इरशाद कामिल : हिन्दी फिल्मों में पंजाबियत का नमक घोलने वाले गीतकार
इरशाद कामिल जिस मुहल्ले में रहते, वो कामगारों का इलाका था। तीसेक परिवार बसते थे, जिनमें से केवल 5 परिवारों के बच्चों को शिक्षा नसीब थी। बाकी घरों के बच्चे पेट की भूख शांत करने के लिए काम धंधे की दौड़ भाग में खो गए थे। घरवाले चाहते थे कि इरशाद कामिल डॉक्टर बनें लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था। इरशाद कामिल डॉक्टर बनने वाले थे लेकिन साहित्य क्षेत्र के।
प्रेम पत्र लिखने से शुरु हुआ लेखन सफर
मलेरकोटला में प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद, वहीं इरशाद कामिल ने कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज में स्कूल के दोस्त फिर एक साथ जुटे। जिस कॉलेज में पढ़ते थे, वहां यूं तो कविता, शायरी का ज़्यादा माहौल नहीं था लेकिन तक़दीर ने इरशाद के लिए शायरी के लायक परिस्थिति बना दी थी। इरशाद कामिल के दोस्तों को कॉलेज में घनघोर इश्क हुआ। और इस इश्क को अंजाम तक पहुंचाने की जिम्मेदारी इरशाद कामिल के कंधों पर थी। इरशाद कामिल अपने मित्रों के हवाले से इश्क़ की चाशनी में भीगे ऐसे प्रेम पत्र लिखते, जो हसीनाओं के दिल के पार उतर जाते। इरशाद कामिल की इसी कोशिश से कई दोस्तों की मुहब्बत मुक्कमल हुई। जैसा कि कहते हैं कि दुआओं में बड़ा असर होता है तो इश्क में सफल हुए दोस्तों की दुआएं इरशाद कामिल को मिलीं और उनका लेखन सफर परवान चढ़ने लगा। कॉलेज में इरशाद कामिल साहित्य और संगीत महोत्सव में शामिल होते थे। आहिस्ता आहिस्ता इरशाद कामिल की नसों में शायरी का जुनून समा गया।
पत्रकारिता की नौकरी की
मलेरकोटला से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद इरशाद कामिल ने पंजाब यूनिवर्सिटी से एम. ए किया। फिर वहीं पत्रकारिता की पढ़ाई और पीएचडी भी की। इस दौरान उनके मन में विचार आया कि गीत लिखने के लिए मुंबई जाना चाहिए। लेकिन मुंबई जाने और संघर्ष करने के एक आर्थिक आधार जरूरी था। इरशाद कामिल ने सोचा कि यदि वह किसी बड़े अखबार में नौकरी करेंगे तो उनके लिए मुंबई का संघर्ष कुछ आसान रहेगा। इस तरह वह ट्रांसफर लेकर मुंबई पहुंच जाएंगे और नौकरी के साथ साथ फिल्मी दुनिया में काम भी ढूंढ़ लेंगे। इसी सोच के साथ इरशाद कामिल ने द ट्रिब्यून और इंडियन एक्सप्रेस जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में नौकरी की। लेकिन साल दो साल की नौकरी के बाद, इरशाद समझ गए कि या तो वह नौकरी कर सकेंगे या फिर उनसे गीत लेखन होगा। दोनों काम एक साथ करना बड़ा मुश्किल हो रहा था। इरशाद कामिल को नौकरी छोड़कर मुंबई चले जाना ज़्यादा रोमांचक लगा।
मुंबई में रहा जद्दोजहद से भरा हुआ सफर
जब इरशाद कामिल काम की तलाश में मुम्बई आए तो उनके सामने एक बड़ा संघर्ष था। इरशाद कामिल का फिल्म जगत में कोई जान पहचान का नहीं था। उनके खानदान से कभी कोई फिल्मी कलाकार बनने नहीं गया था। यानी इरशाद कामिल हर ढंग से सिनेमाई दुनिया के लिए नए और अपरिचित थे। इरशाद तमाम निर्देशकों के ऑफिस के चक्कर लगाते। उनके फोन का इंतज़ार करते। मगर फ़ोन नहीं आता। हताशा से भरे दिन थे। उदासी में डूबी शामें थीं। इरशाद कामिल को कई बार वापस लौटने का भी ख्याल आया। लेकिन बिना सपने को पूरा किए कैसे लौट जाते। इस दौरान उनकी आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर हो गई थी। मुंबई जैसे महानगर में रहना दुश्वार हो रहा था। एक रोज इरशाद कामिल को उनकी माताजी ने फोन किया। फोन पर माताजी ने इरशाद से जिद की कि वह किसी भी तरह से ईद पर घर आएं। मां की जिद पर इरशाद कामिल का मन भावुक हो गया। वह भी संघर्ष के बीच में मां की ममता की छांव महसूस करना चाहते थे। मगर इरशाद कामिल ने मां को मना कर दिया।