आवरण कथा/बॉलीवुड: शोहरत, और फिर एकाकी अंत
सत्तर के दशक में अजीज नाजां की एक कव्वाली ‘चढ़ता सूरज धीरे-धीरे ढलता है ढल जाएगा’ बहुत लोकप्रिय हुई थी। कैसर रत्नागिरी के लिखे इस गीत में जिंदगी के इस फलसफे को बड़ी खूबसूरती से पिरोया गया था कि जिसे शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचना है उसका नीचे आना भी तय है। बॉलीवुड के लिए यह बिलकुल सटीक है। ग्लैमर की चकाचौंध से भरी फिल्म इंडस्ट्री में न जाने कितने अपने जमाने के नामवर फनकार ढलती उम्र में गुमनामी में खो गए। उनमें कुछ की हालत तो ऐसी हो गई कि उन्हें न सिर्फ दाने-दाने को मोहताज होना पड़ा, बल्कि आखिरी दिनों में परिवार तो दूर, उनके साथ वक्त बिताने वाला कोई शख्स नहीं मिला।
विनोद खन्ना सत्तर और अस्सी के दशक के शीर्ष अभिनेताओं में थे। एक दौर तो ऐसा था जब उन्हें अमिताभ बच्चन की टक्कर का स्टार माना जाता था। उन्हें बॉलीवुड का जॉन वेन समझा जाता था, जिनकी दिलकश चाल और लहराती जुल्फों के लाखों दीवाने थे। 2017 में जब कैंसर से उनकी मृत्यु हुई, तो उनकी अंतिम यात्रा में इंडस्ट्री के कुछ गिने-चुने लोग शामिल हुए। कई फिल्मों में उनके सह-कलाकार रहे ऋषि कपूर को यह देखकर बड़ा गुस्सा आया था। उन्होंने बॉलीवुड की हस्तियों को खूब खरी-खोटी सुना डाली।
इसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं था। फिल्म इंडस्ट्री में अपने दौर में कोई कितना भी मशहूर सितारा क्यों न रहा हो, बदलते समय के साथ उसकी पूछ कम होती ही जाती है। विनोद खन्ना के साथ भी यही हुआ। उनकी मृत्यु 69 वर्ष के आयु में हुई, तब उनकी करिश्माई शोहरत का दौर बहुत पीछे छूट चुका था। जीवन के अंतिम वर्षों में वे सिर्फ चरित्र अभिनेता की छोटी-मोटी भूमिकाएं कर रहे थे। उनके दोनों पुत्र- अक्षय खन्ना और राहुल खन्ना- भी अभिनेता हैं, मगर फिल्म इंडस्ट्री में उनकी हैसियत कम हो चुकी थी। फिल्म इंडस्ट्री की यही कड़वी सच्चाई रही है।
विनोद अकेले बड़े स्टार नहीं थे, जिनके साथ ऐसा हुआ। अपने जमाने के मशहूर कलाकार प्राण के दाह-संस्कार के मौके पर इंडस्ट्री के कुछ ही लोग मौजूद थे। इससे कई फिल्मों में उनके साथ काम कर चुके अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा को दुख के साथ आश्चर्य हुआ क्योंकि प्राण को मिलने वाला पारिश्रमिक उनके दौर के अधिकतर बड़े सितारों से अधिक होता था। एक समय ऐसा भी था जब वितरकों की मांग पर हर बड़ी फिल्म में उनकी उपस्थिति अनिवार्य हो गई थी।
हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना की अंतिम यात्रा में लोगों की भीड़ जरूर उमड़ी और उनमें इंडस्ट्री की नामी-गिरामी हस्तियां शामिल थीं। यह तो नहीं कहा जा सकता कि उनकी मौजूदगी कलाकार के रूप में राजेश के योगदान की वजह से थी या उनके दामाद अक्षय कुमार के वर्तमान काल में स्टार स्टेटस के कारण, लेकिन यह हकीकत है कि राजेश अपने आखिरी वर्षों में मुंबई के कार्टर रोड स्थित ‘आशीर्वाद’ नामक बंगले में एकाकी जिंदगी व्यतीत कर रहे थे। ये वही राजेश थे जिनकी सत्तर के दशक की शुरुआत में अप्रत्याशित शोहरत के दौरान उनकी कार को चूमने के लिए लड़कियों का हुजूम उनके घर के बाहर इंतजार में खड़ा रहता था।
