बॉलीवुड: ‘हर उम्र, हर पीढ़ी में फिट’
मैं जावेद अख्तर साहब को तकरीबन बीस वर्षों से जानता हूं। वे मेरे लिए पिता की तरह भी हैं और बड़े भाई की तरह भी। हम दोनों में गहरी दोस्ती है जो हमारे रिश्ते को खूबसूरत बनाती है। जैसे-जैसे मैं जावेद साहब को जानता-समझता गया, मुझे महसूस हुआ कि उनकी हस्ती एक शायर, एक स्क्रिप्ट लेखक से कहीं बड़ी है। मैंने पाया कि जावेद अख्तर गंभीर चिंतन वाले, चीजों को भावुकता के साथ महसूस करने वाले आदमी हैं। जिंदगी को देखने की एक सकारात्मक नजर है जावेद साहब के पास। जावेद साहब के 75वें जन्मदिन के अवसर पर मुझे यह महसूस हुआ कि जावेद साहब की शख्सियत के रंग किताब के रूप में पाठकों के सामने आने चाहिए। इससे पहले भी मैं जावेद साहब पर कैलिग्राफी की एक किताब प्रकाशित कर चुका हूं, जिसे पाठकों का बड़ा प्यार मिला था।
चार साल की कड़ी मेहनत के बाद यह सपना साकार हुआ और ‘जादूनामा’ पाठकों के बीच उपलब्ध हो सकी। यूं तो जावेद साहब से मेरी 20 वर्षों की पहचान है मगर इस किताब को तैयार करते हुए ऐसी कई दिलचस्प बातें मुझे पता चलीं जिनसे मैं अनभिज्ञ था। एक ऐसी ही बात जावेद अख्तर साहब और उनके मित्र सूर्यभान गुप्त से जुड़ी है।
उस दौर में जावेद साहब के संघर्ष के दिन चल रहे थे। उनके पास न रहने का ठिकाना था और न खाने का कोई इंतजाम। तब वह कमाल स्टूडियो में ही रहा करते थे। एक बार हुआ यूं कि जावेद साहब तीन-चार दिन के भूखे थे। जावेद साहब ने अपने मित्र सूर्यभान गुप्त से कहा कि उन्होंने तीन दिन से खाना नहीं खाया है और वे उनके भोजन का प्रबंध कर दें तो बड़ी मेहरबानी होगी। सूर्यभान गुप्त स्वयं किसी के पैसों पर या कहें गारंटी पर एक होटल में खाना खाते थे। जब सूर्यभान गुप्त ने जावेद साहब की बात सुनी तो वे उन्हें अपने साथ होटल ले गए। होटल मालिक ने वेटर से जावेद साहब और सूर्यभान गुप्त के लिए खाना परोसने के लिए कहा और बिल उस आदमी के खाते में लिखने के लिए कहा, जिसने सूर्यभान गुप्त की गारंटी ली थी। जैसे ही जावेद साहब को इस बात की जानकारी हुई कि उन्हें किसी अन्य आदमी के पैसों पर या गारंटी पर खाना मिल रहा है, उन्होंने खाना खाने से मना कर दिया। जावेद साहब का कहना था कि वह आदमी सही नहीं है इसलिए वह उसके पैसे का खाना नहीं खा सकते हैं। जावेद साहब तीन दिन के भूखे थे मगर उन्होंने अपने उसूलों से समझौता नहीं किया। अपने सिद्धांतों के प्रति निष्ठा और ईमानदारी जावेद साहब में आज तक कायम है।
जावेद साहब के साथ जीवन के बीस साल जीते हुए मैंने देखा कि उनमें किसी तरह का कोई दिखावा नहीं है। वे सामान्य रूप से जीवन जीते हुए अपनी रचना प्रक्रिया को अंजाम देते रहे हैं। ऐसा नहीं है कि वे किसी विशेष स्थान पर जाकर सोच रहे हैं और लिख रहे हैं। जावेद साहब इसी समाज में, इसी समय की उधेड़बुन को बारीकी से देखते हैं, महसूस करते हैं और उन्हें शब्दों की शक्ल देते हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जावेद साहब ने पूरी जिंदगी में कभी अपने काम से समझौता नहीं किया। उन्होंने कभी यह सोचकर नहीं लिखा कि जनता क्या चाहती है। उनकी रचना प्रक्रिया का आधार यही रहा है कि वे क्या कहना चाहते हैं और जनता, समाज की बेहतरी के लिए क्या कहा जाना चाहिए। आपको उनकी लेखनी में संदेश भी दिखाई देगा और साहित्य का इनपुट भी। उनका हर गीत गहराई से उपजता है। कोई छोटी, संकीर्ण और छिछली बात जावेद साहब के गीतों में आपको नहीं मिलेगी।
जावेद अख्तर साहब और सलीम खान साहब का रिश्ता बहुत कामयाब और सुंदर रहा, मगर एक समय बाद दोनों के रास्ते जुदा हो गए। इस अलगाव के पीछे मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि जावेद साहब और सलीम साहब दोनों अलग पृष्ठभूमि से आते थे। दोनों की विचारधाराएं अलग थीं। इस कारण दोनों एक साथ काम करने के बावजूद अलग माहौल में थे। दोनों के अपने अलग सर्कल थे। दोनों एक दूसरे के साथ काम तो कर रहे थे मगर एक दूसरे से कई मामलों में अपरिचित थे। जब ऐसी स्थिति होती है तो कोई रिश्ता बहुत दूर तक नहीं चल पाता।
जावेद साहब की सबसे खास बात यह है कि वे हर पीढ़ी के लोगों के समन्वय स्थापित करने में माहिर हैं। वे जिस उम्र, जिस पीढ़ी के आदमी से मिलते हैं, उसी की भाषा, उसी के स्तर पर आकर बात करते हैं। जावेद अख्तर साहब नौजवान पीढ़ी को लेकर बहुत आशावान हैं। वे युवा प्रतिभाओं को खूब प्रोत्साहित किया करते हैं।
(जावेद अख्तर की हाल में प्रकाशित जीवनी ‘जादूनामा’ के लेखक अरविंद मंडलोई से गिरिधर झा की बातचीत पर आधारित)