फिल्म समीक्षा: बेजान 'बेगम जान'
सन 2016 में दिल्ली के कनॉट प्लेस से शुरू हो कर कहानी सन 1947 के भारत में पहुंच जाती है। बंटवारे से पहले के भारत में। सख्त मिजाज बेगम जान (विद्या बालन) के कोठे में, जहां वेश्यावृत्ति करने वाली लड़कियों में जाति-धर्म, क्षेत्र का बढ़िया कॉकटेल है। मतलब हर तरह की लड़कियां यहां है, उर्दू, गुजराती, पंजाबी, बनारसी बोलने वाली सभी तरह की। अचानक एक दिन रेडियो पर जवाहरलाल नेहरू का भाषण और दो टुकड़ों के साथ देश आजाद। सरहद बनानी है और इतनी लंबी सरहद में बस एक ही रोड़ा है, बेगम जान का कोठा। ऐन वहीं जहां चौकी बनानी है। न एक इंच इधर न एक इंच उधर। बंटवारे में जो गदर हुआ सो हुआ लेकिन कोठा खाली कराने में मुखर्जी ने जो गदर कराया कि दर्शक रो भी न सकेंगे।
निर्देशक भूल जाते हैं कि पीरियोडिक फिल्में बनाने का मतलब सीपिया टोन के कुछ दृश्य, फैब इंडिया के ‘एथनिक वियर’ पहनाने या मिट्टी के बर्तन, पुआल के ढेर रख देना भर नहीं होता। बेहतर होता यह कहानी मुंबई के किसी अंडरवर्ल्ड की पृष्ठभूमि में बनाई गई होती। एक चलताऊ सी कहानी कहने के लिए बंटवारे की पृष्ठभूमि की दरकार क्यों, यह समझ से परे है। बालन ने सख्तजान कोठे की मालकिन बनने के लिए अपनी आवाज को भरसक भारी बनाया है, लेकिन वजन तो आवाज के बजाय कहानी में होना चाहिए ताकि दर्शक तीन घंटे बैठ सके। दो सरकारी अधिकारियों की गुंडे से मदद लेना, गुंडे का बिलकुल मुंबइया तरीके से कारवाई करना निहायत ही अहमकाना लगता है।
संवाद भी ऐसे कि बोलने के बाद उनके पीछे एक पुछल्ला तुरंत चला आता है। जब तक दर्शक किसी संवाद पर खुश हों कि पुछल्ला मजा किरकिरा कर देता है। सरकारी अधिकारी कोठा खाली करने पर बेगम जान को कहते है, ‘एक महीने की मोहलत है। महीना तो समझती हैं न’ बेगम जान कहती हैं, ‘महीना गिनना हमें खूब आता है’ इस मारक संवाद के पीछे तुरंत पुछल्ला आता है, ‘साला जब आता है लाल करके जाता है।’
सन 1947 में यदि उमराव जान के कोठे की हसरत लिए दर्शक जाएंगे तो निराशा ही होगी। सन भले ही कोई भी हो लेकिन यह तो महेश भट्ट की सड़क नुमा कोठा है। यह अलग बात है कि कोठे के मालिक के रूप में सदाशिव अमरापुरकर ने अपनी छाप छोड़ी थी, बालन को उसके लिए इंतजार करना होगा। क्योंकि सिर्फ दो-चार गालियां बक देने से, देह की मालिश कराने के शॉट देने और हुक्का गुड़गुड़ाने भर से कोई वाह वाही नहीं बटोर सकता।