गीतकार संतोष आनंद की कहानी के बाद कई सवाल, क्यों बॉलीवुड के भूले-बिसरे दिग्गजों की नहीं लेता कोई सुध
बॉलीवुड के रुपहले परदे के पीछे का सच स्याह है। ग्लैमर और चकाचौंध भरी फिल्म इंडस्ट्री में सिर्फ चढ़ते सूरज की पूजा होती है। गलाकाट प्रतिस्पर्धा के बीच इतनी इंसानियत या फुर्सत किसे है कि उन्हें याद रखा जाए, जिनके सितारे गर्दिश में हैं। भले ही एक दौर में उन्होंने अपने फन से लाखों का दिल जीता हो और अपनी जिंदगी का एक बेहतरीन हिस्सा इसके नाम समर्पित कर दिया हो। पिछले दिनों चर्चित टेलीविजन शो, इंडियन आइडल के एक एपिसोड में मशहूर कवि और गीतकार संतोष आनंद की दास्तां सुनकर लाखों दर्शकों की आंखें नम हो गईं। व्हीलचेयर पर कार्यक्रम में पहुंचे 81 साल के गीतकार ने हिंदी सिनेमा संगीत के सुनहरे दौर को याद करने के साथ-साथ अपनी निजी जिंदगी में होने वाली बड़ी त्रासदी का भी जिक्र किया। अपने युवा पुत्र और बहू के असामयिक निधन का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि वे अब कैसे अपनी पोती के लिए जीने का हौसला रख रहे हैं। हालांकि आनंद ने कहा कि उन्हें किसी से आर्थिक मदद स्वीकार नहीं। कार्यक्रम की एक जज, पार्श्व गायिका नेहा कक्कड़ ने उन्हें पांच लाख रुपये देने की घोषणा की। स्वाभिमानी आनंद ने पैसे लेने से फौरन इनकार कर दिया, लेकिन नेहा के यह कहने पर कि वे उनसे पैसे उन्हें अपनी पोती समझकर कर स्वीकार कर लें, तब भावुक होकर वे इसके लिए राजी हुए।
संतोष आनंद की पहचान महज बॉलीवुड में अपने लिखे गानों की वजह से नहीं है। वे देश के ख्यात कवियों में से एक रहे हैं और अब भी ढलती उम्र और बीमारियों के बावजूद कवि सम्मेलनों और मुशायरों में शिरकत कर रहे हैं। उन्हें फिल्म इंडस्ट्री से किसी तरह की आर्थिक मदद की अपेक्षा नहीं रही है। उन्हें जरूरत रही तो बस इतनी कि फिल्म उद्योग उनकी उपलाब्धियों का उचित सम्मान करे।
आनंद ने अपने करिअर में बहुत गीत नहीं लिखे, लेकिन जो कुछ भी लिखा, वह उन्हें भारतीय सिनेमा के संगीत इतिहास में अमर बनाने के लिए काफी है। उनका शुमार अब तक के बेहतरीन गीतकारों में होता है। उनके लिखे गाने, ‘एक प्यार का नगमा है’ (शोर/1972), ‘मैं ना भूलूंगा’ (रोटी कपड़ा और मकान/1974), ‘जिंदगी की न टूटे लड़ी’ (क्रांति/1981), ‘तेरा साथ है तो मुझे क्या कमी है’ (प्यासा सावन/1981) और ‘मोहब्बत है क्या चीज’ (प्रेम रोग/1982) की गिनती आज भी सर्वकालीन श्रेष्ठ गीतों में होती है।
अपने छोटे से करिअर में आनंद ने दो फिल्मफेयर अवार्ड जीते और राज कपूर, मनोज कुमार, फिरोज खान जैसे दिग्गज अभिनेता-निर्देशकों की फिल्मों में गीत लिखे, लेकिन बाद के वर्षों में फिल्मकारों ने उन्हें भुला दिया। आनंद ने म्यूजिकल रियलिटी शो इंडियन आइडल के दौरान कहा कि वे मुंबई आते थे और रात-रात भर जाग कर गीत लिखते थे। उन्होंने ज्यादातर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की धुनों के लिए अविस्मरणीय बोल लिखे, लेकिन वे संगीतकारों की किसी लॉबी का हिस्सा नहीं रहे।
आनंद भले ही जीवन-यापन के लिए मायानगरी के सपनों के सौदागरों पर आश्रित न रहे हों, लेकिन उनकी आपबीती ने एक बार फिर बॉलीवुड के उम्रदराज कलाकारों, गीतकार-संगीतकारों और तकनीशियनों के प्रति होती रही बेरुखी को रेखांकित किया, जो गुमनाम, बीमार और एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे हैं और अपनी देखभाल नहीं कर सकते।
बॉलीवुड हमेशा से ऐसा ही रहा है। सिनेमा श्वेत-श्याम से भले ही रंगीन हो गया हो, 100-200 करोड़ रुपये से ऊपर का कारोबार कर रहा हो, लेकिन बुजुर्ग कलाकारों या सिनेमा से जुड़े किसी अन्य ‘रिटायर्ड’ कर्मी के लिए फिक्र करना इसकी फितरत में नहीं।
कुछ वर्ष पूर्व, दिग्गज कलाकार ए.के. हंगल की माली हालत अंतिम दिनों में इतनी खराब थी कि उनके पास इलाज कराने के भी पैसे नहीं थे। जब उनके परिवार के हवाले से मीडिया में इसकी खबर आई, तो अभिनेत्री जया बच्चन सहित कई लोग उनकी मदद को आगे आए। हंगल ने अनगिनत फिल्मों में जानदार भूमिकाएं निभाईं, वे थिएटर के भी दिग्गज कलाकार थे। वे इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) के संस्थापक सदस्यों में से एक थे।
