बॉलीवुडः महानायक धर्मेंद्र का छह दशकों का करिअर, बंटा हुआ है दो सदियों में
धर्मेंद्र भारतीय सिनेमा के ऐसे नायक हैं, जिनका यश दो सदियों में फैला हुआ है। कुछ समय पहले ही उनके साथ सुपरहिट फिल्में (हुकूमत, तहलका, अपने) बनाने वाले निर्देशक अनिल शर्मा ने अपने का दूसरा भाग बनाने की तैयारी शुरू कर दी है। 1960 में निर्देशक अर्जुन हिंगोरानी ने दिल भी तेरा हम भी तेरे फिल्म बनाई थी, जिन्होंने आगे चलकर धर्मेंद्र की अनेक सुपरहिट फिल्में (कब क्यों और कहां, कहानी किस्मत की आदि) बनाई और उनके गहरे दोस्त बन गए। यह वह दौर था, जब पिता से बहुत डरने और उनका बड़ा लिहाज करने वाले धर्मेंद्र ने फिल्म फेयर टैलेंट कॉन्टेस्ट फॉर्म भरा था और चयन होने पर चुपके से मां को बताकर, उनका आशीर्वाद लेकर मुंबई पहुंचे थे। चयन के बाद भी दिलीप कुमार साहब के अपार प्रशंसक धर्मेंद्र की राह आसान नहीं थी। सो निर्माताओं के दफ्तरों के चक्कर लगाना होते थे। उस समय अर्जुन हिंगोरानी खुद भी हीरो बनना चाहते थे। अक्सर दोनों किसी न किसी ऑफिस या स्टूडियो में आमने-सामने मिलते थे, मिलकर मुस्कराते थे। धीरे-धीरे पहचान हुई। नायक के रूप में कोई मौका न मिलने पर अर्जुन ने निर्देशक बनने का प्रयास शुरू किया लेकिन मन में बात यह थी फिल्म शुरू करूंगा तो नायक धर्मेंद्र होंगे। दिल भी तेरा हम भी तेरे में धर्मेंद्र का नायक होना इसी के मूल में है। एक साल बाद रमेश सैगल की शोला और शबनम जैसी खूबसूरत फिल्म उनको मिली, जिसमें उनका काम सराहा गया।
एक-दो फिल्में और मिलीं, मोहन कुमार की अनपढ़ और फिर बिमल रॉय की बन्दिनी। बन्दिनी में डॉक्टर की भूमिका मिलने के बाद उन्होंने अपने किरदार पर बहुत मेहनत की। अशोक कुमार जैसे बड़े कलाकार और नूतन जैसी अभिनेत्री का बड़े ही सशक्त किरदार में होना जैसे धर्मेंद्र को छू तक न गया और वे बिमल दा की सिने-परिकल्पना में अपनी जगह से सराहे गए। एक यात्रा यहां से शुरू होती है जिसमें अथक परिश्रम और क्षमताओं के हिसाब से आगे आते चले गए जब खूबसूरत नामों वाली फिल्में, प्रतिष्ठित निर्देशकों वाली फिल्में, प्रभावी नायिकाओं और सहयोगी कलाकारों वाली फिल्मों के नायक के रूप में परिचित होते चले गए। साठ से सत्तर का दशक जिसमें हकीकत, पूजा के फूल, आई मिलन की बेला, आपकी परछाइयां, नीला आकाश, पूर्णिमा, काजल, चांद और सूरज, आकाशदीप, ममता, देवर, दिल ने फिर याद किया, आए दिन बहार के, मंझली दीदी, चंदन का पालना, बहारों की मंजिल, प्यार ही प्यार, आया सावन झूम के, आदमी और इंसान जैसी फिल्में बीच-बीच की कुछ उत्कृष्ट और ऐतिहासिक महत्व की फिल्मों की बड़ी सफलता से दर्शकों को आकृष्ट करने में सफल होती चली गईं। हम निश्चित रूप से 1964 में आई चेतन आनंद की हकीकत को याद करेंगे जो भारत-चीन युद्ध के वातावरण में उस समय के एक बड़े निर्देशक की भावुक श्रद्धांजलि मानी गई। इसी तरह 1966 में ओमप्रकाश रल्हन की फिल्म फूल और पत्थर में जिस प्रकार शाका के रूप में ग्रे-शेड के साथ निर्देशक ने धर्मेंद्र को एक सहृदय नायक के रूप में प्रस्तुत किया वह बड़ा कमाल था। इस फिल्म से धर्मेंद्र के रूप में एक सशक्त नायक आंधी की तरह आया और जम गया।
