन आर. एस. शर्मा का कहना है कि दुनियाभर में ऊर्जा खपत मामले में गैस की हिस्सेदारी 24 प्रतिशत है जबकि भारत में इसकी हिस्सेदारी 11 प्रतिशत से घटकर अब 7 प्रतिशत रह गई है। हमें इस खपत को वैश्विक औसत के स्तर तक ले जाने की जरूरत थी लेकिन भ्रष्टाचार और सरकारी नीति के कारण यह हिस्सेदारी कम ही हो गई है। कई गैस खनन कंपनियों के परियोजना छोड़कर जाने के सवाल पर उन्होंने बताया, 'जिन कंपनियों को ब्लॉक आवंटित हुए भी, उन्हें नौसेना ने यह कहकर खनन की मंजूरी नहीं दी कि यह हमारा नौसैनिक अभ्यास का क्षेत्र है। अंतरिक्ष विभाग कहता था कि यह हमारा मिसाइल प्रक्षेपित करने का क्षेत्र है, इसलिए यहां खनन नहीं कर सकते। रक्षा मंत्रालय, पर्यावरण मंत्रालय कई तरह के क्लियरेंस मांगने लगे। लिहाजा अब तो नई कंपनियां बची ही नहीं, बीपी हयात, शेल भी सकारात्मक रुख का इंतजार कर रहा है।’ दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले इस देश में स्वच्छ और पर्यावरण अनुकूल ईंधन के अलावा बिजली और खाद कंपनियों के लिए भी प्राकृतिक गैस की ज्यादा जरूरत है। तेल और कोयला आधारित ईंधन की तुलना में गैस को स्वच्छ, हरित और पर्यावरण अनुकूल माना जाता है। उन्होंने कहा, 'गैस उत्पादन की आत्मनिर्भरता सुनिश्चित हो जाए तो यह बिजली के क्षेत्र में कोयला और परिवहन के क्षेत्र में तेल का स्थान ले सकती है और प्रदूषण को बहुत हद तक नियंत्रित कर सकती है। हाल ही में जलवायु परिवर्तन पर हुए पेरिस सीओपी-21 सक्वमेलन में भी हमने ग्रीनहाउस उत्सर्जन कम करने की प्रतिबद्धता जताई है और इसके लिए गैस के इस्तेमाल को बढ़ावा देना आज भी लाजिमी है और आगे भी रहेगा। लेकिन गैस उत्खनन से जुड़ीं नई और विदेशी कंपनियों की बढ़ती हताशा से ऐसा हो नहीं रहा है। अभी पूर्वी तट में गैस के नए भंडार मिले हैं जिनमें रिलायंस, ओएनजीसी और जीएसपी तीनों कंपनियां यदि अपनी पूर्ण क्षमता से गैस उत्पादन शुरू कर दें तो प्रति दिन 60 मिलियन क्यूबिक लीटर गैस का उत्पादन यहां से हो सकता है। इससे कोयला और तेल पर भी हमारी निर्भरता कम होगी तथा 'मेक इन इंडिया’ की मुहिम भी साकार होने लगेगी।’
आउटलुक से बातचीत में ऊर्जा विशेषज्ञ नरेंद्र तनेजा बताते हैं, 'हालांकि सरकार बदल चुकी है लेकिन अब भी विदेशी या नई कंपनियां यहां खनन में निवेश से कतराती हैं। इसकी वजह साफ है- यूपीए-2 सरकार के आखिरी दो-तीन साल नौकरशाह और राजनेता भ्रष्टाचार के कारण किसी भी नई परियोजना को आगे बढ़ाने से घबराते थे। किसी परियोजना के लिए अगर पेशगी रकम मिल भी जाती थी तो फिर फंसने के डर से उस ओर कोई ध्यान नहीं देता था। यह कारण था कि बीएचपी ऑस्ट्रेलिया, सेंटोस, ब्रिटिश पेट्रोलियम जैसी लगभग एक दर्जन कंपनियां हतोत्साहित होकर या तो यहां खनन परियोजना से पीछे कदम खींचने लगीं या आई ही नहीं। सरकार ने हमारी और उद्योगों की जरूरत की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। निजी कंपनियों के दबाव में सरकार ने गैस की कीमतें भी अपना कार्यकाल पूरा होने के आखिरी चरण में दोगुनी कीं। तब तक बहुत देर हो चुकी थी क्योंकि तब अंतरराष्ट्रीय बाजार में यह कीमत बहुत कम हो चुकी थी और जनता के साथ यह अन्याय था। लिहाजा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने चुनाव के बाद बढ़ी हुई कीमत को नकार दिया। भारत दुनिया में कोयले का सबसे बड़ा आयातक है जबकि तेल में हमारी निर्भरता 78 प्रतिशत और गैस में हमारी निर्भरता 35 प्रतिशत है। इस वजह से हमारे विदेशी मुद्रा भंडार का एक बड़ा हिस्सा कोयले और तेल में ही चला जाता है।’
एक दशक पहले तक कुल गैस उत्पादन लगभग 31,400 एमसीएम था जबकि 1980-81 तक यह सिर्फ 2,358 एमसीएम ही था। इस हिसाब से भारत का भंडार लगभग 29 साल तक चल सकता है जबकि यहां तेल भंडार सिर्फ 19 साल तक के लिए ही है। हमारे लगभग 70 प्राकृतिक गैस भंडार बंबई हाई बेसिन और गुजरात में ही है। आर. एस. शर्मा बताते हैं, 'कतर के साथ हमारे पांच साल के अनुबंध के तहत गैस का 14 डॉलर एमएमएससीएमडी था जिसे हम मोलभाव करके 7 डॉलर के करीब ले आए। लेकिन हम अपने भंडार के खनन में यही दाम क्यों नहीं देते, यह समझ से परे है। इसी दाम पर खनन मंजूरी मिलने से हमारी विदेशी मुद्रा बचेगी, उद्योग विकसित होंगे, मुद्रा विनिमय दर सुधरेगी और रोजगार बढ़ेंगे। यह कहां की नीति है कि अपने घरेलू खनन को हम चार डॉलर से ज्यादा नहीं देंगे। हमें अपने घरेलू उत्पादन को ही बढ़ावा देना चाहिए और आयात मूल्य से ज्यादा भी खर्च आ रहा है तो भी खनन की मंजूरी देनी चाहिए। मोजांबिक और दूसरी जगहों पर इक्विटी गैस में हिस्सेदारी जरूर बढ़ाई जाए लेकिन घरेलू उत्पादकों के लिए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उन्हें भी आयातित मूल्य के बराबर ही भुगतान किया जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और हमारी अड़ियल नीतियों के कारण नई कंपनियां एक-एक करके यहां से जाने लगीं।’