एक जमाने में पंजाबी सिनेमा के सुपरस्टार सतीश कौल के पास भी अपना इलाज कराने के पैसे नहीं थे, जिन्होंने सत्तर और अस्सी के दशक में कई हिंदी फिल्मों में काम किया। उनकी मदद करने फिल्म इंडस्ट्री के लोगों से ज्यादा दुनिया भर में फैले उनके प्रशंसक सामने आए। हाल ही में अभिनेता फराज खान को बेंगलूरू के एक निजी अस्पताल में मौत से जूझते पाया गया। इसकी खबर उनके प्रशंसकों को तब लगी जब अभिनेत्री-फिल्मकार पूजा भट्ट ने इस बारे में ट्वीट किया। उन्होंने लिखा कि फराज को सर्जरी के लिए 25 लाख रुपये की जरूरत है। उनकी अपील पर ‘क्राउड-फंडिंग’ के माध्यम से पैसे तो इकट्ठे हो गए लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। 50 साल की उम्र में फराज का देहांत हो गया।
नब्बे के दौर में फराज ने बतौर नायक फरेब (1996) जैसी हिट फिल्म दी थी और उन्हें इंडस्ट्री के चंद उभरते सितारों में से एक समझा जाता था, लेकिन उनकी बाकी फिल्मों के बॉक्स ऑफिस पर पिटने के बाद वे धीरे-धीरे इंडस्ट्री से बाहर हो गए। जीवन के अंतिम वर्षों में उन्हें आर्थिक तंगी से जूझना पड़ा और उनके पास अपनी बीमारियों से लड़ने के लिए पैसे नहीं बचे थे। बॉलीवुड में ऐसे दृष्टान्तों की कमी नहीं रही है।
विडंबना है कि हर साल हजारों नौजवान आंखों में सपने संजोये मुंबई की फिल्मी दुनिया में अपनी तकदीर बनाने की उम्मीद के साथ पहुंचते हैं, लेकिन गिने-चुने लोगों के अलावा, बाकियों को निराशा ही हाथ लगती है। वर्षों के संघर्ष के बाद भी कई लोगों को सम्मानजनक काम नहीं मिल पाता है। दरअसल, अब स्थिति पहले से भी बदतर होती जा रही है। डिजिटल दौर में अमेजन प्राइम वीडियो और नेटफ्लिक्स जैसे वैश्विक ओटीटी प्लेटफॉर्म के आने से मनोरंजन के क्षेत्र में लोगों को अपनी प्रतिभा दिखाने के अवसर निस्संदेह बढ़े हैं, लेकिन यह भी सही है कि सभी को सफलता नहीं मिलती।
अस्सी के दशक में, अपने जमाने की चर्चित और खूबसूरत अभिनेत्री विमी का जब निधन हुआ, तो उनके शरीर को ठेले पर डाल कर श्मशान ले जाया गया था। 1967 में प्रदर्शित बी.आर. चोपड़ा की फिल्म हमराज से लोकप्रिय हुई विमी को अंतिम विदाई देने वालों में फिल्म इंडस्ट्री से मात्र उनकी पहली फिल्म के सह-कलाकार सुनील दत्त मौजूद थे। विमी से पहले, हिंदी सिनेमा की ‘डांसिंग क्वीन’ कही जाने वाली कुक्कू मोरे की मौत भी ऐसी ही परिस्थितियों में हुई थी।
पंद्रह साल पहले, सत्तर और अस्सी के दशक की प्रसिद्ध अभिनेत्रियों में से एक, परवीन बाबी की मौत का पता तब चला जब उनके पड़ोसियों ने देखा कि अखबार और दूध के पैकेट कई दिनों से उनके दरवाजे के बाहर पड़े हुए हैं। यह वही परवीन बाबी थीं, जिन्हें प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय पत्रिका टाइम ने कभी अपने मुखपृष्ठ पर छापा था। पचास और साठ के दशक में भगवान दादा और भारत भूषण चोटी के अभिनेताओं में शामिल थे, लेकिन बाद में उनके सितारे गर्दिश में चले गए। दोनों ने जीवन के अंतिम वर्षों में छोटी-छोटी भूमिकाएं कर गुजर-बसर किया।
फिल्म इंडस्ट्री के संगठनों को संसाधनों और इच्छाशक्ति के अभाव में ऐसा स्थायी कोष बनाने में सफलता नहीं मिली है जिससे बुजुर्ग कलाकारों को मासिक पेंशन या किसी अन्य तरीके से आर्थिक मदद की जा सके। कोरोनावायरस के कारण फिल्म इंडस्ट्री में दिहाड़ी पर काम करने वाले हजारों लोगों के सामने पिछले साल गंभीर समस्या खड़ी हो गई थी। सलमान खान जैसे सितारे उनकी मदद को आगे आए लेकिन पूरी इंडस्ट्री के लिए जूनियर आर्टिस्टों या अन्य कर्मियों के लिए कोई समेकित प्रयास नहीं किया गया। 1986 में जूनियर आर्टिस्टों की मदद के लिए बॉलीवुड के तमाम कलाकारों ने होप-86 नामक चैरिटी कार्यक्रम कर कुछ राशि इकट्ठा की थी, लेकिन उसके बाद वैसी कोई पहल नहीं हुई।
संतोष आनंद प्रकरण के बाद उम्मीद है कि बॉलीवुड, खासकर बड़े निर्माता-निर्देशक इसकी पहल करेंगे और उन कलाकारों और तकनीशियनों की सुध लेंगे, जिन्हें उन्होंने वर्षों पहले बिसरा दिया है। उन्हें याद होना चाहिए कि हर उगते सूरज का अस्त होना तय है।
(लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म आलोचक हैं)