दिलचस्प यह था कि ठीक इसी वक्त में महान फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी ने उनको लेकर अनुपमा बनाई जिसमें फूल और पत्थर से अलग एक नायक है, जो अपने पिता की नफरत और गुस्से से सहमी नायिका के लिए एक बड़ी उम्मीद बनकर आया है, या दिल की सुनो दुनिया वालों, या मुझको अभी चुप रहने दो, मैं गम को खुशी कैसे कह दूं, जो कहते हैं उनको कहने दो गाते हुए धर्मेंद्र बड़ी कोमल अनुभूति के साथ हमारे दिल का हिस्सा बन जाते हैं। दो साल बाद 1968 में रामानंद सागर उनको लेकर आंखें बनाते हैं और उन्हें हिंदी सिनेमा का जेम्स बॉण्ड घोषित कर देते हैं। आंखें गोल्डन जुबली फिल्म बनी, जिसने जासूसी सिनेमा के विदेशी आकर्षण की उत्कंठा को तृप्त किया और दर्शकों ने फिल्म के नायक को सिर-आंखों पर बैठा लिया।
बाद में 1970 के दशक से आगे फिर वे अपनी आश्वस्त और सधी हुई चाल से अपने विविध किरदारों में सफल होते रहे। वे कहते हैं, “परदे पर मुझे दर्शकों ने जो प्यार दिया है, वह अनमोल है। आज जो कुछ भी मैं हूं, वह अपने चाहने वालों की वजह से ही हूं। बुजुर्गों ने मुझमें अपना बेटा देखा, बहनों ने मुझमें अपना भाई देखा, यारों ने मुझमें अपना यार देखा, ऐसा प्यार बड़ी मुश्किल से मिलता है।” जब मैंने धीरे से कहा कि और हर नायिका ने अपना नायक, तो इस पर वे निरे भोलेपन से शरमा गए। स्वभाव से बहुत ही संवेदनशील धर्मेंद्र ने अपने चरित्रों में इसी गुण की वजह से प्राण फूंक दिए हैं। मन की आंखें, तुम हसीं मैं जवां, शराफत, कब क्यों और कहां, जीवन मृत्यु, नया जमाना, मेरा गांव मेरा देश, गुड्डी, सीता और गीता, शिकार, समाधि, राजा जानी, लोफर, यादों की बारात, फागुन, कहानी किस्मत की, जुगनू, ब्लेकमेल, पत्थर और पायल, दोस्त, प्रतिज्ञा, शोले, चुपके चुपके, धरमवीर, चाचा भतीजा, कर्तव्य, राम बलराम, क्रोधी, गजब, बगावत, राजपूत, रजिया सुल्तान, नौकर बीवी का, गुलामी, हुकूमत, लोहा से लेकर इधर जॉनी गद्दार, अपने और यमला पगला दीवाना के तीन संस्करण तक धर्मेंद्र हमारे सामने जिस तरह का व्यक्तित्व होते हैं वह इकसठ साल की निरंतर सक्रियता के बाद भी अपने हौसले और उत्साह में वही हैं, जैसा दर्शकों ने उनको बनाया है, जैसा चाहा है।
धर्मेंद्र के साथ कई फिल्मों में मीना कुमारी, शर्मिला टैगोर, राखी, नूतन, वहीदा रहमान, सुचित्रा सेन, वैजयंती माला, आशा पारेख, हेमा मालिनी, तनूजा, जया बच्चन, मुमताज, सायरा बानो, रीना राय, अनीता राज, जयाप्रदा, श्रीदेवी इत्यादि वरिष्ठ, समकालीन और नई अभिनेत्रियों ने काम किया। प्राय: सभी अभिनेत्रियों ने उनके साथ किए गए काम और अनुभवों की प्रशंसा की। निर्देशकों ने हमेशा उनकी तारीफ की है। बिमल रॉय, रघुनाथ झालानी, अर्जुन हिंगोरानी, राज खोसला, मोहन कुमार, मोहन सहगल, असित सेन, जे ओमप्रकाश, हृषिकेश मुखर्जी, प्रमोद चक्रवर्ती, रमेश सिप्पी, मनमोहन देसाई, विजय आनंद, रामानंद सागर, अनिल शर्मा, जे.पी. दत्ता, श्रीराम राघवन सभी ने धर्मेंद्र के साथ काम करने को अपना यादगार अनुभव बताया है।
(लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं)