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01 June 2015

‘क्वीन’ कंगना से खास बातचीत

आउटलुक

‘यह मेरा नहीं बॉलीवुड का समय है’ - कंगना

 

आपकी राय में तनु वेड्स मनु रिटर्न्स की सफलता की क्या वजह रही ?

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फिल्म के प्रोमो को तुरंत सफलता मिली थी, लांच होते ही तेजी से फैला और ऑनलाइन सबसे ज्यादा देखा गया। मेरी राय में फिल्म की सफलता में इसका एक अंश भी रहा है। इसमें पिछली फिल्म का छोटे शहर का परिवेश और संबंधों को लेकर बेहद प्रगतिशील और विशिष्ट नजरिया भी दिखा। इस तरह रीकॉल वैल्यू भी थी, लेकिन सीक्वेल अपने आप में ताजातरीन था। यही नहीं, लोगों ने तो यहां तक कहा कि यह फिल्म पिछली फिल्म से बेहतर रही है।

तनुजा ‘तनु’ त्रिवेदी या कुसुम ‘दत्तो’ सांगवान। आपका चरित्र इन दोनों में से किन किरदारों में से किससे अधिक मिलता है ?

बतौर अभिनेता आपको हरेक किरदार में ऐसे कुछ अंशों की तलाश रहती है जिनसे आप जुड़ सकें। इसके बावजूद मेरा दोनों किरदारों से जुड़ाव नहीं बना था। एक अपनी शादी को लेकर परेशान और दूसरी संबंधों के मामले में बिलकुल अनुभवहीन लड़की थी। उन स्तरों पर दोनों के साथ तालमेल बैठा पाना मेरे लिए कठिन था। लेकिन फिर भी मुझे दोनों को एक बॉडी लैंग्वेज, एक व्यक्तित्व और एक शक्ल देनी थी। इसलिए मुझे दोनों पात्रों को यथार्थ रूप देने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी।

क्या आपके निभाए चरित्रों में से ऐसा कोई है जो सचमुच आपके अपने व्यक्तित्व के निकट है ?

नहीं।

क्वीन की रानी भी नहीं ?

मैं बहुत आत्मविश्वासी हूं लेकिन रानी ऐसी नहीं है। उसके जीवन में ऐसे कई मुद्दे हैं जिनसे उसे जूझना पड़ता है। मैं 15 वर्ष की उम्र से ही कई चीजों के प्रति विद्रोह पर उतारू थी, बहुत कुछ तनु की तरह। हालांकि तनु के विद्रोह का कोई लक्ष्य नहीं है, लेकिन मेरा विद्रोह बाकायदा लक्ष्य लिए हुए था। उसी कारण मैं आज इस मुकाम पर पहुंची हूं। मैं हमेशा से किसी न किसी चीज के विरुद्ध विद्रोह करती रही हूं, लेकिन ऐसा सिर्फ सनसनी पैदा करने या बिना मतलब ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए नहीं किया।

तो क्या यही वह कारण है जो आपको एक अभिनेत्री बने रहने को प्रेरित करता है, खुद को उन जैसा ‘बनाना’ जो आपसे पूरे जुदा हैं। रानी या तनु की तरह?

ऐसे किरदार अभिनीत करने में हमेशा मजा आता है जो आपसे अलग हों। इससे आप लोगों को सही-गलत साबित करने की आदत से भी मुक्त होते हैं। यदि मैं असली जीवन में तनु से मिलूं तो शायद मैं उससे दोस्ती नहीं करना चाहूंगी क्योंकि वह अक्सर अतार्किक दिखती है। नैतिक तौर पर भी वह खाली है। पहली फिल्म में भी हमने यह स्पष्ट नहीं किया था कि वह लड़कों के साथ सिर्फ छेड़खानी करती है या उनके साथ रातें भी गुजारती है। यह सब दर्शकों को समझाने की जरूरत नहीं होती, वह अपने हिसाब से मतलब निकाल लेते हैं। उसका किरदार अदा करते समय मैं यह सब देखती हूं और इसके बाद ऐसा एक पक्ष चुनती हूं जिसके बाद मुझे उसे सही या गलत समझने की जरूरत नहीं रह जाती।

ऐसा कहा जा रहा है कि फिल्म उद्योग में लड़कियां आज लड़कों की बजाय अधिक प्रयोगधर्मी और रोचक चरित्र अदा कर रही हैं। जैसे आपके निभाए रानी और दत्तो के पात्र?

