समीक्षा- धरम संकट में
यह कहानी से ज्यादा अभिनेता की फिल्म है। बिलकुल सही टाइमिंग के साथ परेश जब भी संवाद बोलते हैं, तो सामने वाला कलाकार बौना हो जाता है। इस फिल्म में परेश रावल का असमंजस ही फिल्म की जान है। एक पिता जो बेटे की गर्लफ्रेंड के परिवार की खातिर हिंदू धर्म के तौर-तरीके सीख रहा है और एक बेटा जो अपने पिता से मिलने के लिए मुसलमानों के तौर-तरीके सीख रहा है।
यह महज संयोग ही हो सकता है कि फिल्म की पृष्ठभूमि अहमदाबाद के गुजराती परिवार की है और परेश रावल भारतीय जनता पार्टी से अहमदाबाद (पूर्व) के सांसद भी हैं। यह भी संभवत: संयोग ही हो कि फिल्म धर्म के पाखंड पर बनी है और भारतीय जनता पार्टी को आम लोग राजनैतिक पार्टी मानने के बजाय धार्मिक पार्टी ज्यादा मानती है!
खैर, इस बात के लिए निर्माताद्वय शरीक पटेल, सज्जाद चूनावाला और निर्देशक फवाद खान को बधाई देना चाहिए कि उन्होंने एक साधारण फिल्म पर पूंजी लगाई और फवाद ने पूरी फिल्म में संतुलन बनाए रखा और अंत तक इसे निभा ले गए। फिल्म का बजट इसी से पता चलता है कि पूरी फिल्म एक सोसायटी, दो मकानों और एक सेट में शूट कर ली गई है। धरमपाल (परेश रावल) ज्यादातर गुलाबी शर्ट, खाकी पैंट में दिखे और दूसरे प्रमुख कलाकार नवाब महमूद शाह (अन्नू कपूर) वकील के कपड़ों में। बिना ग्लैमर और तडक़-भडक़ के फवाद मनोरंजन से भरपूर पारिवारिक फिल्म बना पाए यही उनकी सफलता है।
अंत को छोड़ दें तो कहीं भी फिल्म में कहीं भी भाषणबाजी नहीं है। मेरे खयाल से अंत यदि नरैट न किया तो अच्छा होता। एक अधार्मिक हिंदू के रूप में परेश ने अच्छा काम किया और जब वह जान जाते हैं कि वह दरअसल पैदाइशी मुसलमान हैं जिसकी परवरिश एक हिंदू परिवार में हुई और उनके 'बायोलॉजिकल फादरÓ से मिलने के लिए उन्हें मुसलमानों के तौर तरीके सीखने होंगे तो सीखने की उस प्रक्रिया में भी वह उतने ही विश्वसनीय लगते हैं।
उनके दोस्त और 'गुरु' अन्नू कपूर ने बता दिया है कि वाकई गुरु हैं। नसीरुद्दीन शाह जरूर कुछ फीके रहे। एक संवेदनशील फिल्म को इतने संतुलन के साथ बनाने के लिए पूरी टीम बधाई की पात्र है।