नागिन (1954) जैसी सुपरहिट फिल्म के नायक प्रदीप कुमार भी अपने दौर के ख्यात कलाकार थे, लेकिन लकवाग्रस्त होने के बाद जीवन के अंतिम दिनों में उनकी देखभाल उनके परिवारवालों की जगह उनके एक फैन ने की। उन्हीं की तरह भारत भूषण भी ब्लैक ऐंड व्हाइट दौर की फिल्मों के बड़े हीरो थे, जिन्होंने बैजू बावरा (1953) जैसी सुपरहिट फिल्म में काम किया लेकिन बाद में उनके द्वारा निर्मित कुछ फिल्मों के सुपर फ्लॉप होने की वजह से वे सड़क पर आ गए। अंतिम वर्षों में उन्होंने छोटी-मोटी भूमिकाएं निभा कर जीवनयापन किया। ये वही भारत भूषण थे जो साठ के दशक के अंत तक इम्पाला कार में सफर करते थे, जो उस वक्त बड़े कलाकारों का स्टेटस सिंबल हुआ करती थी। अलबेला (1951) से मशहूर हुए भगवान दादा को भी मुंबई की चाल में अपने अंतिम दिन गुमनामी में बिताने पड़े। साठ के दशक के एक और सुपरस्टार जॉय मुखर्जी की अंतिम यात्रा में उनके खानदान के सदस्यों के अलावा कोई नामी-गिरामी स्टार नजर नहीं आया था।
ढलती उम्र में बड़ी अभिनेत्रियों का भी यही हश्र हुआ। अपने जमाने की शीर्ष अभिनेत्रियों साधना और नंदा की मृत्यु होने पर करीबी मित्रों के अलावा इंडस्ट्री के बहुत कम लोग दिखे। परवीन बाबी का अंत तो और दुखद स्थिति में हुआ। लंबे समय तक मानसिक अवसाद झेलने के बाद अपने जुहू स्थित फ्लैट में जब उनकी मौत हुई तो उनके साथ कोई भी न था। पड़ोसियों को उनकी मौत का पता तब चला जब उन्होंने देखा कि परवीन कई दिनों से दरवाजे पर रखे अपने दूध के पैकेट नहीं उठा रही हैं। उस वक्त वे महज 49 वर्ष की थीं। सत्तर और अस्सी के दशक में उनका शुमार टॉप की अभिनेत्रियों में होता था। उन्हें सुपुर्द-ए-खाक करते वक्त डैनी, कबीर बेदी और महेश भट्ट, जिनके साथ उनके पूर्व में करीबी संबंध थे, के अलावा इंडस्ट्री के इक्का-दुक्का लोग ही दिखे।
अस्सी के दशक में गुजरे जमाने की लोकप्रिय डांसर कुक्कू मोरे का जब निधन हुआ तो उनकी अंतिम क्रिया के पैसे तक नहीं थे, जबकि कहा जाता है कि अपनी शोहरत की बुलंदियों पर उन्होंने अपने पालतू कुत्ते की सैर के लिए एक कार खरीद रखी थी। हेलेन के आने के पूर्व वे इंडस्ट्री की पहली नृत्यांगना थीं, जिनके ‘आइटम सांग’ के बगैर कोई फिल्म पूरी नहीं समझी जाती थी। कुछ वैसा ही हाल विमी के साथ हुआ, जिन्होंने बी.आर. चोपड़ा की हमराज (1967) से अपने फिल्मी सफर का शानदार आगाज किया, लेकिन बाद में वे अपनी लोकप्रियता को बरकरार नहीं रख पाईं। कहा जाता हैं कि अस्सी के दशक में जब उनकी मृत्यु हुई तो उनके पार्थिव शरीर को लावारिस समझकर एक ठेले से श्मशान ले जाया गया। सूचना मिलने पर फिल्म इंडस्ट्री से वहां सिर्फ सुनील दत्त पहुंचे, जो हमराज में उनके सह-कलाकार थे।
इनके अलावा, फिल्म इंडस्ट्री के कई अन्य कलाकारों के जीवन के आखिरी कुछ वर्ष निराशा और मुफलिसी में बीते। ए.के. हंगल जैसे कलाकार के पास अपना इलाज करने के पैसे नहीं थे। बाद में जया बच्चन सहित कई कलाकार उनकी मदद को सामने आए। पंजाबी सिनेमा के सुपरस्टार सतीश कौल के साथ भी यही हुआ, जिन्होंने कई हिंदी फिल्मों में काम किया था।
जाहिर है, रुपहले परदे पर दिखने वाले अनेक लोकप्रिय फिल्म कलाकारों को उम्र ढलने पर निजी जिंदगी में उन्हीं मुश्किलों का सामना करना पड़ा जैसा किसी भी आम आदमी को करना पड़ता है। शोहरत के अर्श से गुमनामी के फर्श तक पहुंचने के दिल तोड़ने वाले कई किस्से बॉलीवुड के इतिहास के स्याह पन्नों में दर्ज हैं, जिनके बारे में बात कम होती है।