अमृता प्रीतम : लेखिका जो जीते जी अफसाना बन गईं
अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त सन 1919 को गुजरांवाला पाकिस्तान में हुआ था। उनकी मां राज बीवी और पिता करतार सिंह थे। पिता का हमेशा से आध्यात्मिक रुझान था। इस कारण उन्हें हमेशा जमाने से विरक्ति रहती थी। अमृता जब 11 वर्ष की हुईं तो, मां राज बीवी का निधन हो गया। इसका उन पर और पिता करतार सिंह पर गहरा प्रभाव पड़ा। पिता घर में ही धार्मिक वातावरण बनाकर ईश्वर की आराधना करते। उनका मन तो संन्यासी हो जाने का था मगर अमृता की जिम्मेदारी उन्हें रोक लेती थी। करतार सिंह अपना अधिकांश समय कविताएं लिखने में खर्च करते।इसका असर अमृता पर भी पड़ा। उन्होंने भी कम उम्र में ही अपनी भावनाओं को शब्द देने की शुरूआत की।
अमृता प्रीतम को उनकी मां की मौत ने गहरा आघात पहुंचाया। मां की मृत्यु के बाद से अमृता का ईश्वर से विश्वास खत्म हो गया। अमृता जातिवादी मानसिकता की विरोधी थीं। मां की मृत्यु के बाद अमृता का लालन पालन उनकी नानी के घर में हो रहा था। अमृता ने देखा कि नानी के घर में दूसरे धर्म के लोगों और नीची जाति के इंसानों के लिए अलग बर्तन हैं। अमृता को यह भेदभाव अच्छा नहीं लगा। उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी, जो उस समय खत्म हुई, जब पिता और नानी से घर में व्याप्त दोहरे मापदंड उखाड़ फेंके।
वारिस शाह को लिखी नज्म ने अमर कर दिया
साल 1936 में 16 वर्ष की आयु में पिता करतार सिंह ने अमृता का विवाह प्रीतम सिंह से करवाया। इस तरह अमृता के नाम में प्रीतम जुड़ गया। हालांकि यह रिश्ता कामयाब नहीं रहा और उतार चढ़ाव के बाद अमृता और प्रीतम सिंह साल 1960 में अलग हो गए। अमृता प्रीतम पर भारत के विभाजन का गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपनी आंख से विस्थापन, दंगे, हत्याएं और बलात्कार देखे। यह देखकर अमृता का मन रो पड़ा। तब उनकी कलम से निकली एक कविता ने पूरे देश में क्रांति पैदा कर दी। कविता के बोल थे "अज्ज अक्खां वारिस शाह नूं"। इस कविता में अमृता सूफी कवि वारिस शाह को संबोधित करते हुए कहती हैं कि जब हीर रोई तो तुमने कविता लिखी थी। आज विभाजन के मौके पर पंजाब की असंख्य बेटियां आंसू बहा रही हैं, तुम कब्र से चुप कैसे रह सकते हो, कुछ बोल न तुम। अमृता प्रीतम की इस कविता ने उन्हें हिंदुस्तान और पाकिस्तान में लोकप्रित बना दिया। अमृता लोगों के दिलों में बसने लगीं। उर्दू अदीब अहमद नसीम कासमी ने एक बार कहा था कि अमृता प्रीतम की इस कविता को पाकिस्तान के लोग कागज पर लिखकर अपनी जेब में रखते हैं और दिन में दस बार पढ़कर रोते हैं। पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह ने अमृता प्रीतम के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा थी इस कविता की दस लाइनों ने अमृता प्रीतम को हमेशा के लिए अमर कर दिया।
