आवरण कथा : अपने जैसे लगते नायक
पिछले सप्ताह प्रदर्शित फिल्म गदर 2 बॉक्स ऑफिस पर देश भर में गदर मचा रही है। फिल्म ने पहले तीन दिन में सवा सौ करोड़ रुपये से अधिक का व्यवसाय कर लिया था। गदर 2 के साथ ही एक और फिल्म प्रदर्शित हुई ओ माय गॉड 2 जिसने पहले तीन दिन में लगभग 40 करोड़ रुपये का कारोबार किया। गदर 2 की कामयाबी के पीछे सनी देओल का ऐक्शन, मारधाड़ और अंध देशभक्ति में पगा वही पुराना घिसा-पिटा किरदार है जो गदर में था, लेकिन ओ माय गॉड 2 के केंद्र में पंकज त्रिपाठी हैं, जो न तो बॉलीवुड की स्टार परंपरा से आते हैं और न ही बॉक्स ऑफिस पर परंपरागत मसाले व लटकों-झटकों के सहारे सुपरहिट फिल्में देने की कोई दावेदारी रखते हैं। सनी की तुलना में पंकज बॉलीवुड में आउटसाइडर हैं, उनकी छवि एक आम चरित्र अभिनेता की है। लेकिन तीन दिन में 40 करोड़ रु. का बिजनेस उनके जैसों कलाकारों की अहमियत को खास बनाता है। भारतीय सिनेमा सौ साल से ज्यादा लंबी यात्रा तय कर चुका है। इस दौरान इसने तमाम महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक बदलाव देखे हैं। पिछले कुछ वर्षों में स्टार सिस्टम के लिए कुख्यात इस इंडस्ट्री में एक ऐसा अहम बदलाव आया है, जिसे पंकज त्रिपाठी जैसे अभिनेता रेखांकित कर रहे हैं। इस बदलाव ने तमाम छोटे शहरों और कस्बों से निकले पंकज जैसे मामूली शक्लो सूरत, सामान्य देहयष्टि, लेकिन अभिनय के तमाम आयामों में बाकायदा प्रशिक्षित ऐसे अभिनेताओं को रंगमंच से लाकर बड़े परदे के केंद्र में स्थापित किया है, जहां उन्हें अपनी प्रतिभा को व्यापक दर्शकों के बीच दिखाने का भरपूर मौका मिला है। इनमें से कई चेहरों को हम सब उनकी अदाकारी के दृश्यों और उनकी फिल्मों से पहचानते हैं, भले उनके नाम हमें पता न हों।
ऐसा हमेशा से नहीं था। भारतीय सिनेमा में वैसे नायकों की पूछ रही है जिनकी छवि लार्जर दैन लाइफ हो। उनके सह-कलाकारों को हमेशा चरित्र अभिनेता कहकर हाशिये पर रखा गया, भले ही वे कितने ही प्रतिभावान क्यों न रहे हों। इस कारण लंबे समय तक एक विशेष छवि वाले अभिनेताओं को ही फिल्मों में मुख्य किरदार निभाने का अवसर मिलता रहा। जिन अभिनेताओं की विशेष कद-काठी, रंग-रूप, चाल-ढाल होती, उन्हें ही फिल्म में मुख्य भूमिका दी जाती। उन्हीं के अनुसार फिल्म की कहानियां लिखी जाती थीं। इसके चलते आहिस्ता-आहिस्ता दर्शकों के मन में भी नायक की एक खास छवि स्थापित हो गई। फिल्म की सफलता और कारोबार का सारा जिम्मा इन्हीं अभिनेताओं पर होता था। गुजरे जमाने में मोतीलाल से लेकर ओम प्रकाश और इफ्तिखार से लेकर कन्हैयालाल तक जैसे अनगिनत प्रतिभावान अभिनेताओं को प्रभावशाली किरदार तो मिलते थे, पर फिल्म का कारोबार उन पर निर्भर नहीं करता था। फिल्म का कारोबार केवल अभिनेता की लोकप्रियता से जुड़ा था। उन्हें महज चरित्र अभिनेता कहकर नकार कर दिया जाता था। यहां तक कि दशकों तक यह हालत रही कि नायिकाओं का होना भी तदर्थ हुआ करता था। नायिका कोई भी हो, सारा दांव नायक पर रहता था। इसका परिणाम यह हुआ कि अनेक कलाकार हाशिये पर रह गए। इक्का-दुक्का अगर आगे भी बढ़े, तो उन्हें कई दशक तक संघर्ष करना पड़ा।