ऐसा नहीं है कि इन पात्रों को निभाना मेरी बहुत अच्छी किस्मत रही है। यहां तक पहुंचने में मुझे 8-9 साल लगे। इन पात्रों को कहीं बेहतर तरीके से लिखा जा सकता था। मैं नायकों को भी दोष नहीं दूंगी। निर्माताओं को फॉर्मूर्लों का पिंड छोड़ना होगा और पैसा कमाने की होड़ भी कुछ कम करनी होगी।

तो फिर क्या स्क्रिप्ट ही बुनियाद होती है ?

यदि लेखन सुधरता है तो फिल्म बेहतर होती है। लेकिन लेखकों को आजादी मिलनी ही चाहिए। फिल्म उद्योग में आम चलन है आप पहले एक अभिनेता को आगे लाते हैं और फिर वह फैसला करता है कि उसे कॉमेडी करनी है या थ्रिलर फिल्म। मैं यह नहीं कहूंगी कि सभी ऐसा करते हैं, लेकिन समय बदल रहा है, लेकिन आज तक काफी कुछ ऐसा ही चला आ रहा था।

तो क्या नायिककाओं के लिए हालात बदले हैं ?

बेशक, ऐसा हुआ है, लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। मेरी फिल्म से बड़ी शुरुआत हुई है। शायद हीरोइन मार्का फिल्मों में से सबसे बड़ी शुरुआत। इससे जुड़ा उत्साह, रोमांच, कौतुहल उतना ही दिखा जितना किसी बड़े स्टूडियो या हीरो की फिल्म का।

आपको क्या लुभाता है, बॉक्स ऑफिस की सफलता या आलोचकों की तारीफ ?

मेरे लिए मामला मिला-जुला है। आदर्श स्थिति यही होगी कि रोचक किरदारों वाली फिल्म है तो उसको आलोचकों की तारीफ भी मिले। साथ ही वह बॉक्स ऑफिस पर पैसा भी कमाए। यदि फिल्म अच्छी नहीं है तो पैसा कमाने के बाद उसे तुरंत ही भुला दिया जाएगा।

निजी तौर पर भी बॉलीवुड में आपकी यात्रा काफी लंबी रही है?

करिअर तो काफी उठान पर है। मैं इस बारे में काफी नपे-तुले शब्दों में भी जवाब दे सकती हूं, लेकिन सच यह कि जो काम मुझे करने को मिल रहा है वह असाधारण है। आलोचकों के हिसाब से मैंने बॉलीवुड के इतिहास में आज तक की सबसे बेहतरीन दोहरी भूमिका निभाई है। इसलिए मुझे कोई शिकायत नहीं है। मेरी यात्रा सचमुच खास रही है। लोग कहते हैं कि यह मेरा सबसे अच्छा समय है, लेकिन मैं कहती हूं कि यह बॉलीवुड का सबसे अच्छा समय है। मैंने रानी जैसा किरदार निभाया जो आज तक कभी मुख्यधारा की नायिका का नहीं रहा। मैंने उभरे दांतों वाली दत्तो का पात्र किया। वह खासी लोकप्रिय हो रही है। फिल्म में उसका ‘कबूतर’ वाला मजाक सबके बीच जा पहुंचा है। किसी हीरोइन के बारे में ऐसा पागलपन आज तक मैंने नहीं देखा। वहीं तनु छेड़खानी में माहिर है। कुछ साल पहले वह किसी फिल्म की खलनायिका होती। यह सभी लड़कियां इस बात की परवाह नहीं करतीं कि वह कैसी दिखती हैं या लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं। यह सिनेमा की क्रांतिकारी नायिकाएं हैं। आज तक हमनें ऐसी नायिकाएं कहां देखी थीं ?