अमृता ने अपनी पहली नज्म लिखी तो वह उनके पिता के हाथ लग गई। उसमें किसी राजन का जिक्र था। जब पिता ने नज्म पढ़ी तो अमृता से राजन के विषय में पूछा था। अमृता ने झूठ बोलते हुए कहा कि यह नज्म उनकी सहेली ने लिखी है। पिता ने अमृता का झूठ पकड़ लिया और अमृता को एक थप्पड़ लगाते हुए, नज्म फाड़कर फेंक दी। मगर इस बात से अमृता के लेखन पर कोई असर नहीं हुआ। अमृता पाकिस्तान से विभाजन के बाद भारत आईं तो उनके शुरुआती दिन देहरादून में बीते। लेखन कार्य के लिए उन्होंने देहरादून से दिल्ली आने का निर्णय लिया। अमृता ऑल इंडिया रेडियो दिल्ली केंद्र से जुड़ गईं और रचनात्मक कार्य करने लगीं। धीरे धीरे अमृता हिंदुस्तान की सबसे मशहूर लेखिका बन गईं। उन्हें देश और विदेश में उनकी रचनाओं के लिए सम्मान दिया जाने लगा। कविता और कहानी के सिलसिले में अमृता ने देश विदेश की यात्राएं की। मगर उनका रचनात्मक कार्य प्रेम के कारण बड़ा प्रभावित रहा। अमृता के जीवन में प्रेम की आवाजाही कुछ ऐसी रही कि उनके किरदार को केवल एक प्रेमिका तक सीमित कर के देखा जाने लगा।
साहिर की खामोशी तड़पाती रही
अमृता के जीवन में जो दो मुख्य पुरुष आए, वह साहिर और इमरोज थे। इन्हीं के कारण अमृता जीते जी एक किवदंती बन गईं। इनके इश्क के किस्से खूब मशहूर हुए। अमृता प्रीतम गीतकार साहिर लुधियानवी से बहुत प्रेम करती थीं। इस प्रेम का कारण था साहिर की शायरी। अमृता को साहिर की शायरी से दीवानगी की हद तक प्रेम था। साहिर इस बात को जानते थे। साहिर को भी अमृता से प्रेम था मगर साहिर ने कभी हिम्मत नहीं दिखाई। कभी खुलकर अमृता से प्यार का इजहार नहीं किया। इसके कई कारण हो सकते हैं। कयास लगाए जाते हैं कि साहिर ने बचपन में अपनी मां और पिता के दुखद वैवाहिक संबंध को बहुत नजदीक से देखा था। इस कारण वह आजीवन अपनी मां के बहुत करीब रहे। साहिर की मां ने बहुत दुख उठाकर उन्हें पाला था। शायद वह अपना समय, अपना प्यार साझा करने से डरते थे। इसलिए उन्होंने अकेलापन चुन लिया। साहिर लुधियानवी ने कभी अमृता का हाथ नहीं थामा। साहिर अकेले रहे और यह कष्ट अमृता को हमेशा पीड़ा देता रहा।
अमृता प्रीतम जब भी साहिर से मिलती तो दोनों एक कमरे में चुपचाप बैठे रहते। साहिर न के बराबर बात करते थे। अमृता इस खामोशी को पढ़ने की कोशिश करती रहतीं। साहिर की अधूरी रह गईं सिगरेट को अमृता जलाकर पीती थीं और इस तरह उन्हें सिगरेट और साहिर की लत लग गई। अमृता को साहिर से मिलवाने के लिए इमरोज अपने स्कूटर पर ले जाते थे। रास्ते में अमृता इमरोज की पीठ पर उंगली से साहिर लिखा करती थीं। अमृता ने साहिर के नाम नज्म लिखी तो उसे साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। अमृता के खतों को साहिर सीने से लगाकर घूमा करते थे।मगर अमृता को यह अफ़सोस रहा कि उनकी नज्म, उनके खत पढ़कर भी साहिर की खामोशी नहीं टूटी।
जिंदगी की शाम में मिले इमरोज
अमृता और इमरोज का रिश्ता भी अविश्वसनीय था। चित्रकार इमरोज की मुलाकात अमृता से तब हुई, जब उन्होंने अमृता की कविता के लिए, पत्रिका में रेखांकन कार्य किया। अमृता और इमरोज की दोस्ती हुई और धीरे धीरे दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगे। दोनों ने कभी एक दूसरे से प्रेम की औपचारिक घोषणा नहीं की। दोनों कहते थे कि प्रेम होने पर इसकी घोषणा नहीं की जाती। अमृता और इमरोज बिना किसी वैवाहिक बंधन के एक साथ रहते थे। दोनों। एक ही घर में रहते मगर अलग अलग कमरे में। अमृता रात भर जागकर लिखा करती थीं और इमरोज देर रात उन्हें चाय बनाकर दिया करते थे।