ऐसा नहीं है कि आज जो बदलाव आया है और उसने जिन चेहरों को हमारा परिचित बनाया है, वे कल के आए हुए हैं। पंकज त्रिपाठी हों या नवाजुद्दीन सिद्दीकी या दिवंगत इरफान खान, इन सबको कम से कम दो दशक तक काम करने के बाद पहचान मिली है। आज से बीस साल पहले आई फिल्म हासिल में बृजेंद्र काला भी थे, अगर आपको यह बात बताई जाए तो उन्हें खोजने के लिए आपको दोबारा वह फिल्म देखनी पड़ेगी क्योंकि पान सिंह तोमर से पहले उन्हें किसी ने पहचाना ही नहीं था।
दरअसल, इन कलाकारों की निरंतर मेहनत, संयम और संघर्ष ने उन्हें आज वहां पहुंचाने का काम किया है जहां वे हैं। यह श्रेय पूरी तरह बॉलीवुड में बदले हुए माहौल को नहीं दिया जा सकता क्योंकि अब भी यहां स्टार बनाम गैर-स्टार की बहस किसी न किसी बहाने सिर उठा ही लेती है- चाहे वह सुशांत सिंह राजपूत की मौत का संदर्भ हो या कंगना रनौत के आरोप। इसके बावजूद आम कलाकारों की स्टार सिस्टम के भीतर स्वीकार्यता बनी है, इसमें दो राय नहीं है।
इस बदलाव में दर्शकों का भी योगदान बड़ा है। पिछले एक दशक में दर्शकों का रुझान कंटेंट-प्रधान फिल्मों की ओर गया है। इसी वजह से कई सुपरस्टारों की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरी हैं जबकि कथित छोटे कलाकारों की फिल्मों ने शानदार व्यवसाय किया। इस बदलाव में एक बड़ी भूमिका निभाई कोविड-19 महामारी के दौर ने, जब हिंदी के दर्शकों को फुरसत में बैठ कर दक्षिण भारत और हॉलीवुड या यूरोपीय फिल्मों को देखने का मौका मिला। उसके बाद स्टार और बड़े बजट की हिंदी फिल्मों से दर्शकों का मन उचटने लगा जबकि छोटे बजट की अनाम कलाकारों को लेकर बनी फिल्में लोगों का ध्यान खींचने लगीं।
इस लिहाज से कोरोनाकाल से काफी पहले आई कुछ फिल्मों का जिक्र करना जरूरी है, जिन्होंने आम चेहरों को लोगों के बीच तब पहचान दिलवाई जब बदलाव की यह प्रक्रिया शुरू ही हुई थी। इनमें सबसे पहले भेजा फ्राइ का जिक्र किया जाना चाहिए जिसने विनय पाठक को घर-घर में पहचान दिलवाई। उसके बाद आई पीपली लाइव, विक्की डोनर, लिपस्टिक अंडर माइ बुरका आदि का नाम लिया जा सकता है। पीपली लाइव ने ओमकार दास माणिकपुरी को जैसी लोकप्रियता दिलवाई, वह अभूतपूर्व थी। अगर कारोबार की बात करें, तो अकेले एक अभिनेत्री के बल पर बनी कहानी और नो वन किल्ड जेसिका ने 104 करोड़ रुपये की कमाई की जबकि ये फिल्में 10 करोड़ रुपये से कम की लागत में बनी थीं। पिछले पांच साल में यह प्रक्रिया ओटीटी प्लेटफॉर्म के घर-घर प्रवेश के कारण तेज हुई है।
इससे पहले के दसेक साल के दौरान बॉलीवुड में कुछ होनहार फिल्मकारों का एक समूह उभरा था जो नए कलाकारों पर अच्छी कहानी के साथ रिस्क लेता था। अनुराग कश्यप, सौरभ शुक्ला, विक्रमादित्य मोटवाने, नीरज पांडे, जोया अख्तर, जैसों की कहानियों से जितने नए कलाकार बॉलीवुड में पहचाने गए, उनमें नवाजुद्दीन और पंकज त्रिपाठी आज सबसे कामयाब जान पड़ते हैं। अकेले गैंग्स ऑफ वासेपुर ने एक साथ कई कलाकारों को पहचान दी, जिस मामले में इस अकेली फिल्म को अभूतपूर्व माना जाना चाहिए-नवाजुद्दीन, पंकज के अलावा जीशान कादरी, ऋचा चड्ढा, हुमा कुरैशी, राजकुमार राव, जयदीप अहलावत, विनीत कुमार सिंह, आदित्य कुमार, प्रमोद पाठक, फैसल मलिक, इनमें प्रमुख हैं।