इसके बावजूद हिंदी फिल्म की नायिका दिखने में खूबसूरत होनी चाहिए...?

एक हीरोइन की पहली प्राथमिकता होती है कि वह हीरोइन जैसी दिखे। एक ऐसी सुंदरी जिसके बाल हवा में लहरा रहे हों, साड़ी दमक रही हो, उसकी खूबसूरती नींदें उड़ा दे, कैमरा उसके चेहरे से दूर जा ही न पाए। क्या जीवन में हम महिलाओं से ऐसी ही उम्मीदें बांधते हैं! उनसे ऐसी अव्यावहारिक उम्मीदें क्यों बांधी जाएं  कि उनका उठना-बैठना, कामकाज का तरीका और व्यवहार खास हो।

तनु, रानी और दत्तो से पहले आप कुछ विक्षिप्त किस्म के किरदार अदा कर रही थीं?

कोई भी खुद को दोहराना नहीं चाहता। मुझे और कुछ करने को मिल ही नहीं रहा था। उस वजह से काफी कुंठा भी होती थी। अब मैं ध्यान रखती हूं कि मेरे पास अलग-अलग किस्म के पात्र रहें और मैं एक ही दायरे में सीमित न रहूं। मैं लगातार कुछ न कुछ खोजते रहना चाहती हूं। सभी चाहते हैं कि तनु वेड्स मनु का तीसरा हिस्सा बने, जिसका नाम हो ‘दत्तो की शादी’। लेकिन मैं अभी इससे दूर ही रहना चाहती हूं। अभी मेरा कुछ दूसरा काम करने का दिल है।

आज आपकी सब तरफ तारीफ हो रही है, लेकिन क्या शुरुआती दौर की आलोचना से तकलीफ होती थी?

मैं बहुत ‘आसान’ व्यक्ति हूं। बुरा समय भूलकर आगे बढ़ जाती हूं। मैं हमेशा रोशनी की किरण की तलाश में रहती हूं। किसी फिल्म के छूटने या किसी आदमी के चले जाने पर मैं आंसू नहीं बहाती। मुंबई में शुरुआती बरसों में भूखे, आश्रयहीन और खाली जेब रहने के बावजूद मैं कभी अवसाद में नहीं आई। यदि कोई काम नहीं बन पा रहा है तो मैं अपना मूड ठीक करने के लिए कुछ चटपटा खाती हूं। इसका यह मतलब भी नहीं कि मैं भावनाओं के महीन उतार-चढ़ाव को नहीं समझती। मैं संवेदनशील हूं लेकिन अपने व्यवहार में सामान्य बनी रहती हूं। मैं ज्यादा संवेदनशीलता को नहीं ओढ़े रखती, जीवन में मैं मानसिक तौर पर हल्का-फुल्का रहना चाहती हूं।

कंगना एक व्यक्तित्व

कंगना रनोट के खार स्थित घर के काफी कुछ अनगढ़ से लिविंग रूम में सबसे पहले जो चीज ध्यान खींचती है वह है उसका खांटी अंदाज और बेतरतीब तकियों के बीच सोफे पर रखा एक मोटा सा कुशन जिस पर मोटे अक्षरों में लिखा संदेश उसकी मालकिन के उन्मुक्त व्यक्तित्व से काफी मेल खाता है। 
बेशक, कंगना आज बॉक्स ऑफिस पर बेतहाशा दौड़ रही है। तनु वैड्स मनु रिटर्न्स की छलांग लगाती नायिका आज बॉलीवुड की सबसे बड़ी कहानी है। सबसे बड़ा सच यह है कि यह सफलता उसने अपनी शर्तों पर हासिल की है। यह शर्तें हिन्दी फिल्म उद्योग की ढंकी-छुपी और वासनादग्ध दुनिया से लोहा लेने में ही नहीं बल्कि फिल्मों के चुनाव में भी अलग रास्ता अपनाने में सामने आई। उन्होंने इन दोनों विपरीत परिस्थितियों को अपनी दिशा में मोड़ा है। आज वह ऐसी ए-ग्रेड हीरोइन हैं जिन्हें दीपिका, करीना, प्रियंका और कैटरीना की तरह अपनी फिल्मों में खान नाम की जरूरत नहीं है। किसी भी खान के साथ अभी उनकी कोई फिल्म नहीं आई है। फिर भी उनकी हालिया फिल्म ऑल-इंडिया वीकएंड में 38 करोड़ रुपया कमा चुकी है। पहले पांच दिनों में 55 करोड़ की कमाई के साथ वह उम्मीद से कहीं पहले 100 करोड़ी भी हो जाएगी। सबसे बड़ी बात यह कि वह अब तक बॉलीवुड की ‘हीरोइन ओरिएंटेड’ सबसे बड़ी फिल्म भी होगी।


