समीक्षा गब्बर इज बैक
मुझे बहुत दुख है कि मैंने नेशनल कॉलेज से पढ़ाई नहीं की। एक तो विज्ञान स्नातक होने के बाद भी मेरी फिजिक्स बहुत खराब थी, दूसरा प्रोफेसर आदित्य (अक्षय कुमार) की ऐसी ढिशुम-ढिशुम प्रैक्टिकल क्लास हमारे कॉलेज में नहीं हुई। खैर छोड़िए। फिल्म देख कर लगता है अरविंद केजरीवाल की टीम ने इसकी पटकथा लिखी है। इमानदारी का ओवरडोज। करप्शन का समूल नाश और इसके लिए धरती पर कदम रखा है, आदित्य यानी गब्बर ने।
पुलिस मुख्यालय में दर्जन भर अफसर सब नाकारा। बस चाय समोसे खाने वाले। मीडिया ने गब्बर का हडकंप मचा दिया और एक्को अफसर दफ्तर छोड़ कर बाहर नहीं निकला। फिर एक अफसर की गाड़ी चलाने वाले कांस्टेबल (सुनील ग्रोवर) को आखिर मेडिकल लीव लेनी पड़ी ताकि वह गब्बर को पकड़ सके। बेचारा। ग्रोवर को परदे पर देखते हुए दर्शकों को हमेशा ही लगा बिना चोटी के गुत्थी आ गई। हां तो फिर साधू गब्बर के बहुत करीब तक पहुंच गया और इसके बाद एक काबिल अफसर आया, कुलदीप पाहवा (अहलावत)। अब उसकी काबिलियत का अंदाजा इसी बात से लगा लीजिए कि वह जो कांस्टेबल रैंक का ड्राइवर था उसने एक-एक बात बता दी। फिर भी गब्बर को पाहवा के सामने खुद सरेंडर करने आना पड़ा ! गब्बर भी इसलिए आया क्योंकि एक तो मेन विलेन उसके हाथों मारा गया और फिल्म खत्म होने का वक्त हो गया था। तीन घंटे पूरे हो गए थे।
कहानी कभी अतीत में तो कभी वर्तमान में चली तो आदित्य के गब्बर बनने की कहानी भी पता चलती गई। कुछ संवाद हैं जिन पर हॉल में ताली जरूर बजेगी। जैसे, खलनायक कहता है, ‘मुझे पसंद हैं वे लोग जो मुझे पसंद नहीं करते।’ यह तो अक्षय भैया के फुल्टू बोले तो फैन लोगों के लिए बनी फिल्म है। तो आपको स्टार-वार से क्या करना है। अक्षय भैया पसंद तो जाने का नइ तो घर बैठने का। समझे क्या।
आखिरी बात। फिल्म में श्रुति (श्रुति हासन) भी। अब आदित्य सर के साथ गाना कौन गाएगा। उसके लिए तो हीरोइन चाहिए होती है न। पर गाना मालूम नहीं कितने और कैसे हैं, क्योंकि याद नहीं। संजय लीला भंसाली और वायाकॉम 18 मोशन पिक्चर्स वालों ने निर्देशक कृष पर भरोसा किया ये तो अच्छी बात है। पर दर्शक इस पर भरोसा करेंगे कि नहीं इसकी गारंटी नहीं है।