इनके अलावा, गजराज राव, संजय मिश्रा, बृजेंद्र काला, कुमुद मिश्रा, दीपक डोबरियाल, और विजय वर्मा जैसे कई अभिनेताओं ने भी खुद को लंबे संघर्ष के बाद स्थापित किया है। खासकर, विजय वर्मा ने पिछले कुछ वर्षों में अभिनय की नई ऊंचाइयां हासिल की हैं। 2012 में चटगांव से फिल्मी करिअर की शुरुआत करने के बाद विजय वर्मा ने गली बॉय, दहाड़, कालकूट, मिर्जापुर, डार्लिंग्स, लस्ट स्टोरीज 2 में जिस तरह का काम किया है, वह उनकी असाधारण प्रतिभा को दर्शकों की निगाह में ला चुका है। ऐसे कलाकारों द्वारा निभाए गए किरदारों से आम दर्शकों ने बार-बार अपना जुड़ाव महसूस किया है। ऐसे ही जुड़ाव का एक और नाम है मानव कौल, जिन्हें बरसों रंगमंच, टीवी और फिल्म करने के बाद 2013 में काइ पो चे में आम दर्शक ने पहचाना, उसके बाद 2017 में तुम्हारी सुलु के लिए जब उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार मिला तो उनके पास भूमिकाओं की झड़ी लग गई। न केवल जॉली एलएलबी 2 जैसी विशुद्ध मनोरंजक सिनेमा में वे देखे गए बल्कि अलबर्ट पिन्टो को गुस्सा क्यों आता है में मानव ने अभिनय की कई जटिल परतों को उभारते हुए अपनी रचनात्मक क्षमता का परिचय दिया।
विजय वर्मा या मानव कौल जैसे मजबूत कलाकारों से भारतीय दर्शकों को रूबरू कराने वाले बदलाव का शुरुआती श्रेय मनोज वाजपेयी और इरफान जैसे अभिनेताओं को जाता है, जिन्होंने उस दौर में अपनी पहचान बनाई जब रोमांटिक और ऐक्शन फिल्मों की लोकप्रियता चरम पर थी। उनकी सफलता ने बाद में केके मेनन और नवाजुद्दीन जैसे अभिनेताओं का मार्ग प्रशस्त किया। जब 2010 के बाद कंटेंट प्रधान फिल्में थोक भाव में बनने लगीं तब संजय मिश्रा, पंकज त्रिपाठी, गजराज राव, बृजेंद्र काला और कुमुद मिश्र जैसे कलाकरों को वैसे मौके मिलने लगे जिनका वर्षों से ये सब इंतजार कर रहे थे।
गजराज राव तीस साल पहले 1994 में ही निर्देशक शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन में काम कर चुके थे, लेकिन अपनी पहचान बनाने के लिए उन्हें इतना लंबा इंतजार करना पड़ा। उन्होंने दिल से, अक्स, तलवार, ब्लैक फ्राइडे जैसी फिल्मों में काम तो किया लेकिन इस काम की बदौलत न कोई उनका नाम जान पाया, न ही उनका चेहरा पहचान बन पाया। उनका संघर्ष 2018 में खत्म हुआ जब बधाई हो नाम की फिल्म आई, जिसने उनकी जिंदगी बदल दी।
गजराज राव मानते हैं कि उन्होंने इतने साल जो मेहनत की, कोशिश की, उसका फल अब उन्हें मिल रहा है। गजराज आउटलुक से बातचीत में कहते हैं, “अपने संघर्ष के दौरान, मैंने कभी हिम्मत नहीं छोड़ी। कभी सिस्टम या भगवान को दोष नहीं दिया। आज जब मैं अपनी सफलता को देखता हूं, तो महसूस होता है कि यह संघर्ष से ही मिली है। आज मेरे जिस अभिनय की लोग तारीफ करते हैं, उसके पीछे संघर्ष और मेहनत है। मैं सभी लोगों से कहता हूं कि यदि अपने काम में श्रेष्ठ बनना चाहते हो तो कभी संघर्ष से मत घबराना। संघर्ष का रास्ता ही श्रेष्ठता तक पहुंचाता है।” (देखें इंटरव्यू)