वर्ष की पहली छमाही में अब तक सिर्फ दो फिल्मों की सफलता के बाद सूखी-सूूखी रही बॉलीवुड की धरती पर तनु वैड्स मनु रिटर्न्स मॉनसून की बरसात सरीखी साबित हुई है। पिछले कुछ समय से बेहद आसान सा लगने वाला सौ करोड़ लक्ष्य अब काफी मुश्किल लगने लगा है। तो क्या ऐसे में कंगना उम्मीद जगाती हैं ?


दर्शकों को बेहद पसंद आई इस फिल्म में कंगना ने गर्म दिमाग तनु और टॉमबॉय इमेज वाली दत्तो के किरदार अदा किए हैं। दोनों अपनी-अपनी कमियों वाली हसीनाएं हैं। हैरानी नहीं कि आज तक कंगना के फिल्मी चरित्र कुछ-कुछ ऐसे ही उबड़-खाबड़ और झक्की स्वभाव वाले रहे हैं। लिहाजा, वह कोई परंपरागत ‘ड्रीम गर्ल’ सरीखी नं.1 हीरोइन न होकर, तमाम बेतरतीबियों वाली अबूझ पहेलीनुमा लड़की है। फिल्म के गीतकार राजशेखर कहते हैं कि कंगना में तनु, दत्तो और रानी (क्वीन) के कुछ न कुछ अंश मौजूद हैं। रानी की ही तरह दिल टूटने पर वह यकायक लड्डुओं पर टूट पड़ सकती है।

हालांकि तनु वैड्स मनु रिटर्न्स ने कई लोगों को छोटे शहरों में संबंधों में स्वच्छंदता, प्रेम, वासना और अंततः नैतिकता को सर्वोपरि ठहराने के तमाम उतार-चढ़ावों से निराश भी किया है। तो क्या तनु और दत्तो को रूखे से मनु को स्वीकार करना कंगना को अखरा नहीं ? कंगना के अनुसार वह इस मामले में फिल्मी और असल जीवन के भेद को समझती हैं और अपने किरदारों की जरूरत को भी। वह इस अंतर को तनु के किरदार के नजरिए से देखना पसंद करती हैं। एक ऐसा चरित्र जो दर्शकों के बीच तो खासा पसंद किया गया, लेकिन उसका विरोध खुद कंगना को बहुत सतही नजर आता है। खासकर उनके अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के सामने। तनु अपने लिए राजा की बजाय मनु का चुनाव करती है, यह तनु के जीवन के लिए मुफीद होगा। कंगना के अनुसार, ‘राजा के व्यक्तित्व में वह खिलंदड़ापन है जो कोई भी लड़की अपने बॉय फ्रेंड में चाहती है, लेकिन पति के तौर पर उसे जो पूर्णता चाहिए वह मनु के पास है।’ तो कौन जाने आगे क्या होगा! शायद चंचल तनु फिर मनु से उकता जाए और दूसरी ओर टूटा दिल लिए बैठी दत्तो क्वीन की रानी की तरह किसी खोज पर चल दे।

अधिकांश निर्देशकों के अनुसार अपने बोलने के खुरदुरे अंदाज के बावजूद कंगना बेहद प्रतिभावान हैं। मधुर भंडारकर जिन्होंने उन्हें फैशन में निर्देशित किया था, कहते हैं कि कंगना की सबसे बड़ी मजबूती उसका अपने विचारों की जमीन पर जमे रहना है। भंडारकर के अनुसार, ‘वह उन चरित्रों का चुनाव करती हैं जिनमें उनका मन लगता है। पुख्ता रोल ना कि लंबे रोल।’

