इन्फ्लुएंसरों के भरोसे बॉलीवुड
पिछले दशक में, बॉलीवुड पटकथा लेखकों को नया सहारा मिल गया है, सोशल मीडिया। चाहे वह ऐ दिल है मुश्किल (2016) में रणबीर कपूर का संगीतकार के रूप में तेजी से आगे बढ़ना हो या मिर्जापुर (2018-अब तक) में लीक एक सेक्स टेप के कारण प्रतिद्वंद्वी नेता की इज्जत धूल में मिलना हो। सर्वव्यापी सोशल मीडिया की उपस्थिति हाइपर डिजिटल युग की फिल्मों और शो में हर जगह दिखाई पड़ती है। दिलचस्प है कि यह कहानी कहने की सुविधा का भी एक स्रोत बन गया है। असली दुनिया में जहां एक ‘वायरल’ क्लिप या ट्वीट के (आम तौर पर) प्रभाव को कम करके आंका जाता है, वहीं फिल्मों में यह सशक्त माध्यम है।
पिछले कुछ साल में सोशल मीडिया को शामिल करने का बॉलीवुड का दायरा और भी बढ़ गया है, जिसमें कम से कम एक इन्फ्लुएंसर का चरित्र होता ही है। जैसे, फिल्म खो गए हम कहां (2023), वेब सीरीज कॉल मी बे (2024) और हाल ही में आई विक्रमादित्य मोटवाने की फिल्म कंट्रोल (2024) के सभी प्रमुख पात्र इन्फ्लुएंसर हैं। संयोग से तीनों ही फिल्म और शो में अनन्या पांडे ने काम किया है। मुख्यधारा की फिल्में और शो शायद ही कभी बारीकी और परवाह के साथ संस्कृति को विकसित करते हैं। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि चकाचौंध भरी दिखने वाली लेकिन अंधेरी और एकांत सोशल मीडिया की इस दुनिया के चित्रण में फिल्मवालों ने न्याय नहीं किया। बल्कि इन्फ्लुएंसरों को स्टीरियोटाइप से परे दिखाया। जैसे, उथला, लेने-देने वाला या बहुत ही बेखबर, जो अंत में सिर्फ हंसा कर राहत देता है। ऐसे ही एक दृश्य ने मोटवानी की फिल्म पर सवाल उठाए। फिल्म में एक इन्फ्लुएंसर डार्क वेब ब्राउजर टीओआर के बारे में नए एआइ टूल से पूछती है। हालांकि इसके बचाव में कहा जा सकता है कि जिन दर्शकों को डार्क वेब नहीं मालूम उनको समझाने के लिए निर्माताओं ने ऐसा किया। लेकिन इसे कम से कम इसे इतने खुले तौर पर दिखाने की कतई जरूरत नहीं थी। नैला (पांडेय) अपने एआइ असिस्टेंट से पूछती है, जो विकिपीडिया उत्तर के साथ पहले से ही तैयार है। कंटेंट क्रिएटर आरुषी कपूर कहती हैं, ‘‘मुझे नहीं लगता कि इस स्तर की बेवकूफी भरी प्रूफिंग आवश्यक है, लेकिन इन दिनों यह चलन बनता जा रहा है।’’
फिल्म मेकर अक्षय नायर तर्क देते हैं कि चार-पांच साल पहले तक जहां हम अपने सोशल मीडिया फीड पर आ रहे विज्ञापन देखकर आश्चर्यचकित होते थे, वहीं आज यह सामान्य हो गया है। वे मजाक में कहते हैं, ‘‘इन दिनों हम ऐसी चीजों के विज्ञापन देख कर चिल्लाते हैं, जो हम देखना चाहते हैं।’’ वे आगे कहते हैं, ‘‘मुझे लगता है, जानबूझकर या अवचेतन में, हमने इस आतंक को स्वीकार कर लिया है।’’ एक बात जो नायर को परेशान करती है, वह यह कि कैसे बिना किसी परेशानी के नैला हर समय अपना कैमरा चालू रखती थी। लेकिन फिर वे इसे तर्कसंगत बनाने के लिए तथ्य देते हैं कि जनरेशन जेड आक्रमक ढंग से अपने जीवन को ऑनलाइन साझा करती है। शायद अनुभवहीनता के कारण। भले ही नायर को नेटफ्लिक्स पर आई फिल्म कंट्रोल पसंद नहीं है, लेकिन वे इसे खारिज नहीं करते। उनकी मां फिल्म देख कर डर गई थीं। वे कहते हैं, “यह अवधारणा मुझे थोड़ी पुरानी लगी, लेकिन शायद ऐसा इसलिए है क्योंकि मैंने लगभग एक दशक पहले ब्लैक मिरर देखी था। संभव है कि आप या मैं कंट्रोल के दर्शक न हों।’’ बेदी, जिन्होंने थैंक यू फॉर कमिंग (2022) और ट्रायल बाय फायर (2023) में अभिनय किया, मानती हैं कि अधिकांश फिल्में प्रभावशाली दुनिया की कुछ बारीकियों को पकड़ती हैं, लेकिन कुछ वर्गीकृत भी होती हैं। वे कहती हैं, ‘‘हर बात परफॉर्मेंस वाली जगह से नहीं आती, कुछ भरोसे से भी आती है। वे बताती हैं कि कैसे सोशल मीडिया ने सेलिब्रिटीहुड के वर्चस्व को बाधित किया है, लेकिन इसे अभी भी एक गैर-गंभीर पेशे के रूप में देखा जाता है, जिसमें उसके बोरिंग चित्रण का भी योगदान है।
कपूर भी बेदी के बयान को ही दोहराती हैं। वे समझाते हुए बताती हैं कि हर बार जब वह किसी संभावित ग्राहक से मिलती हैं, जो सोशल मीडिया से परिचित नहीं है, तो उन्हें हर बार क्रिएटर इकोनॉमी की अपनी यात्रा समझाने के लिए एक ही बात बार-बार दोहराना पड़ती है। वे कहती हैं, ‘‘मुझे लगता है सभी इसे थोड़ा नकारात्मक रूप से देखते हैं। इसके प्रति एक धारणा है कि इसमें बहुत कम काम किया जाता है। इसके लिए ज्यादा सोच-विचार या रणनीति बनाने की जरूरत नहीं है। लगता है, जैसे मेरी पूरी यात्रा किसी आकस्मिक प्रसिद्धि का परिणाम हो।”
बेदी कहती हैं, ‘‘वह जमाना गया जब एक वायरल वीडियो किसी क्रिएटर को स्टार बना देता था। आज क्रिएटर की स्थिति कैसी है (और कुछ समय से है) ऐसा कोई भी वीडियो दो दिन आपकी ओर ध्यान दिला पाता है। कपूर आगे जोड़ती हैं, ‘‘यह बहुत ही टेड टॉक नुमा बात है लेकिन लोग उसी एक वीडियो के बारे में बात करते हैं, जिसे दस मिलियन हिट्स मिले हैं। लोगों को ऐसे कई वीडियो पर भी ध्यान देने की जरूरत है, जो ज्यादा चल नहीं सके। यशराज मुखाटे की तरह, जो रसोड़े में कौन था से वायरल हो गए। लेकिन उन्हें वहां तक पहुंचने में साल लग गए।”
लेकिन ऐसा नहीं कह सकते कि सब कुछ निराशाजनक ही है। बॉलीवुड ने सोशल मीडिया के जंगल को बताने वाली कुछ अच्छी यथार्थवादी फिल्में बनाई हैं। जैसे जोया अख्तर की गली बॉय (2019) जिसमें धारावी की झुग्गियों से निकलकर अंतरराष्ट्रीय कलाकार बनने की मुराद की कहानी थी। इसी तरह 2004 में आया शो भक्षक था। इसमें एक स्ट्रिंगर अपने यूट्यूब चैनल के माध्यम से बिहार में एक दुर्व्यवहार करने वाले एक गिरोह का पर्दाफाश करती है, लेकिन अंत तक वायरल नहीं होती है। जबकि राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्र तक उसके चैनल से खबरें उठा कर छापते हैं। दिबाकर बनर्जी की लव, सेक्स और धोखा 2 (2024) इन्फ्लुएंसर संस्कृति को ठिकाने से रखने का शानदार काम करती है। लोगों के व्यक्तित्व को तराशना, उनकी असुरक्षाओं, भय और महत्वाकांक्षा के रूप में सामने आने वाली उनकी घोर हताशा को उजागर करना।
बेदी का मानना है कि आज के समय में एक कंटेंट क्रिएटर की कम होती शेल्फ-लाइफ समस्या है, जिसे अब तक फिल्म निर्माता (एलएसडी 2 को छोड़कर) क्रिएटर की चिंता को चित्रित करने से चूक गए हैं। “ऐसा किसी भी कारण हो सकता है, एल्गोरिदम बदलाव या कोई नया चलन। आप एक व्यवसाय चला रहे हैं और आपको हर समय सक्रिय रहना होगा।’’ नायर ने अगले दशक में प्रभावशाली अर्थव्यवस्था के लिए एक साहसिक भविष्यवाणी करते हुए कहा कि कई लोग बर्नआउट की स्थिति में आ जाएंगे और यह एक रोलरकोस्टर होने वाला है। ‘‘ऐसा लगता है कि हर कोई इस मृगतृष्णा का पीछा कर रहा है।’’ क्या बॉलीवुड बारीकी से इस बदलाव को देख पा रहा है?