गजराज राव की ही तरह अभिनेता संजय मिश्रा का संघर्ष भी कठिन रहा है। उन्होंने भी अपने जीवन के तकरीबन 30 बहुमूल्य वर्ष संघर्ष में खपाए हैं। नब्बे के दशक में दिल से, सत्या जैसी फिल्मों से शुरुआत करने वाले संजय को हिंदी सिनेमा में उनकी प्रतिभा के अनुसार मौके नहीं मिले। संजय मिश्रा उस अवसर को पाने के लिए छटपटा रहे थे, जो उनकी प्रतिभा का सही मूल्यांकन करा सके। जब हिंदी सिनेमा में उन्हें अवसर नहीं दिखा तो उन्होंने टेलीविजन जगत का रुख किया और लोकप्रिय टीवी शो ऑफिस ऑफिस के माध्यम से अपनी पहचान बनाई। उसके बाद भी हिंदी सिनेमा ने संजय मिश्रा का कई वर्षों तक केवल कॉमेडियन के रूप में इस्तेमाल किया। जब संजय के हिस्से में आंखों देखी, मसान, कड़वी हवा, वध जैसी फिल्में आईं, तब दर्शक उनकी अभिनय क्षमता से खुलकर वाकिफ हो सके।
संजय मिश्रा कहते हैं, “आज दर्शक भी परिपक्व हुआ है। नए विषयों पर फिल्में बन रही हैं। हर तरह के कलाकारों को काम मिल रहा है। मुझ जैसे कलाकारों को, जिन्हें कल तक सहायक भूमिका मिलती थी, उन्हें फिल्म का मुख्य किरदार मिल रहा है। यह सारा बदलाव दर्शकों के कारण ही आया है।” (देखें इंटरव्यू)
गजराज और संजय की तरह बृजेंद्र काला की यात्रा भी संघर्षपूर्ण रही है। हाल में ओह माय गॉड 2 में दिखे बृजेंद्र काला ने मुंबई आने से पहले लंबे समय तक रंगमंच किया। मुंबई आने के बाद जब उन्हें काम नहीं मिला तो उन्होंने क्रेडिट कार्ड से घर चलाया और क्रेडिट कार्ड के पैसे चुकाने के लिए टेलीविजन में काम किया। आखिरकार जब वी मेट, पीके, पान सिंह तोमर, जॉली एलएलबी 2 जैसी फिल्मों ने बृजेंद्र को भारतीय दर्शकों के दिल में स्थापित कर दिया।
फिल्म समीक्षक दीपक दुआ ऐसे कलाकारों के उभार की परिघटना को समझाते हुए बताते हैं कि जब छोटे शहरों से निर्देशक और लेखक मुंबई पहुंचे, तो उनके साथ ग्रामीण भारत और कस्बों की कहानियां भी मुंबई पहुंचीं। इन कहानियों की मांग के अनुसार प्रतिभावान अभिनेताओं को अवसर मिले और उन्होंने अपनी काबिलियत को साबित किया। फिल्मकार विशाल भारद्वाज, दिबाकर बनर्जी, अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धूलिया जैसे फिल्मकारों ने भारतीय दर्शकों के मन में छपी नायक की छवि को बदलने का काम किया। बाद में जब भारतीय दर्शकों ने ओटीटी प्लेटफॉर्म एवं अन्य माध्यमों से विश्व सिनेमा देखा तो उसका दृष्टिकोण विकसित हुआ।
यह सच है कि स्टार कल्चर बॉलीवुड में कायम है। आज भी जब हजार करोड़ के कलेक्शन की बात हो तो शाहरुख खान, अजय देवगन, अक्षय कुमार और सलमान की ही फिल्मों की चर्चा होगी। पर पैसा और कमाई ही सब कुछ नहीं है, कलाकार का हुनर और दर्शक को मिलने वाला रस, आनंद, संतोष ही बुनियादी है। सदियों से कला इसी सूत्र से परिभाषित होती रही है। ताजा बदलाव इसी की तसदीक करता है।