हिमाचल प्रदेश के मंडी स्थित छोटे से कस्बे भाम्बला (सूरजपुर) में पली-बढ़ी कंगना रनोट के अनुसार उनकी दीक्षा बहुत खुले परिवेश में हुई थी। फिल्मकार महेश भट्ट के अनुसार कंगना का छोटे कस्बाई इलाके से आना उसके पक्ष में जाता है। ‘वह उस स्थान से आई हैं जिसे ‘रीयल इंडिया’ कहा जाता है, जिसे पसंद करने वाले सामने आ रहे हैं।’ उनके चरित्रों में यही जड़ों से जुड़ी सच्चाई दर्शकों के बीच पहुंचकर उन्हें गुदगुदाती है। याद करें क्वीन का वह दृश्य जिसमें रानी नाचने से पहले अपना स्वेटर बैग में डालती है। नाचते समय बैग उसके कंधे से ही झूलता दिखता है। यह सच करण जौहर की किसी फिल्म में बिल्कुल उलट होता जहां प्रिटी जिंटा नाचने से पहले स्वेटर उछाल फेंकती।

महेश भट्ट के अनुसार बतौर अदाकार कंगना की ताकत उसकी संवेदनशीलता, बिंदासपन और सीन करने में गैर-पारंपरिक तरीके में है। एक अभिनेत्री के तौर पर तमाम हलचलें उसके भीतर कहीं क्रियाएं करती हैं। शुरुआती दिनों में दिल्ली में कुछ समय थियेटर करने के बाद उसे गैंगस्टर में पहला रोल मिला था। बॉलीवुड का शुरुआती समय भी कुछ आसान नहीं था। आदित्य पंचोली और अध्ययन सुमन के साथ असफल रिश्तों के संवेदनीय असर रहे। लेकिन उसके घमंड, हिचक और बहन रंगोली (एसिड अटैक विक्टिम) के संघर्षों की कहानियों के साथ-साथ उसकी सफलता बॉलीवुड को चौंकाती रही। इंडस्ट्री में अभी भी बहुत संशय है। कंगना का अपना कोई पुख्ता फेन बेस नहीं है। उन्हें मुख्यधारा बॉलीवुड में पैर जमाने के लिए ‘ऑफबीट’ सिनेमा से कुछ दूरी भी रखनी होगी।

हालांकि भविष्य बेशक आज जैसा ही रोचक होगा। कंगना ने कई मुख्यधारा फिल्मों में वह आने वाली हैं जिनमें से एक सैफ अली खान के साथ भी है। रंगून विशाल भारद्वाज की यह अब तक की सबसे बड़ी फिल्म होगी जिसकी पृष्ठभूमि में होगा द्वितीय विश्व युद्ध और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज।

क्वीन में संवाद लेखन में सहयोग करने वाली कंगना अब एक फिल्म भी निर्देशित करना चाहती हैं। और शायद यह कारनामा सबकी उम्मीद से पहले ही हो जाए। वह कहती हैं, ‘समय के साथ-साथ विकास करना चाहिए। अभिनेताओं का अपना महत्व है, लेकिन एक निर्देशक ही सब चीजों का सिरमौर होता है।’

फिल्मों के अलावा कुछ और योजनाएं भी कंगना ने बना रखी हैं। जैसे पहाड़ों में अपने लिए एक आलीशान घर बनाना। यह कोई रिटायरमेंट प्लान न होकर एक बिजनेस स्ट्रेटजी होगी। ‘वहां मैं अपने चरित्रों पर काम करूंगी, फिल्मों पर सोचूंगी और पढ़ूंगी।’ लेकिन हालिया योजना है अकेले न्यूयॉर्क की यात्रा। जैसा कि उनके लिविंग रूम में रखे उस कुशन पर लिखा है - कुछ युवतियां अपनी ही शर्तों पर चलती हैं, खुद अपने दम पर।

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OUTLOOK 01 June, 2015
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