समीक्षा लखनऊ सेंट्रल : न गायक न कैदी
छोटे शहर के लाइब्रेरियन का बेटा और बड़े ख्वाब। किशन गेहरोत्रा (फरहान अख्तर) ऐसे ही सपने देखने वाला बेटा है। जो हत्या उसने की नहीं उसका इल्जाम उस पर है और वह जेल भेज दिया जाता है। जेल में कैदियों के बीच सुधार लाने के लिए एक एनजीओ में काम करने वाली लड़की गायत्री (डायना पेंटी) किशन से जेल में मिलती है और एक जोकरनुमा मुख्यमंत्री (रवि किशन) के जेल में म्यूजिक बैंड के आइडिये पर काम शुरू होता है। बड़ा गायक बनने का ख्वाब देखने वाला किशन जेल में चार लोगों के साथ मिल कर बैंड बनाता है, लेकिन उसका मकसद तो कुछ और ही है। इस मकसद को पहले ही एक जरूरत से ज्यादा सख्त जेलर (रोनित राय) सूंघ लेता है। बस यही है कहानी।
फरहान अख्तर एक बार गायक बनने के सपने के लिए रॉक ऑन फिल्म में भी छटपटा चुके हैं। लेकिन इस बार वह उस इंटेसिटी तक नहीं पहुंचे कि दर्शक उनके साथ शामिल हो सकते। गायक बनने की बात तो छोड़िए, एक निर्देष व्यक्ति जिस पर हत्या का झूठा आरोप हो, उसके भाव भी उनके चेहरे पर ठीक तरह से नहीं आ पाए। निर्देशक रंजीत तिवारी शायद तय ही नहीं कर पाए कि वह जेल तोड़ कर भागने की कोशिश को तवज्जों दें या किशन गेहरोत्रा को गायक बनाने पर।
जेल में दो गुट और दोनों की अपनी सत्ता। लेकिन यह सीन भी बस छू कर जैसे निकल गए हैं। एक गाना ऐसा नहीं जिसे याद रख कर गुनगुनाया जा सके। जबकि यह एक व्यक्ति के गायक बनने के सपने की कहानी है। किशन के चार दोस्तों में से एक की भूमिका पंजाबी पॉप गायक गिप्पी ग्रेवाल ने निभाई है। गिप्पी किसी लड़की के प्रेम में है, लड़की की शादी हो गई लेकिन मन का दर्द आवाज में नहीं आता।
लखनऊ सेंट्रल न कैदी का दर्द दिखा पाई न गायक का वेदना। फरहान पूरी फिल्म में बस सपाट तरीके से संवाद बोलते रहे और बीच-बीच में रोनित राय आकर बेकार में दांत पीसते हुए खुद को जेलर साबित करने पर तुले रहे। दीपक डोबरियाल भी इस फिल्म में कोई कमाल नहीं दिखा पाए।
इससे अच्छा होता कि किसी महिला कैदी को भी इस बैंड में शामिल किया जाता। आखिर बंदिनी में कोई भी महिला कैदी गायक नहीं बनना चाहती थी। लेकिन जब उस जेल से आवाज उठती थी, ‘अबके बरस भेज भैया को बाबुल सावन लियो बुलाय...’ तो लगता था कि कैद इतनी भी आसान नहीं जितनी लखनऊ सेंट्रल में है।
आउटलुक रेटिंग दो स्टार