इरशाद ने मां से कहा "मां, यहां काम बहुत है, इस बरस ईद पर आना न हो पाएगा।" फ़ोन रखकर इरशाद कामिल बहुत देर तक फूट फूटकर रोए। दरअसल बात यह थी कि इरशाद कामिल के पास कोई काम नहीं था, बदहाली का दौर था। उनके बैंक में कुल 430 रुपए थे और गांव जाने के लिए टिकट का किराया था 470 रुपए। इरशाद कामिल में खुद्दारी भरी हुई थी। वह किसी के आगे हाथ फैलाकर, उधार लेकर मां के पास ईद मनाने नहीं जाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने मां से झूठ बोलते हुए, मां की जिद अस्वीकार कर दी थी। इरशाद कामिल पूरे समर्पण, ईमानदारी से अपने काम में लगे रहे। उन्होंने हिम्मत रखते हुए आगे बढ़ते रहने का निर्णय लिया।इरशाद कामिल ने मुंबई में टिके रहने के लिए टीवी के लिए लिखा। इसी सफर में उनकी मुलाकात संगीतकार संदेश शांडिल्य से हुई। जब इरशाद कामिल ने उन्हें अपना लिखा सुनाया तो वह बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने इरशाद को काम देने का भरोसा दिलाया। इरशाद कामिल की मेहनत रंग लाई और उन्हें साल 2004 में निर्देशक सुधीर मिश्रा की फिल्म "चमेली" में गीत लिखने का अवसर मिला। इस फिल्म में संदेश शांडिल्य संगीतकार थे। फिल्म के गीत पसंद किए गए और इरशाद कामिल को पहचान मिली।
इम्तियाज अली के साथ गहरी दोस्ती
इरशाद कामिल जब मुंबई में संघर्ष कर रहे थे तब उनके संघर्ष के साथी बने इम्तियाज अली। इरशाद कामिल और इम्तियाज अली मुंबई में एक साथ संघर्ष कर रहे थे। जिसके जेब में पैसे होते, वह दूसरे को चाय पिलाता और सपनों, सिनेमा की बातें होती।जहां इरशाद कामिल की कोशिश थी कि वह गीत लेखन में करियर बनाएं, वहीं इम्तियाज अली फिल्म निर्देशन का अवसर तलाश रहे थे। दोनों के आगे लंबा संघर्ष था। कोशिशें असफल हो रही थीं लेकिन जुनून और जज्बे में कोई कमी नहीं आई थी। संघर्ष के इन्हीं दिनों में एक रात इम्तियाज़ अली और इरशाद कामिल मुंबई में घूम रहे थे। इस दौरान दोनों फ़िल्म से जुड़ी गंभीर और महत्वपूर्ण बातों पर विचार विमर्श कर रहे थे। चूंकि रात के दो बजने को आए थे इसलिए पुलिस वालों ने जब इरशाद कामिल और इम्तियाज अली को सड़क पर देखा तो उन्हें संदिग्ध मानकर पुलिस स्टेशन ले आए। पुलिस को लगा कि दोनों किसी आपराधिक योजना का निर्माण कर रहे हैं। पूछताछ में जब पुलिस ने इरशाद कामिल से उनके बारे में पूछा तो इरशाद कामिल बोले "मैं फिल्म गीतकार हूं।" इस पर पुलिस वालों ने पूछा कि उन्होंने कौन सी फिल्मों के लिए गीत लिखे हैं?। इस सवाल का जवाब इरशाद कामिल ने पूरे आत्मविश्वास के साथ देते हुए कहा "अभी तो किसी फिल्म के लिए नहीं लिखे हैं मगर एक दिन लिखूंगा जरूर।
इसी तरह से पुलिस वालों ने इम्तियाज़ अली से उनके बारे में जानना चाहा तो इम्तियाज़ अली ने कहा " मैं फ़िल्म निर्देशक हूं।" इस पर पुलिस वालों ने उनकी बनाई फ़िल्म का नाम पूछा। जवाब में इम्तियाज अली ने भी उत्साह से कहा " अभी बनाई नहीं है लेकिन एक दिन ज़रूर बनाऊंगा।" पुलिस वालों को अपनी भूल का एहसास हुआ। उन्हें महसूस हुआ कि इम्तियाज अली और इरशाद कामिल दो युवा आर्टिस्ट हैं, जिनकी आंखों में सुनहरे सपने हैं। पुलिस ने दोनों को ससम्मान छोड़ दिया। इरशाद कामिल और इम्तियाज अली हंसते मुस्कुराते मजबूत इरादों से पुलिस स्टेशन से बाहर निकले और आने वाले वर्षों में दोनो ने एक साथ मिलकर अपनी बात सच साबित की और दुनिया जीत ली। इम्तियाज अली की फिल्मों को खूबसूरत बनाने का काम, इरशाद कामिल के गीतों ने किया है। इम्तियाज अली की फिल्म "सोचा न था", "जब वी मेट", "रॉकस्टार", "तमाशा", "लव आजकल" में गीत लिखकर इरशाद कामिल ने हिन्दी सिनेमा में अपनी विशेष पहचान बनाई।
फिल्मी गीतों में पंजाबियत का नमक घोलने वाले गीतकार
जब इरशाद कामिल हिन्दी फिल्मों में काम करने आए तब फिल्म इंडस्ट्री पर बाजार हावी था। साहित्य दब गया था। शब्द खो गए थे। फिल्म में बिना व्याकरण, भाषा की समझ के पंजाबी गीतों का निर्माण हो रहा था। इरशाद कामिल ने तय किया कि वह हिन्दी फिल्मों में पंजाबी भाषा का गीतों में सही इस्तेमाल करेंगे। इस तरह उन्होंने हिन्दी सिनेमा में एक नया अध्याय शुरू किया। "नगाड़ा नगाड़ा", "मौजां ही मौजां" जैसे गीतों से इरशाद कामिल ने नई लकीर खींची। इरशाद कामिल हिन्दी सिनेमा के समकालीन दौर के एकमात्र ऐसे गीतकार हैं, जिन्हें लोग शब्दों, चेहरे और नाम से पहचानते हैं। यह बात इरशाद कामिल की कामयाबी की कहानी कहती है।