फिल्म समीक्षा: सुशांत सिंह राजपूत को आखिरी सलाम के तौर पर 'दिल बेचारा' लंबे समय तक जहन में रहेगी
फिल्म: दिल बेचारा
निर्देशक: मुकेश छाबड़ा
म्यूजिक कंपोजर: एआर रहमान
स्टार कास्ट: सुशांत सिंह राजपूत, संजना सांघी, साहिल वैद, शाश्वत चटर्जी, स्वास्तिका मुखर्जी।
यह लगभग अविश्वस्नीय था। मैं सोच सकता हूं कि सुशांत सिंह राजपूत की एंट्री अपने कातिलाना मुस्कान के साथ कैमरे की तरफ देखते हुए थिएटर में होती तो क्या कमाल मचाई होती। मैं अकेले अपने कमरे में दर्शकों की गुनगुनाती तालियां और अंधेरे में सीटियों की आवाज भी सुन सकता था। मैं एक मरे हुए अभिनेता को जिंदा पर्दे पर देख रहा हूं और ये एक ऐसी छवि है जो मेरे जहन में हमेशा जिंदा रहेगा, सिर्फ इस वजह से नहीं कि ये उनकी आखिरी या भावुक फिल्म थी।
दिल बेचारा, मुकेश छाबड़ा की बतौर डायरेक्टर पहली फिल्म है। ये विडंबना है कि सुशांत अपने सात साल के लंबे करियर में इस फिल्म में अंतिम भूमिका निभा रहे हैं। पिछले महीने दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। जब आप इस फिल्म को बड़ी उत्सुकता के साथ छोटे पर्दे पर देख रहे होते हैं, जो कि लंबे समय से इंतजार की जाने वाली फिल्मों में से एक रही, तो मन में एक बात आती है कि छाबड़ा ने आसान तरीके से सुपरहीट हॉलीवुड फिल्म के अधिकार खरीद लिए थे, जिसमें सुशांत ने बिना किसी झिझक और रिस्क के इस फिल्म में काम किया। मैं मानता हूं कि बॉलीवुड में उनके साथी इस फिल्म को छुए भी नहीं होते।
2014 की अमेरिकन हिट फिल्म द फॉल्ट इ ऑर स्टार्स पर आधारित दिल बेचारा दो कैंसर पीड़ित युवाओं की कहानी है, जो स्टील सिटी जमशेदपुर से हैं। एक को ऑस्टेओसरकोमा (osteosarcoma) है, दूसरे को थायरॉइड कैंसर है, जिसकी वजह से उसे हर वक्त ऑक्सीजन सिलेंडर (जिसे वो प्यार से पुष्पेंदर कहती है) लेकर चलना होता है। कैसे उन्हें एक दूसरे का भावनात्मक सपोर्ट मिलता है, उन्हें एक दूसरे के साथ से खुशी मिलती है, प्रेम और हंसी-मजाक कीमोथेरेफी से बड़ा एंटीडोट है, फिल्म इसी बारे में है। सुशांत सिंह राजपूत ने एक खुशदिल इमैनुएल राजकुमार जूनियर उर्फ मैनी का रोल किया है, जो रजनीकांत का फैन है, जो अपनी मेडिकल कंडीशन के बावजूद अपने पैशन और ज़िंदादिली को नहीं छोड़ता। उनके सामने डेब्यू कर रहीं संजना सांघी हैं। किजी बासु के रोल में, जो मैनी की आजीबोगरीब हरकतों से प्रभावित हो जाती है और जीवन के हर पल का आनंद लेती है, भले ही इसकी नियति बहुत कम हो। मैनी का सिद्धांत है, हम जन्म और मौत डिसाइड नहीं कर सकते लेकिन उसे कैसे जीना है, ये हम डिसाइड कर सकते हैं। इससे आनंद (1971) की आइकॉनिक लाइन याद आती है- जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं। लेकिन डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा और उनके युवा लेखक शशांक खेतान और सुप्रोतिम सेनगुप्ता, जिन्होंने हॉलीवुड फिल्म को एडॉप्ट किया है, एक क्लासिक बनाने में असफल रहते हैं, जो कि सुशांत के चाहने वालों को श्रद्धांजलि के तौर पर चाहिए होती।
सुशांत और संजना के अलावा शाश्वत चैटर्जी और स्वास्तिका मुखर्जी, जिन्होंने संजना के मां-बाप के रोल किए, फिल्म की स्क्रिप्ट से ऊपर उठने की कोशिश करते हैं लेकिन फिल्म कई जगहों पर, खासकर दूसरे हाफ में, सुस्त गति और कमजोर स्क्रीनप्ले की वजह से फिल्म कमजोर पड़ जाती है।
इसमें कोई शक नहीं कि सुशांत अपनी क्षमताओं की झलक देते हैं और न्यूकमर संजना तुरंत आपका ध्यान खींच लेती हैं, लेकिन कुल मिलाकर ‘दिल बेचारा’ वैसा असर नहीं छोड़ती जैसी पहले कैंसर पर आधारित 'आनंद' और 'अंखियों के झरोखे से' जैसी फिल्में कर चुकी हैं। लेकिन जीवन के उत्सव के लिए और तेजी से उभरने वाले और जल्दी दुनिया से चले गए सुशांत सिंह राजपूत जैसे सितारे को आखिरी सलाम के लिए ये फिल्म देखी जा सकती है।