एक बार इमरोज की नौकरी मुंबई में निर्देशक गुरू दत्त की कंपनी में लग गई। इमरोज दिल्ली से मुंबई पहुंचे तो अमृता बीमार पड़ गईं। उन्हें लगा कि साहिर की तरह इमरोज भी उन्हें अकेला छोड़ देंगे। जब अमृता के बीमार होने की खबर इमरोज को मिली तो उन्होंने गुरुदत्त की नौकरी छोड़ दी और फौरन अमृता के पास दिल्ली लौट आए। अमृता प्रीतम और इमरोज दो जिस्म एक जान थे। अमृता जहां भी जाती, इमरोज ड्राइवर की तरह उनके साथ जाते। चाहे वह साहित्यिक सभाएं हों या राज्यसभा सदन, हमेशा इमरोज की गाड़ी चलाकर अमृता के साथ जाते थे। अमृता ने इमरोज को लेकर कहा था कि काश वह उन्हें पहले मिले होते। इमरोज ने अमृता का साथ अंतिम क्षण तक निभाया। बाथरूम में गिर जाने से अमृता की कूल्हे की हड्डी टूट गई, जिस कारण वह आखिर तक पीड़ा में रहीं। इस पूरे समय में इमरोज अमृता की सेवा में लगे रहे। अमृता को नहलाने कपड़े पहनाने से लेकर खिलाने पिलाने, घुमाने का काम इमरोज करते थे। उम्र के आख़िरी वर्षों में इमरोज ने मां की तरह अमृता की देखभाल की।
मनोज कुमार हुए नाराज
अमृता प्रीतम की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से गहरी दोस्ती थी। इसका अमृता प्रीतम को बहुत लाभ हुआ। लेकिन इसी लाभ के कारण अमृता को कुछ ऐसे कदम में उठाने पड़े, जिस कारण बाद में उन्हें शर्मिंदा भी होना पड़ा। जब सन 1975 में देश में इमरजेंसी की घोषणा हुई तो उन सभी लोगों को जेल में बंद कर दिया गया, जो इन्दिरा गांधी के विरोध में थे। उन कलाकारों को बैन कर दिया गया, जिन्होंने इन्दिरा गांधी का समर्थन नहीं किया। इन परिस्थितियों में देश के कई बड़े लेखक थे, जिन्होंने पत्र लिखकर इन्दिरा गांधी और आपातकाल का समर्थन किया था। इनमें अमृता प्रीतम का नाम भी शामिल था। अब यह चुनाव था या मजबूरी मगर अमृता के इस फैसले को जनता ने अच्छी निगाह से नहीं देखा। इसे दुनिया ने इन्दिरा गांधी के सामने घुटने टेकने की घटना की तरह देखा। अभिनेता मनोज कुमार को भी इन्दिरा गांधी की सरकार ने इमरजेंसी में प्रताड़ित किया। इसका कारण यह था कि इन्दिरा गांधी सरकार में केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल चाहते थे कि मनोज कुमार इन्दिरा गांधी और इमरजेंसी के समर्थन में एक डॉक्यूमेंट्री बनाएं। इस संबंध में मनोज कुमार के पास डॉक्यूमेंट्री की स्क्रिप्ट भी भेजी गई, जिसे अमृता प्रीतम ने लिखा था। अमृता प्रीतम का नाम देखकर मनोज कुमार नाराज हो गए और उन्होंने अमृता को फोन कर कहा कि क्या विवशता के कारण एक लेखिका को कलम गिरवी पड़ी है?। इस बात को सुनकर अमृता शर्मिंदा हो गईं और उन्होंने स्क्रिप्ट को जला देने के लिए कहा।
अमृता प्रीतम ने अपने जीवन काल में ढेर सारी कहानियां,कविताएं, उपन्यास लिखे। अमृता प्रीतम को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए। अमृता प्रीतम को साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। उन्हें साल 1986 में राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया। साल 2004 में सरकार ने अमृता प्रीतम को पद्म विभूषण से सम्मानित किया। 31 अक्टूबर सन 2005 में अमृता का निधन हो गया। एक समृद्ध जीवन में अमृता ने समाज को प्रेरणा दी। विशेष रूप से भारतीय महिलाओं के लिए अमृता प्रीतम आदर्श बन गईं। अफ़सोस कि अमृता को हमेशा ही साहिर और इमरोज की प्रेमिका की तरह देखा जाता रहा। जबकि अमृता की अपनी शख्सियत कहीं मजबूत, कहीं विशाल थी।